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10 नवंबर 2025 · NOV 10 , 2025

बिहार विधानसभा चुनाव ’25/ आवरण कथाः वर्चस्व बचाने की जद्दोजहद

यह चुनाव पिछले साढ़े तीन दशकों से बिहार की सियासत की दशा और दिशा तय करने वाले दो नेताओं लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के लिए आखिरी मुकाबले की तरह
किसके हाथ लगेगी बाजी

उतार-चढ़ाव की राजनीति का पर्याय समझे जाने वाले बिहार में पिछले 35 वर्षों में सिर्फ दो ही नेताओं, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार का वर्चस्व रहा है। दोनों एक ही समाजवादी विचारधारा से ऊपर उठे, करीबी सहयोगी भी रहे, कट्टर प्रतिद्वंदी भी। कभी उनकी राहें जुदा हुईं, कभी साझा लक्ष्य को हासिल करने के लिए सारे गिले-शिकवे भुला दिए। उनके बीच मतभेद भी हुए, मनभेद भी, लेकिन दोनों ने कभी तल्ख, कभी नरम रिश्तों के बीच इसका ख्याल जरूर रखा कि जब भी कभी उन्हें फिर से गलबहियां करने का मौका मिले, तो किसी को शर्मिंदगी का एहसास न हो। हालिया वर्षों में बिहार की चुनावी राजनीति का यही निचोड़ रहा है।

सामाजिक जीवन में एक-दूसरे को पचास साल से अधिक से करीब से जानने वाले दोनों नेता इस विधानसभा चुनाव में फिर आमने-सामने हैं, अपने राजनैतिक वर्चस्व और विरासत को बचाने की जद्दोजहद में। आगामी 6 और 11 नवंबर को दो चरणों में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में दोनों पुराने प्रतिद्वंद्वियों की साख दांव पर है और 14 नवंबर को चुनाव परिणामों की घोषणा होने के बाद ही पता चलेगा कि इस बार बाजी किसने मारी है।

नीतीश एक बार फिर इस चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के ‘नेता’ हैं, तो लालू महागठबंधन की विचारधारा के ऐसे प्रतीक जिनकी सियासी ताकत के बल पर उनका हर सहयोगी दल चुनावी वैतरणी पार करना चाहता है। चुनौती देने वाले नए खिलाड़ियों के बावजूद पिछले कई चुनावों की तरह इस बार भी बिहार में लड़ाई नीतीश कुमार बनाम लालू यादव की ही है।

वैसे तो नीतीश जिस गठबंधन में हैं, उसमें भाजपा सबसे बड़ा सहयोगी दल है, जिसका तुरुप का इक्का स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, लेकिन प्रदेश की जंग की कमान अभी भी जनता दल-यूनाइटेड के हाथ में ही है। नीतीश ने पिछले 20 साल में राजनैतिक कौशल और सोशल इंजीनियरिंग की बदौलत जीत का ऐसा फार्मूला बनाया, जिसका विकल्प अब तक न भाजपा ढूंढ पाई है, न लालू को इसकी कोई काट मिल पाई है। हाल का चुनावी इतिहास इस बात की तस्दीक करता है कि नीतीश जिस गठबंधन में रहते हैं, चुनावी जीत उसी की होती है। बिहार की राजनीति में नीतीश का यही यूनिक सेलिंग पॉइंट (यूएसपी) है, जिसकी बदौलत वे चुनाव दर चुनाव जीत का परचम लहराते हैं। जबसे नीतीश बिहार की सत्ता में आए, यह परिपाटी-सी बन गई है।

