राज्य में बहुप्रतीक्षित मंत्रिमंडल विस्तार पर संशय बढ़ता जा रहा है। खरमास के तीन सप्ताह बीत जाने के बात भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मंत्रिमंडल का विस्तार नहीं कर पाए हैं। इससे जनता दल-यूनाइटेड और भारतीय जनता पार्टी के संबंधों के बारे में तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। पिछले नवंबर में नीतीश कुमार के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री के साथ चौदह मंत्रियों ने शपथ ली थी, जिसमें भाजपा के दो-दो उप-मुख्यमंत्री शामिल थे। मंत्रिमंडल का विस्तार नए साल में मकर संक्रांति के बाद होने की बात कही जा रही थी, लेकिन अभी तक यह नहीं हो सका है। बिहार में अधिकतम 36 मंत्री बनाए जा सकते हैं। दोनों दलों के नेताओं का कहना है कि मंत्रिमंडल विस्तार में कोई समस्या नहीं है और यह अब किसी भी दिन किया जा सकता है।
नीतीश कह चुके हैं कि विलंब भाजपा की ओर से है। भाजपा नेताओं और नीतीश के बीच इस संबंध में कई दौर की बातचीत भी हो चुकी है, लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अपने कोटे के संभावित मंत्रियों के नामों पर अंतिम मुहर लगने का अभी भी इंतजार है। एक फरवरी को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने संभावित मंत्रियों के नामों पर दिल्ली में मंथन किया और उम्मीद की जा रही है, अब मंत्रिमंडल विस्तार जल्द ही हो जाएगा।
लेकिन, जैसे-जैसे मंत्रिमंडल विस्तार में देर हो रही है, राजनीतिक हलकों में कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है, गठबंधन के दोनों मुख्य घटक दलों में मंत्रियों की संख्या और विभागों को लेकर गतिरोध है। सूत्रों के अनुसार, जदयू मंत्रिमंडल में भाजपा के साथ बराबर की हिस्सेदारी चाहती है, जबकि भाजपा विधानसभा में संख्याबल के आधार पर, जैसा पूर्व में होता आया है। पिछले चुनाव में भाजपा को 74 सीटें, जबकि जदयू को मात्र 43 सीटें मिली थीं। भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री सैयद शाहनवाज हुसैन की विधान परिषद सदस्य के रूप में वापसी ने मंत्रिमंडल विस्तार में दिलचस्पी बढ़ा दी है। चर्चा है कि उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। हालांकि शाहनवाज स्वयं कह चुके हैं कि उनकी दिलचस्पी संगठन के कार्यों में अधिक है। सवाल यह भी है कि भाजपा के दो-दो उप-मुख्यमंत्रियों-तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी-के रहते हुए उनके जैसे वरिष्ठ नेता को क्या उपयुक्त मंत्रालय दिया जा सकता है? संभावना जताई जा रही है कि उन्हें वित्त मंत्रालय का प्रभार दिया जा सकता है, जो पूर्व में हमेशा भाजपा नेता, पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के पास होता था। भाजपा के कुछ नेता शाहनवाज को उनके राष्ट्रीय स्तर के अनुभव का हवाला देते हुए गृह मंत्रालय सौंपने की वकालत कर रहे है, जिसे न सिर्फ फिलहाल, बल्कि हमेशा मुख्यमंत्री ने अपने पास रखा है। सूत्रों के अनुसार, चुनाव परिणाम आने के बाद से ही भाजपा की निगाहें गृह विभाग पर है। पिछले दिनों प्रदेश भाजपा अध्यक्ष संजय जायसवाल सहित कई पार्टी नेताओं ने बिगड़ती कानून-व्यवस्था पर चिंता व्यक्त की, जिसे नीतीश पर दबाव बनाने की राजनीति के रूप में देखा जा रहा है।
लेकिन, नीतीश ने झुकने के बजाय अपने तेवर कड़े कर लिए हैं। जदयू ने दिल्ली में बजट सत्र के पूर्व एनडीए के सभी घटक दलों की बैठक में लोक जनशक्ति पार्टी के प्रमुख चिराग पासवान को आमंत्रण भेजे जाने पर कड़ा ऐतराज जताया। कहा जा रहा है कि यह नीतीश की गठबंधन के भीतर पार्टी की खोयी साख और हैसियत को बहाल करने की कवायद है।
