अमूमन पाकिस्तानी नेताओं की सियासी तकदीर इससे तय होती है कि उनमें कश्मीर “विवाद” पर भारत से मुकाबले की कितनी कूव्वत है। खासकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मसले पर अपने “दुश्मन” पूर्वी पड़ोसी को कैसी टक्कर देते हैं, इससे किसी सियासी लीडर की छवि फौरन उठ या गिर सकती है।
अभी हाल ही में तो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को इसलिए हीरो की तरह सम्मान मिला कि वे अमेरिका के राष्ट्रपति को यह समझाने में सफल रहे थे कि कश्मीर “टकराव” का भारी मसला है। पाकिस्तानी बड़बोल बयानबाजों के मुताबिक, इमरान की इसी कोशिश के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने वाशिंगटन में एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि वे कश्मीर के मुद्दे पर दोनों दक्षिण एशियाई परमाणु शक्तिसंपन्न पड़ोसियों के बीच मध्यस्थता करने को तैयार हैं। ऐसी पहल पाकिस्तान के लिए माकूल बैठती है क्योंकि पाकिस्तान हमेशा से ही कश्मीर “विवाद” को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने का ख्वाहिशमंद रहा है। लेकिन 5 अगस्त को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद 370 हटाने का ऐलान किया तो पाकिस्तान के लोगों का मूड अचानक पलटी खा गया।
उसके बाद इमरान खान के सियासी विरोधी उन पर दबाव बढ़ा रहे हैं कि वे साफ-साफ बताएं कि वे भारत के फैसले से हैरान रह गए या ट्रंप के साथ किसी पोशीदा करार के हमराज हैं, जो भारत के फैसले से वाकिफ थे और वाशिंगटन दौरे के दौरान इमरान को इसकी जानकारी भी दी थी।
पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बेटी, पाकिस्तान मुस्लिम लीग की नेता मरियम शरीफ ने एक ट्वीट कर पूछा, “क्या मध्यस्थता की पेशकश एक जाल था जिसमें आप फंस गए या आप हमेशा की तरह दुश्मन की योजनाओं से नावाकिफ थे?” उन्होंने आगे कहा, “आपने न केवल देश को बल्कि उन कश्मीरियों को भी अपूरणीय क्षति पहुंचाई है जिन्हें पाकिस्तान का मजबूत सहयोग चाहिए।” मरियम सरगोधा में अपनी सार्वजनिक रैली में कश्मीरियों की दुर्दशा पर ही बोलीं और इमरान से मांग की कि भारतीय फैसले के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करें।
इमरान सरकार की दूसरे विपक्षी नेताओं ने भी तीखी आलोचना की और भारत के खिलाफ पुरजोर कदम उठाने की मांग की। पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो ने मांग की कि अनुच्छेद 370 को हटाने से उभरे हालात पर चर्चा के लिए पार्लियामेंट का विशेष सत्र बुलाया जाए। उनकी पार्टी की प्रवक्ता शेरी रहमान ने चुटकी ली कि प्रधानमंत्री पौधे रोपने में “इस कदर व्यस्त” हैं कि कश्मीरियों का ख्याल कैसे रखें।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने भारत के फैसले को “गैर-कानूनी” करार दिया और कहा कि इससे दोनों परमाणु पड़ोसियों के बीच संबंध और बिगड़ेंगे। यह स्पष्ट संकेत है कि आने वाले दिनों में भारत-पाकिस्तान रिश्ते और नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर हालात काफी खराब हो सकते हैं। नियंत्रण रेखा पर बिगड़ते हालात पाकिस्तान के लिए माकूल हो सकते हैं क्योंकि इससे दोनों पड़ोसियों के सैन्य कार्रवाई में उलझने का मौका बन सकता है। ऐसे में अमेरिका पर मध्यस्थता का दबाव बढ़ सकता है, खासकर ऐसे वक्त जब वह अफगानिस्तान से अपनी फौज की शांतिपूर्ण वापसी के खातिर इस्लामाबाद की मदद की ख्वाहिश रखता है।