भाजपा के सहयोग से नवंबर 2005 के विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज करके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जबसे नीतीश कुमार बैठे, उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। जब 2010 में प्रदेश का अगला चुनाव हुआ तो उन्होंने प्रचंड बहुमत हासिल किया। हालांकि तीन साल के भीतर ही उनका अपने पुराने सहयोगी से मोहभंग हो गया, जब भाजपा की कमान लालकृष्ण आडवाणी की जगह गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने थाम ली। इसका खामियाजा नीतीश को 2014 के लोकसभा चुनावों में भरना पड़ा जब उनकी पार्टी के सांसदों की संख्या 20 से घटकर सिर्फ दो रह गई। लेकिन उस चुनाव परिणाम से नीतीश ने सबक सीखा कि अखाड़े में वर्चस्व बरकरार रखना है, तो जदयू को लालू या भाजपा में से किसी एक गठबंधन का हिस्सा बनना पड़ेगा। नीतीश ने 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू के साथ गठबंधन किया और भाजपा को कड़ी शिकस्त देकर फिर से मुख्यमंत्री बने।

दरअसल नीतीश को लगता था कि अगर एनडीए का नेतृत्व भाजपा के ‘हार्ड लाइनर’ मोदी के हाथों में चला जाएगा, तो बिहार के मुस्लिम मतदाता उनसे दूर चले जाएंगे और लालू यादव की सत्ता में वापसी आसान हो जाएगी। सो, उन्होंने अटल-आडवाणी युग में मोदी को बिहार के चुनाव में प्रचार के लिए नहीं भेजने का भाजपा आलाकमान से लगातार आग्रह किया।

दरअसल नीतीश ने यह रणनीति लालू के मजबूत एम-वाइ (मुस्लिम-यादव) के चुनावी किले में सेंध लगाने के लिए बनाई थी। बिहार में मुस्लिमों की जनसंख्या लगभग 17 और यादवों की 13 प्रतिशत रही है। इस वजह से उन्हें लगता था कि जब तक उस समीकरण को ध्वस्त नहीं किया जाएगा, बिहार में लालू की वापसी का ‘खतरा’ हमेशा बरकरार रहेगा। इसलिए उन्होंने मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए कई अल्पसंख्यक कल्याण की योजनाएं चलाईं। उस दौरान नीतीश ने जोर दिया कि उनकी पार्टी भाजपा से तीन प्रमुख मुद्दों, अयोध्या राम मंदिर निर्माण, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 पर अलग राय रखती है।

नीतीश कुमार और लालू यादव

लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार

इसी रणनीति के तहत जून 2010 में पटना में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग के दौरान वरिष्ठ भाजपा नेताओं के सम्मान में दिए जाने वाले भोज को अंतिम समय में रद्द कर दिया क्योंकि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मोदी को उससे दूर रखने की उनकी मांग को ठुकरा दिया। नीतीश ने गुजरात से मोदी सरकार के बिहार बाढ़ पीड़ितों की राहत के लिए भेजी गई 5 करोड़ रुपये की राशि भी वापस कर दी।

जाहिर है, नीतीश यह संदेश देना चाहते थे कि वे भाजपा के साथ भले ही गठबंधन में सरकार चला रहे हों लेकिन अल्पसंख्यकों के हित के लिए वे लालू से अधिक प्रतिबद्ध हैं। उनके प्रयासों का कुछ असर 2010 के विधानसभा चुनाव में दिखा, जब अल्पसंख्यकों के एक बड़े वर्ग ने उनका समर्थन किया। नीतीश की यह बड़ी सफलता थी कि उन्होंने लालू के ‘वोट बैंक’ कहे जाने वाले किले में सेंध लगा ली थी। नीतीश उसे और मजबूत करना चाहते थे क्योंकि अपनी पार्टी का जनाधार लालू यादव को चुनावी नुकसान पहुंचा कर बढ़ाना था। इसलिए जब मोदी को 2013 में एनडीए के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करने की खबर आई, तो नीतीश ने भाजपा के साथ सत्रह वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ दिया।