एनडीए का हिस्सा होते हुए भी लोजपा ने बिहार में पिछला चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ा था और जदयू के सभी उम्मीदवारों के खिलाफ अपने उम्मीदवार खड़े किए थे, जिसके कारण नीतीश को लगभग 30 से 35 सीटों का नुकसान झेलना पड़ा था। लोजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों में आस्था व्यक्त करते हुए भाजपा के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारा था, इसलिए चुनाव के दौरान यह चर्चा आम थी कि यह लोजपा और भाजपा के बीच परदे के पीछे की मिलीभगत का नतीजा है, ताकि नीतीश को कमजोर किया जा सके। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इसका खंडन किया था। लेकिन, जदयू अभी भी खराब प्रदर्शन के लिए लोजपा को ही जिम्मेदार मान रही है। लोजपा सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब हुई, लेकिन उसके उम्मीदवारों ने जदयू की अनेक विधानसभा क्षेत्रों में लुटिया डुबो दी।
राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह नीतीश के लिए ऐसा झटका था, जिसे वे आसानी से भूलने वाले नहीं। इसलिए पिछले सप्ताह जदयू को जब पता चला कि एनडीए की बैठक में चिराग को भी शामिल होने का न्योता मिला है, तो उसने तुरंत शिकायत दर्ज की। सूत्रों के अनुसार, इस कारण चिराग से आमंत्रण वापस ले लिया गया। जदयू के प्रमुख महासचिव के.सी. त्यागी का कहना था कि जब लोजपा बिहार चुनाव में एनडीए का हिस्सा ही नहीं थी, तो उसे इस मीटिंग में बुलाने का क्या औचित्य है। जदयू की सहयोगी पार्टी, पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-सेक्युलर ने भी इसे निंदनीय बताया।
चिराग स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर एनडीए के वर्चुअल मीटिंग में शामिल नहीं हुए, लेकिन उनके प्रति नीतीश के कड़े रुख को देखते हुए लोजपा के भविष्य में एनडीए में बने रहने से जदयू-भाजपा संबंधों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। लोजपा केंद्र में एनडीए का हिस्सा है। भाजपा नेता और उप-मुख्यमंत्री रेणु देवी का मानना है कि चिराग एनडीए का हिस्सा हैं, और गठबंधन के भीतर कोई नाराज नहीं है।
चुनाव के बाद यह पहला मौका नहीं है जब जदयू ने लोजपा के प्रति सख्त रुख अपनाया है। लोजपा संस्थापक और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के निधन के बाद बिहार से राज्यसभा की खाली हुई सीट पर उनकी पत्नी रीना पासवान का चयन करने की मांग हुई थी, लेकिन भाजपा ने उस समय जदयू को नाराज करने के बजाय अपने वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी को नामांकित करना श्रेयष्कर समझा। राजनैतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि चिराग के मसले पर नीतीश और भाजपा के संबंधों की असली परीक्षा तब आएगी जब केंद्र में मंत्रिमंडल का विस्तार होगा। लोकसभा में लोजपा के फिलहाल छह सांसद हैं। पासवान की मृत्यु के बाद चिराग मंत्रिमंडल में एक कैबिनेट मंत्री का पद पाने के हकदार हैं। लोजपा का कहना है कि वह केंद्र में एनडीए का अंग है और चिराग बार-बार प्रधानमंत्री मोदी में आस्था व्यक्त कर चुके हैं। ऐसे में सियासी हलकों में यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या भाजपा नीतीश के विरोध के बावजूद चिराग को केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करेगी? और अगर चिराग को अपने पिता की जगह केंद्रीय मंत्री बना दिया जाता है तो नीतीश क्या कदम उठाएंगे?
