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ऐसा विभाजन नहीं देखा

ट्रोल करने वाले वक्त के साथ गुमनाम हो जाएंगे, लेकिन विसंगतियों पर आवाज उठाने वाले नायक कहलाएंगे
बेगूसराय में स्वरा भास्कर

बॉलीवुड में राजनैतिक विभाजन कभी इस तरह से सामने नहीं आया था, जैसा 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद आया है। हालांकि राजनैतिक पक्षधरता, पार्टी बनाने, पार्टी में जाने, चुनाव लड़ने और जीतने-हारने का इतिहास नया नहीं है। आजादी के आसपास भारतीय सिनेमा का न्यायप्रिय चेहरा सांस्कृतिक जनांदोलनों से आए हुए कलाकारों ने बनाया। उस दौर में भी सामाजिक-राजनैतिक नजरिए को लेकर अलग-अलग समझदारियां थीं। बिमल रॉय दो बीघा जमीन और नया दौर, तो मनोज कुमार उपकार और पूरब और पश्चिम जैसी फिल्में बना रहे थे। समाजवाद बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे दोराहे तब भी थे, लेकिन आज की तरह एक-दूसरे का उपहास उड़ाने का चलन नहीं था। फोटोशॉप नहीं था, लिहाजा इतिहास के फोटोशॉप्ड पन्ने भी नहीं थे। आज अशोक पंडित और विवेक अग्निहोत्री जैसे फिल्मकार तो सोशल मीडिया पर ट्रोलर्स की तरह अपने ही साथी फिल्मकारों और कलाकारों को निशाना बना रहे हैं। बॉलीवुड में राजनैतिक विद्वेष का यह रूप नया जरूर है, लेकिन अस्वाभाविक नहीं है। जैसे-जैसे समाज बदलता रहा, उसकी राजनीति बदलती रही, इसके अनुसार बॉलीवुड के लोगों की राजनैतिक अभिव्यक्तियां भी बदलती रहीं।

1979 में जब इमरजेंसी के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार गिरी, तब बॉलीवुड में देव आनंद की अगुआई में एक राजनीतिक पार्टी बनाई गई थी। देव आनंद की ऑटोबायोग्राफी रोमांसिंग विद लाइफ में इसका जिक्र है, “जिस देश से हम प्यार करते हैं, उसके लिए क्यों न हम एक राजनैतिक पार्टी बनाएं? ऐसा इसीलिए किया गया ताकि भारत की बिगड़ती हुई राजनैतिक व्यवस्था को उसी तरह सुंदर बनाया जा सके, जैसा हम अपनी फिल्मों को भव्य बनाने के लिए करते हैं।” रामानंद सागर, शत्रुघ्न सिन्हा, वी. शांताराम, हेमामालिनी, संजीव कुमार जैसे लोग इस पार्टी के सदस्य बने। बाद में सरकार और नेताओं के दबाव में आकर ज्यादतर लोग सुस्त पड़ गए, क्योंकि कारोबारी हित पर चोट पड़ने लगी थी। देव आनंद अकेले पड़ गए और पार्टी इतिहास बन गई।

बॉलीवुड से राजनीति में जाने वालों की तादाद अच्छी-खासी है और उनकी बयानबाजियों को राजनीति के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। लेकिन राजनीति में शामिल न होने की स्थिति में भी जिस तरह से इन दिनों राजनैतिक स्टैंड लिया जा रहा है, यह नया फिनॉमिना है। जब मैं पत्रकार था और फिल्मी शख्सियतों से एक पत्रकार के नाते मिलता-जुलता था, तो व्यक्तिगत बातचीत में राजनैतिक विमर्श भी शामिल होता था। कई बार मुझे लगता था कि यह एक महत्वपूर्ण बयान है और इसे लोगों तक पहुंचना चाहिए। लेकिन मुझे मना कर दिया जाता था। दलील यह होती थी कि हर राजनैतिक पार्टी में उनके चाहने वाले हैं, साथ ही इससे फैन फॉलोइंग प्रभावित होगी। यह डर मैंने तमाम सेलेब्रिटीज में देखा है। लेकिन आज अनुपम खेर, अशोक पंडित और मधुर भंडारकर जैसे लोग मौजूदा सरकार के लगभग प्रवक्ता बन कर सामने आ गए हैं।