उस समय लालू का सारा ध्यान मनमोहन सिंह सरकार के रेलवे मंत्री के रूप में दिल्ली की राजनीति पर केंद्रित था। 2005 में जब मुख्यमंत्री के रूप में लालू प्रसाद-राबड़ी देवी का 15 साल का कार्यकाल नीतीश ने खत्म किया तो लालू ने अपनी सारी ऊर्जा केंद्र की राजनीति में लगाई, और बिहार में नीतीश की रणनीतियों को विफल करने में कोई दिलचस्प नहीं दिखाई। वे नीतीश को महज भाजपा का मोहरा समझते रहे और उन्होंने अपनी लड़ाई भाजपा के कथित सांप्रदायिकता के मुद्दे के इर्दगिर्द रखा। इस कारण नीतीश को अपने विकास के एजेंडे को बढ़ाने के लिए मैदान खाली मिला। सहयोगी भाजपा ने भी नीतीश को बिहार के ‘पुनर्निर्माण’ करने में पूरा सहयोग दिया।

लालू-राबड़ी कार्यकाल की गलतियों से सबक लेकर नीतीश ने मुख्यमंत्री बनने के बाद मुख्य रूप से तीन मुद्दों, कानून-व्यवस्था को सुदृढ़ करना, भ्रष्टाचार को मिटाना और सांप्रदायिकता पर नकेल कसने पर ध्यान दिया। राजद के पंद्रह साल के कार्यकाल को लचर कानून-व्यवस्था के कारण ‘जंगल राज’ तक कहा गया। इसलिए जब नीतीश ने कानून-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करना शुरू किया, तो बिहार का बहुत बड़ा मतदाता वर्ग उनसे बहुत प्रभावित हुआ। भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता पर भी उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देकर, राजनैतिक संरक्षण प्राप्त बाहुबलियों के खिलाफ स्पीडी ट्रायल की व्यवस्था तय कर और शिक्षा-स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार कर सियासी जमीन मजबूत की।

नीतीश को यह पता था कि अगर उन्होंने अपने कार्यकाल में विकास की लंबी लकीर नहीं खींची, तो लालू जैसे जमीन से जुड़े राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी को लंबे समय तक सत्ता से बाहर नहीं रखा जा सकता है। इसलिए उन्होंने बिहार के चहुंमुखी विकास के लिए दिन-रात काम किया, ताकि लालू की वापसी आसान न रहे।  विडंबना यह हुई कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद दोनों नेताओं को एक दूसरे की जरूरत हुई क्योंकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा का जनाधार न सिर्फ देश में बल्कि बिहार में भी बढ़ने लगा था।

2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन की भारी जीत के बाद नीतीश और लालू दोनों के सामने राजनैतिक संकट मंडरा रहा था। लोकसभा चुनाव के बाद अपनी पार्टी की हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर महादलित नेता जीतन राम मांझी को उत्तराधिकारी बनाया लेकिन मांझी ने कमान संभालने के बाद इस धारणा को तोड़ दिया कि वे नीतीश के ‘प्रॉक्सी’ के रूप में काम करेंगे। नीतीश खेमे को यह भी शक हुआ कि मांझी भाजपा के साथ कोई ‘सीक्रेट डील’ कर चुके थे।

ऐसी स्थिति में नीतीश के पास मांझी को हटाने के अलावा कोई चारा नहीं था। ऐसी परिस्थिति में नीतीश और लालू के पास कटुता भुला कर एक साथ आने के अलावा शायद कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा था। उनका गठबंधन प्रभावी था, जिसके कारण 2015 विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को भारी जीत मिली। हालांकि यह गठबंधन ज्यादा नहीं चला। दो वर्ष के भीतर नीतीश ने राजद से नाता तोड़ कर फिर से भाजपा के साथ सरकार बना ली।