भारत ने, अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले पर ज्यादा विवाद न भड़के, इस मकसद से प्रमुख अंतरराष्ट्रीय खिलिड़ियों के साथ राजनयिक संपर्क अभियान शुरू किया है। भारतीय विदेश सचिव विजय गोखले और विदेश मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने हाल में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देशों को भारत के फैसले के पीछे के तर्क की जानकारी दी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष प्रावधान वाले अनुच्छेद को हटाने की वजह यह बताई कि इससे राज्य में सुशासन, सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास प्रशस्त करने में मदद मिलेगी।
हालांकि, इस तरह के प्रयासों के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि बाहरी दुनिया में इस मुद्दे को किस तरह देखा जाएगा। एक बात तो तय है कि पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रमुखता से उठाने जा रहा है, ताकि भारत-पाकिस्तान संबंधों में बढ़ता तनाव अमेरिका को मध्यस्थता करने का मौका दे और नई दिल्ली पर बातचीत की मेज पर लौटने का दबाव बने। यह इस्लामाबाद के लिए माकूल होगा।
इमरान खान ने पिछले कुछ दिनों में अपने शीर्ष सलाहकारों और सेना के वरिष्ठ जनरलों से कई बैठकें की हैं और एलओसी के साथ कश्मीर घाटी में अनुच्छेद 370 हटने के बाद के हालात का जायजा ले रहे हैं। आने वाले दिनों में पाकिस्तान अपने कूटनीतिक प्रयास तेज कर सकता है, और कश्मीर मुद्दे को यूएनएससी में उठाने की कोशिशें कर सकता है। उसकी दलील यह होगी कि दिल्ली का निर्णय कश्मीर पर मौजूदा संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का स्पष्ट उल्लंघन है। हालांकि, यह कैसे होता है, यह अभी देखना बाकी है। लेकिन कुछ अंतरराष्ट्रीय नेता जैसे मलेशिया के महातिर मोहम्मद कश्मीर के घटनाक्रम पर लगातार चिंता जाहिर कर रहे हैं। इसी तरह 53 देशों वाले इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआइसी) हमेशा की तरह पाकिस्तान के साथ खड़ा दिख सकता है। लेकिन यह देखना भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अहम होगा कि इन सब के बीच प्रमुख अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी खासकर अमेरिका की प्रतिक्रिया क्या होती है।
ट्रंप ने जब यह दावा किया कि मोदी ने कश्मीर पर मध्यस्थता की बात की थी, तो दिल्ली ने इसके खंडन के लिए फौरन विदेश मंत्री एस. जयशंकर को आगे किया। उन्होंने भारतीय संसद को आश्वस्त किया कि अमेरिकी राष्ट्रपति के दावे में सच्चाई नहीं है और भारत कश्मीर सहित पाकिस्तान के साथ सभी मुद्दों को बिना किसी तीसरे पक्ष के आपस में ही सुलझाएगा। जयशंकर ने हाल ही में बैंकॉक में हुई अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ के साथ मुलाकात में दोबारा इस बात को दोहराया।
हालांकि, कश्मीर में अतिरिक्त सुरक्षाकर्मियों की तैनाती के निर्णय ने घाटी के हालात को लेकर देश के भीतर और बाहर लोगों का ध्यान खींचा है। इस निर्णय पर अधिकारियों का तर्क था कि ऐसा 15 अगस्त के स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी प्रकार की हिंसा की रोकथाम के लिए किया जा रहा है, ताकि लोगों को इस दिन कोई परेशानी न हो और लोग राज्य के विभिन्न हिस्सों में स्वतंत्र रूप से तिरंगा फहरा सकें। यह सफाई भी राजनैतिक और राजनयिक हलकों में अटकलों को नहीं रोक पाई कि सरकार की यह नई पहल स्वतंत्रता दिवस से संबंधित घटनाओं से बहुत आगे की बात है। अब अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले के बाद सारी निगाहें पूरी तरह कश्मीर की ओर उठ गई हैं।