यहां प्रकाश राज जैसे अभिनेता का जिक्र जरूरी है, जो दक्षिण से बॉलीवुड की तरफ आए। दक्षिण के अभिनेताओं में यह खास बात है कि वे राजनैतिक रूप से उत्तर भारत के सितारों से ज्यादा सजग दिखते हैं। बेंगलूरू में जब पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हुई, उसके बाद प्रकाश राज राजनैतिक रूप से अधिक मुखर हो गए। उन्होंने गौरी लंकेश की हत्या पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर सवाल किया। इसकी वजह से वे ट्रोलर्स के निशाने पर भी आए।

ताजा उदाहरण स्वरा भास्कर का है, जो मेरी फिल्म अनारकली ऑफ आरा की मुख्य किरदार थीं। उन्होंने ट्विटर पर जब लोगों से सजग होकर मतदान करने की अपील की, तो कई सारे लोगों ने उनके ‌िखलाफ भद्दे मजाक वाला प्लेकार्ड बनाकर उसे ट्वीट किया। बॉलीवुड के कुछ लोगों ने इस भद्दे ट्वीट को रीट्वीट भी किया। हो भी क्यों न! जब खुद प्रधानमंत्री ‘पचास करोड़ की गर्लफ्रेंड’ जैसे रूपक का इस्तेमाल खुलेआम करते हैं। राजनीति में निजी हमले का यह निचला स्तर पहले नहीं था। सत्ता से सहमति रखने वालों का बोलना तो समझ में आता है, लेकिन सत्ता से असहमति रखने वाले तमाम बॉलीवुड सितारों की आवाजें भी बुलंद हैं! कुछ लोग बोलने के बाद पीछे हट जाते हैं। उन लोगों का डर उनके छवि-प्रबंधन (इमेज मैनेजमेंट) का हिस्सा है। शाहरुख और आमिर खान इसके उदाहरण हैं। लोगों ने जब उनके खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किया। तब उन्हें बयान से पीछे हटना पड़ा।

खैर, देर से ही सही, अगर बॉलीवुड राजनैतिक रूप से सचेत, मुखर और उग्र हो रहा है, तो यह अच्छी बात है। मैं इस माहौल के पक्ष में हूं। जिस तरह फिल्मी सितारों के फैशन का असर समाज पर होता है, उनकी सचबयानी भी उतनी ही असरदार होती है। दिनकर की पंक्ति हैः समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध; जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध! तटस्थता की चालाकी बरतने वाले समय के साथ गुमनाम हो जाएंगे, लेकिन हर सामाजिक विसंगति को रेखांकित करने वाले इतिहास के नायक कहलाएंगे।

द गॉडफादर (1972) के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का खिताब जीतने वाले मार्लन ब्रांडो ने यह कहते हुए ऑस्कर ठुकरा दिया था कि अमेरिका में मूलवासियों के साथ जो व्यवहार हो रहा है, वह अमानवीय है। यह एक ऐतिहासिक प्रतिरोध था। बॉलीवुड में अब यह दौर आया है और मैं इससे बहुत खुश हूं। मानने को तो मैं “मी टू मूवमेंट” को भी सार्थक राजनैतिक हस्तक्षेप मानता हूं, क्योंकि राजनीति वही नहीं है, जो आपको संसद ले जाए। सच बोलना भी एक तरह का राजनैतिक अभियान ही है।

(लेखक अनारकली ऑफ आरा फिल्म के निर्देशक हैं)

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