भविष्य में बिहार की राजनीति पर इसका जो भी असर हो, नीतीश अभी से जदयू को विधानसभा के भीतर और बाहर मजबूत करने में जुट गए हैं। उन्होंने पार्टी की कमान अपने विश्वस्त रणनीतिकार आर.सी.पी. सिंह को सौंपने के बाद उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में स्वतंत्र रूप से आगामी चुनावों में उम्मीदवार उतारने का मन बनाया है। यही नहीं, जदयू दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव भी लड़ेगी। पिछले दिनों, नीतीश ने बहुजन समाज पार्टी के एकमात्र विधायक जमां खान को जदयू में शामिल कर लिया। उनके अलावा, नीतीश के पूर्व सहयोगी और पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह के विधायक पुत्र सुमित कुमार सिंह ने भी जदयू को अपना समर्थन देने कि घोषणा की है, जो निर्दलीय जीत कर आए हैं। सबसे दिलचस्प पिछले दिनों उनकी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम के पांच विधायकों के साथ मीटिंग रही। बाद में एआइएमआइएम के विधायक दल के नेता अख्तर उल ईमान ने कहा कि वे मुख्यमंत्री से सीमांचल क्षेत्र के पिछड़ेपन की समस्या को लेकर मिलने आए हैं, लेकिन मंत्रिमंडल विस्तार के पूर्व मुलाकात के समय को लेकर कयास लगाए जाने लगे कि शायद वे सब भी जदयू में शामिल हो जाएं।
पटना में नीतीश के साथ एआइएमआइएम के विधायक
मुख्यमंत्री इस बीच अपने पूर्व सहयोगी और दो बार पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा से मिल चुके हैं। कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी पिछले चुनाव में एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई, लेकिन चर्चा है कि उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया जा सकता है। ऐसा भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुशवाहा से अपनी पार्टी को जदयू में विलय करने को कह रहे हैं। कुशवाहा कोइरी जाति के बड़े नेता हैं, जबकि नीतीश कुर्मी समुदाय से आते हैं। इन दोनों जातियों के गठबंधन को बिहार की राजनीति में लव-कुश समीकरण कहा जाता है। नीतीश को सता में लाने में इन दोनों ओबीसी जातियों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। 2005 के बाद कुशवाहा की राहें नीतीश से जुदा हो गई थीं। सियासी जानकारों के अनुसार, नीतीश इस सियासी समीकरण को फिर साधने की कोशिश कर रहे हैं।ओवैसी के साथ भी वे संभवत: भविष्य में गठबंधन की संभावनाएं देख रहे हैं। एआइएमआइएम सीमांचल क्षेत्र में बड़ी शक्ति के रूप में उभरी है। इस चुनाव में ओवैसी ने कुशवाहा और मायावती के साथ चुनाव लड़ा था। भविष्य में भाजपा के साथ नीतीश के रिश्ते तल्ख हुए, तो नीतीश एक गैर-भाजपा, गैर-राष्ट्रीय जनता दल वाले गठबंधन के सूत्रधार हो सकते हैं।
लेकिन क्या भाजपा भी शाहनवाज को अगले चुनाव में पार्टी के मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करने की रणनीति के तहत लाई है? इसका उत्तर गर्भ में है, लेकिन नीतीश अपनी जमीन मजबूत करने के प्रयास में हैं। पिछले दिनों अरुणाचल प्रदेश में जदयू के सात में से छह विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद दोनों दलों के बीच अविश्वास की खाई चौड़ी हुई है। चाहे ओवैसी के विधायकों से मिलने की बात हो या कुशवाहा को अपने पाले में लाने की, नीतीश के हर कदम के अपने सियासी मायने हैं।