सत्तर के दशक की शुरुआत में लालू और नीतीश की जान-पहचान तब हुई जब वे पटना यूनिवर्सिटी के छात्र थे। जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान दोनों करीब आए और लालू के मुख्यमंत्री बनने तक दोनों के संबंध प्रगाढ़ रहे। सत्ता मिलने के बाद लालू की कार्यशैली से नाराज नीतीश 1993 में उनसे अलग हो गए और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी बनाकर 1995 के विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई। उनकी पार्टी को मात्र सात सीटें मिलीं। एक साल बाद, आडवाणी की सलाह पर लालू के खिलाफ उन्होंने भाजपा से गठबंधन कर लिया।

दरअसल 1990 में लालू यादव ने मुख्यमंत्री रहते हुए आडवाणी को रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में गिरफ्तार करवाया था। इस कारण मुस्लिम मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता बढ़ी, जो 1989 के भागलपुर दंगों के बाद कांग्रेस का विकल्प तलाश रहे थे। लालू को एम-वाइ समीकरण मजबूत करने में मदद मिली जो उनका चुनावी ब्रह्मास्त्र साबित हुआ। 

भाजपा नब्बे के दशक में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी थी, लेकिन लालू को सत्ता से बाहर करने में उसकी कोशिश सफल नहीं हो रही थी। नीतीश के रूप में उन्हें ऐसा गैर-यादव ओबीसी नेता मिला जो लालू को चुनौती देने का माद्दा रखता था। इसलिए समता पार्टी से बड़ी पार्टी होने के बावजूद जब 2000 में राबड़ी देवी सरकार के बर्खास्त होने के बाद एनडीए गठबंधन की सरकार बनी, तो भाजपा ने सहर्ष नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया। बहुमत के अभाव में सरकार सात दिन में गिर गई लेकिन भाजपा और नीतीश के लिए यह स्पष्ट हो गया कि राजद की सत्ता खत्म करने के लिए अभी और तैयारी की जरुरत है। फरवरी 2005 में त्रिशंकु विधानसभा बनने के बाद उसी साल नवंबर में फिर चुनाव हुए तो भाजपा ने पहली बार चुनाव से पहले नीतीश को गठबंधन के मुख्यमंत्री के चेहरा के रूप में पेश किया जिसके बाद भाजपा-जदयू को सरकार बनाने में सहायता मिली।

विडंबना है लालू राज के दौरान जिस लचर कानून-व्यवस्था और भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर नीतीश सत्ता में काबिज हुए, उन्हीं के साथ मिलकर उन्होंने 2015 में सरकार बनाई। यह बात और है कि भ्रष्टाचार के कथित मुद्दे पर ही नीतीश फिर से लालू से अलग भी हुए। गौरतलब है कि 2015 की जीत के बाद लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री बने जबकि उनके बड़े बेटे तेज प्रताप को कैबिनेट मिनिस्टर बनाया गया। भाजपा से गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश ने ऐलान किया था कि वे एनडीए में वापस कभी नहीं जाएंगे लेकिन नए मंत्रिमंडल के गठन के बाद से ही वे राजद के साथ अपने रिश्ते में असहज दिखने लगे।

उन्हें शिकायत मिलने लगी कि लालू अपने बेटों के मंत्रालयों सहित अपनी पार्टी को मिले सभी विभागों में दखलंदाजी कर रहे हैं। रही-सही कसर भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने पूरी कर दी। उन्होंने 44 प्रेस कॉन्फ्रेंस करके तेजस्वी और तेज प्रताप सहित लालू परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की झड़ी लगा दी। नीतीश ने तेजस्वी से आरोपों का जवाब देने को कहा। उनके ऐसा न करने पर राजद के साथ गठबंधन तोड़ वे वापस भाजपा के पास चले गए।

2015 के चुनाव में राजद 80 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। जदयू को सिर्फ 71 सीटें मिली थीं। इसके बावजूद लालू को नीतीश को मुख्यमंत्री स्वीकारना पड़ा क्योंकि चुनाव पूर्व उन्होंने उस पर मुहर लगा दी थी। जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, लालू गठबंधन के भीतर बड़े भाई की भूमिका में आने लगे, जिससे नीतीश असहज होने लगे। नीतीश का भाजपा के साथ सरकार चलाने का अनुभव बिलकुल अलग था। सुशील मोदी के उप-मुख्यमंत्री रहते नीतीश को ऐसा सामना नहीं करना पड़ा था।