लेकिन बाहरी हस्तक्षेप के लिए तर्क को मजबूत करने के लिए पाकिस्तान दो महत्वपूर्ण घटनाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। जल्द ही अमेरिकी अधिकारी अफगानिस्तान पर बात करने और अमेरिका-पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के इरादे से पाकिस्तान जा सकते हैं। उम्मीद है कि उस वक्त इमरान खान सरकार कश्मीर पर लिए गए भारतीय निर्णय के प्रभाव का मुद्दा जोर-शोर से उठाए।
एक यह तथ्य यह भी है कि अमेरिकी अधिकारियों ने तालिबान के साथ अपने नवीनतम दौर की बातचीत से संतुष्टि व्यक्त की है। एक समूह जो दोहा बैठक में पाकिस्तान के आग्रह पर वार्ता के लिए आया था, वह भी इस्लामाबाद के पक्ष में जाएगा। ट्रंप फिर से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में चुने जाने के लिए अभियान में जुटें उससे पहले वह जल्द से जल्द युद्धग्रस्त देश से अमेरिकी सैनिकों को वापस लाना चाहते हैं। ऐसे में पाकिस्तान उनके लिए महत्वपूर्ण कारक बन जाता है।
पाकिस्तान ने अमेरिकियों का फायदा उठाने के लिए हमेशा अफगान कार्ड खेला। और उसने फिर से ऐसा करना शुरू कर दिया है।
लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि कश्मीर के प्रति अमेरिका का ध्यान खींचने के लिए वह अफगानिस्तान का उपयोग किस हद तक करता है। इमरान खान पर घरेलू दबाव बढ़ने के साथ, उन्हें अपनी पाकिस्तानी जनता को विश्वास दिलाना होगा कि वे अभी भी भारत की “आक्रामक और गैर-कानूनी” चालों के खिलाफ कश्मीर का हिमायती बनने के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि भारतीय अधिकारियों का तर्क है कि अनुच्छेद 370 को हटाने के दिल्ली के फैसले के मुद्दे पर पाकिस्तान का कोई लोकल स्टैंड नहीं है क्योंकि यह भारत का आंतरिक मामला है। इमरान खान सरकार को कश्मीर विवाद का समाधान खोजने में दुनिया के नेताओं के बीच समर्थन हासिल करने की संभावना है।
दिलचस्प बात यह है कि इमरान खान और नरेंद्र मोदी दोनों सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र में भाग लेंगे और संभावना है कि कश्मीर मुद्दा दोनों नेताओं के भाषणों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इसके अलावा, अगर सब कुछ पाकिस्तानी योजना के अनुसार होता है तो ट्रंप तालिबान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए अफगानिस्तान का दौरा कर सकते हैं। पाकिस्तान सरकार पूरी कोशिश कर रही है कि काबुल का दौरा करने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति इस्लामाबाद की भी यात्रा करें। यह न केवल अमेरिका-पाकिस्तान संबंधों में गर्मजोशी की वापसी का संकेत देने में उनकी मदद कर सकता है, बल्कि एक अन्य अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है ताकि ट्रंप को कश्मीर के बारे में बात करने और दोनों पड़ोसियों के फिर से बातचीत करने के लिए उनकी मध्यस्थता हो सके। लेकिन रुकी हुई भारत-पाकिस्तान वार्ता को फिर से तब ही शुरू किया जा सकता है जब दिल्ली को लगे कि इस्लामाबाद ने सीमा पार आतंकवाद को समाप्त करने के लिए गंभीर कदम उठाए हैं। यदि आने वाले दिनों में, घुसपैठ और हिंसा बढ़ती है तो दोनों पड़ोसियों के बीच संबंध इससे भी बुरे हो सकते हैं।
दूसरी ओर, अगर पाकिस्तान, भारत से रिश्तों को सामान्य बनाने के लिए सही माहौल बनाने की उम्मीद में जम्मू-कश्मीर में अपने स्वयं के गेम प्लान के अनुसार आगे बढ़ने की अनुमति देता है, तो आने वाले दिनों में इसके संकेत दिखाई दे सकते हैं।