मिलेनियल जेनरेशन को शायद यकीन न हो कि इस देश में नौवें दशक तक बजाज का स्कूटर खरीदने के लिए पांच से सात साल तक इंतजार करना पड़ता था। लैंडलाइन फोन तो बुक कराने के बाद आठ-दस साल में ही मिल पाता था। गैस कनेक्शन किस्मत वालों को ही कुछ साल बाद मिलता था। फेहरिस्त लंबी है, लेकिन 1991 के आर्थिक उदारीकरण ने हालात उलट दिए। कुछ साल में ही सब कुछ मिलना आसान हो गया, यहां तक कि अधिकांश वस्तुओं को बेचने वाले आप को खोजते हुए आपके घर पहुंच गए। इसी बीच पवन वर्मा की किताब ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास भी आई। बताया गया कि देश में 30 से 40 करोड़ लोगों की ऐसी जमात तैयार हो गई है, जिसकी जेब में पैसा है और जो कर्ज लेकर घी पीने में यकीन करती है। करीब पच्चीस साल तक इस धारणा का उद्योग जगत को फायदा भी खूब हुआ। दुनिया भर की बड़ी कंपनियों ने भारत में अपनी उत्पादन इकाइयों के साथ दुकान जमा ली। सस्ती से लेकर महंगी गाड़ियों, स्कूटर से लेकर मोटरसाइकिल और छोटे घरों से लेकर लक्जरी अपार्टमेंट तक सब जगह कंज्यूमर बूम आ गया। लेकिन इधर फिर बहुत कुछ तेजी से बदल गया। रियल एस्टेट से लेकर, कार कंपनियों और यहां तक कि छोटे शहरों और ग्रामीण बाजार के सहारे फलफूल रहे स्कूटर, मोटरसाइकिल उद्योग तक मांग के लिए तरस रहे हैं। कंपनियों के पास बिना बिका स्टॉक बढ़ने से उत्पादन में कटौती हो रही है। कंज्यूमर ड्यूरेबल और एफएमसीजी उत्पादों तक की बिक्री घट रही है। सभी मंदी के शिकार हैं।
दिलचस्प यह है कि पहली चोट सबसे कमजोर किसान पर ही पड़ी। उसके उपज की कीमतों में भारी गिरावट आई और उसकी आमदनी घट गई। लेकिन अब उपभोक्ता मांग में गिरावट ने सबको एक ही धरातल पर खड़ा कर दिया है। पहला झटका नोटबंदी से लगा। उसने सबसे पहले किसानों और असंगठित क्षेत्र को तबाह किया। बड़े कॉरपोरेट को लगा कि औपचारिक होती अर्थव्यवस्था का फायदा उसे मिलेगा। लेकिन हकीकत से रू-ब-रू होने में लंबा वक्त लगा। हकीकत यह है कि अनौपचारिक या समानांतर अर्थव्यवस्था का हिस्सा हमारी इकोनॉमी में बहुत बड़ा रहा है। नोटबंदी के बाद सरकार के तमाम सख्त कदमों से वह ध्वस्त होती जा रही है। इकोनॉमी को फार्मल होने में समय लग रहा है इसलिए स्थिति सुधरने के बजाय संकट बढ़ रहा है।
दूसरे, लोगों में व्याप्त निराशा इसकी एक बड़ी वजह है। लोगों को सस्ता कर्ज उपलब्ध नहीं है, उनके पास खर्च करने की ताकत नहीं है। यही वजह है कि लंबे समय तक छोटे शहरों, कस्बों और ग्रामीण भारत को दुपहिया वाहनों का लगातार बढ़ता बाजार माना जा रहा था लेकिन वहां भी मांग बुरी तरह लड़खड़ा रही है।
इससे साफ है कि तमाम ऐसे सवाल खड़े हैं जो देश की इकोनॉमी की मौजूदा स्थिति को एक पहेली बना रहे हैं। उनका जवाब न सरकार दे रही है, न भारतीय रिजर्व बैंक। पिछले दिनों रिजर्व बैंक की बैठक में करेंसी नोटों को लेकर चर्चा हुई। लब्बोलुआब यह था कि दो हजार रुपये के नोट का करीब तीन-चौथाई हिस्सा बाजार से गायब होता जा रहा है। बाजार में अधिकांश छोटे नोट ही उपलब्ध हैं। मतलब यह कि इकोनॉमी में स्ट्रक्चरल समस्या खड़ी होती जा रही है।
दूसरे, नोटबंदी के झटके के अलावा सरकार नीतियों के जरिए जो झटके दे रही है, वह उद्योग को संभलने का मौका नहीं दे रहा है। मसलन, ऑटो उद्योग पर सरकार भारत-फोर से सीधे भारत-सिक्स मानकों को लागू करने को कह रही है। इसका ऑटो उद्योग पर सीधे असर पड़ना तय है। इसी तरह सरकार ने तय किया है कि पेट्रोल में एथनॉल मिलावट पहले दस फीसदी और फिर 20 फीसदी की जाएगी। एथनॉल पालिसी में इस पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन अब अचानक सरकार की प्राथमिकता इलेक्ट्रिक व्हीकल पर आ गई है। नए बजट में ऐसे वाहनों पर जीएसटी में कटौती की सिफारिश से लेकर कर छूट भी दी गई है।
इसी तरह पिछले एक दशक में देश में थर्मल पॉवर में भारी निवेश हुआ और रिकॉर्ड क्षमता स्थापित हुई, लेकिन अधिकांश प्लांट 50 फीसदी की क्षमता पर ही बिजली उत्पादन कर रहे हैं। अब सरकार का फोकस सोलर पॉवर पर बढ़ता जा रहा है और कई तरह के इंसेंटिव दिये जा रहे हैं। हालांकि अब भी हम अधिकांश फोटोवोल्टिक सेल आयात करते हैं। टेलीकॉम सेक्टर का हाल सबके सामने है। दुनिया में सबसे सस्ता डाटा मिलने से हमने डाटा उपयोग में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया है। लेकिन हमारी टेलीकॉम कंपनियां वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।
इन परिस्थितियों के बीच बजट में उपभोग प्रोत्साहित करने वाले कदमों की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बजट बाद शेयर बाजार में साल की सबसे बड़ी गिरावट देखी गई। आम आदमी भी अनिश्चितता के चलते पैसा खर्च करने के बजाय बचाने पर जोर दे रहा है। उद्योग जगत को भी नए निवेश में ज्यादा फायदा नहीं दिख रहा है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब सरकार जितनी जल्दी ढूंढ़ सके, उतना अच्छा। वरना अधिकांश क्षेत्रों में मंदी अर्थव्यवस्था के लिए काफी नुकसानदेह साबित हो सकती है।