गुम गुलमोहर गलियां
आप पिछले कुछ वर्षों से पटना नहीं आए हैं, तो यकीनन यह शहर बदला-बदला-सा दिखेगा। ज्ञान भवन, पटेल भवन, अधिवेशन भवन, बापू की भव्य मूर्ति और एक विश्वस्तरीय म्यूजियम! यहां तक कि एक सभ्यता द्वार भी। गंगा किनारे एक मरीन ड्राइव बनाने की कवायद भी जारी है। चारों तरह पुल-पुलियों का जाल, चमचमाती सड़कें आपको हैरत में डाल सकती हैं। एकबारगी लगेगा मानो किसी वास्तुविद को सत्ता सौंप दी गई है। हैरान न हों, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इंजीनियरिंग के छात्र रहे हैं। जाहिर है, राजधानी को चमकाने में आधुनिक स्थापत्य कला की महत्ता से अनभिज्ञ न रहे होंगे। इसके बावजूद, आपको कुछ खालीपन का एहसास तो जरूर होगा। बेली रोड के किनारे रंग-बिरंगे गुलमोहर और अमलतास की कमी निश्चित खलेगी, जिसे देखकर आप मंत्रमुग्ध हो जाते थे। पाटली के वृक्ष, जिसके कारण पाटलिपुत्र का नामकरण हुआ, अब गूलर के फूल हो गए हैं। आप पूछ सकते हैं, इसमें नया क्या है? हमारे आधुनिक बनने की कीमत प्रकृति से ज्यादा किसने चुकाई है?
सजदा यक्षीकार का
पटना में नई अट्टालिकाएं कुकुरमुत्ते की तरह उग आई हैं। छोटे शहरों से पलायन कर यहां बसने वालों की तादाद उतनी ही होगी, जितनी पटना से नोएडा और गुरुग्राम जाने वालों की। पुरखों की गांव की जमीन बेचकर शहर में एक 2-बीएचके के कई सपने यहां साकार होते मिलेंगे। हालांकि इस बदलाव के दौर में भी शहर के प्रमुख आकर्षण दशकों पुराने ही हैं। वही 1786 में बना ऐतिहासिक गोलघर, जिसके शिखर से आपको गंगा तट पर बसे पूरे शहर का विहंगम दृश्य दिखेगा। वही दीदारगंज यक्षी की मूर्ति जिसे देखकर आपको गुजरे जमाने के गुमनाम शिल्पकारों के सजदे में सर झुकाने का मन करेगा। वही पुराने सचिवालय में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों का बनाया भव्य क्लॉक टॉवर। वही दरभंगा हाउस स्थित काली मंदिर, वही अशोक राजपथ की खुदाबक्श लाइब्रेरी। जब आप 1917 में बने पटना म्यूजियम को निहारेंगे तो आपके मन में अनायास यह ख्याल आ सकता है कि क्यों न इस खूबसूरत भवन को नींव समेत उखाड़कर 500 करोड़ रुपये से अधिक की लागत से बने नए बिहार म्यूजियम में स्थापित कर दिया जाए। कुछ तो देखने लायक हो वहां!
हम लिट्टीवाले
पटना के बाशिंदे आदिकाल से ही खाने-पीने के शौकीन रहे हैं। नीतीश कुमार की वजह से पिछले चार वर्षों में उन्हें ‘पीने’ के शौक को ताक पर रखना पड़ा है। अब सारा ध्यान खाने पर ही केंद्रित है। हर चौक-चौराहे पर लिट्टी-चोखा के स्टाल खुल गए हैं। लिट्टी बिहार की अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतीक बन गई है। पहले यह मेहनतकश और गरीब-गुरबों का पसंदीदा व्यंजन था, अब इसकी पैठ पांच सितारा होटलों तक हो गई है। यह बात और है कि अधिकतर लिट्टी अब मैदा से बनी मिलेगी। आप कितना भी शुद्ध घी में डुबोएं, उसमें पारंपरिक आटे की बनी लिट्टी का स्वाद नहीं समा सकता। लेकिन क्या मजाल कि आप नए जमाने की लिट्टी की शान में कोई गुस्ताखी करें। ऐसा करके आप खुद को ही खतरे में डालेंगे। अपनी पिछली यात्रा के दौरान आमिर खान अपने लाव-लश्कर के साथ पटना के जैविक उद्यान के निकट एक स्टाल पर पहुंचे और लिट्टी का ऑर्डर किया। पलक झपकते ही घी (या रिफाइंड तेल?) में सराबोर गरमागरम लिट्टी चटकदार चोखा के साथ उनके हाथों में थी। आमिर ने खांटी बिहारी व्यंजन जैसे ही चखा, लिट्टीवाले को 500 रुपये दिए और स्टील की प्लेट समेत जाने की इजाजत मांगी। शायद वे रास्ते में इसका जायका इत्मीनान से अपनी एसयूवी में लेना चाहते होंगे!
चंपारण मीट वाला
शहर के किसी सीनियर सिटीजन के मुंह में महंगू का नाम सुनकर अगर पानी आ जाए, तो आपको हैरत में नहीं पड़ना चाहिए। वर्षों तक मछुआ टोली स्थित छोटा-सा रेस्तरां निरामिष-पसंद शौकीनों का अड्डा हुआ करता था। इसके मुगलई व्यंजनों की ख्याति गंगा के दोनों ओर बसे सुदूर नगरों तक थी। ऐसी ही लोकप्रियता बिस्कोमान भवन स्थित चायनीज रेस्तरां, शिन लॉन्ग की थी, जिसके रसोईघर से निकली खालिस चीनी मसालों की खुशबू पास के आलीशान मौर्या होटल के शेफ को बेचैन करने के लिए काफी थी। अब जमाना बदल चुका है। हर दूसरी गली में ‘चंपारण मीट’ की दुकानें खुल गई हैं। खास बात यह है कि ऐसे हर रेस्तरां चलाने वालों का दावा है कि उसकी दूसरी शाखा नहीं है। दरअसल चंपारण के स्थानीय ढाबों के सुस्वादु तास और अहुना मीट वर्षों से वहां की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम यह है कि चंपारण, जो सौ वर्षों से ज्यादा तक गांधी के सत्याग्रह का पर्याय और प्रतीक रहा है, अब अपने मटन के व्यंजनों के कारण जाना जा रहा है।
नेहरू रोड
पटना की जीवनरेखा कहे जाने वाले बेली रोड का आधिकारिक नाम वैसे तो जवाहरलाल नेहरू पथ है, लेकिन इसे कोई इस नाम से नहीं पुकारता। ऐसा वर्षों से हो रहा है। ध्यान रहे, इसमें स्थानीय भाजपा-जदयू सरकार का कोई हाथ नहीं।