हालांकि भाजपा के साथ बाद के वर्षों में नीतीश के रिश्ते उतने मधुर नहीं रहे, जो 2013 के पहले थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्हें इसका कड़वा एहसास हुआ जब एनडीए के ही एक घटक दल, लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने नीतीश के खिलाफ मुहीम खोल दी और जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े किए। नीतीश को लगा कि चिराग भाजपा के साथ किसी अंदरूनी समझौते के तहत यह कर रहे हैं, ताकि नीतीश को बिहार में कमजोर किया जा सके। वैसा हुआ भी। उस चुनाव में भाजपा 75 सीट के साथ बड़ी पार्टी के रूप में उभरी जबकि जदयू को मात्र 43 सीट से संतोष करना पड़ा। चिराग की पार्टी के गठबंधन से बाहर अलग से चुनाव लड़ने के कारण जदयू को 36 सीटों का नुकसान हुआ। उससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार में 16 सीट जीतने के बावजूद जदयू को केंद्र में सिर्फ एक मंत्रीपद दिए जाने और अरुणाचल प्रदेश के छह जदयू विधायकों के भाजपा खेमे में चले जाने से भी नाराजगी बढ़ी।

नीतीश इससे भी खुश नहीं थे कि 2020 चुनाव के बाद भाजपा ने सुशील मोदी की जगह अन्य भाजपा नेताओं को उप-मुख्यमंत्री का पद दिया। उनकी भाजपा से दूरियां बढ़ीं जिसने कई अफवाहों को जन्म दिया कि वे शायद इस चुनाव के पहले फिर से लालू के साथ गठबंधन कर सकते हैं। हालांकि भाजपा के वरिष्ठ नेता अमित शाह ने शुरुआत में ही यह घोषणा कर सभी अटकलों पर विराम लगाया कि एनडीए यह चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ेगी। लेकिन, क्या इस बार भी नीतीश एनडीए के मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा की पसंद रहेंगे, इस पर भाजपा ने किसी तरह का वादा अभी तक नहीं किया गया है।

जहां तक लालू का सवाल है, यह चुनाव उनके और उनके परिवार के लिए करो या मरो वाला चुनाव है। पिछले चुनाव में तेजस्वी सरकार बनाने के काफी करीब आ गए थे। पिछले दो विधानसभा चुनावों में राजद प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। लालू को उम्मीद है कि तेजस्वी ‘थर्ड टाइम लकी’ साबित होंगे। इसी उम्मीद के साथ लालू गिरते स्वास्थ्य के बावजूद अपने तमाम अनुभवों के आधार पर चुनावी रणनीतियां बना रहे हैं। हालांकि उनके अपने परिवार की अंदरूनी कलह चुनाव से पहले सतह पर आ गई है। पार्टी से निष्काषित होने के बाद उनके बड़े बेटे तेज प्रताप ने बगावत कर दी है और कई चुनाव क्षेत्रों में राजद के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे हैं।

हालांकि इस बार प्रशांत किशोर के जन सुराज पार्टी के सभी क्षेत्रों में चुनाव लड़ने से लड़ाई त्रिकोणीय हो गई है। इससे दोनों प्रमुख गठबंधनों को नुकसान हो सकता है। यह चुनाव लालू और नीतीश के आखिरी मुकाबले के रूप में देखा जा रहा है। पिछले 35 वर्षों से इन्हीं दोनों ने बिहार की सियासत की दशा-दिशा निर्धारित की है। नतीजों के बाद ही पता चलेगा कि क्या बिहार की राजनीति में एक दूसरे के खिलाफ यह उनकी आखिरी टक्कर साबित होगी?