लाख टके का सवाल है, क्या चुनाव पैसे खर्च किए बिना भी जीता जा सकता है? चौंकिए मत आज भी ऐसे उम्मीदवार हैं जो बिना जेब में चवन्नी के खड़े होकर लोगों की हंसी या हमदर्दी का पात्र बनते हैं। एक उदाहरण तो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर सीट से मजदूर किसान यूनियन पार्टी के मांगेराम कश्यप ही हैं, जिन्हें आर्थिक रूप से सबसे विपन्न उम्मीदवार बताया जा रहा है। हालांकि, देश में पहले चुनाव, अंग्रेजी राज में, 1935 में गुजरात के बैकुंठ भाई मेहता ने बिना एक पाई खर्च किए चुनाव जीतकर दिखाया था। लेकिन उसके बाद 94 साल में भारत में चुनाव लड़ने का अंदाज ऐसा बदला है कि 2019 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव होने जा रहा है। खर्च के अनुमान और अटकलें अलग-अलग हैं। एक के मुताबिक इस बार चुनावों में 50 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे तो दूसरा अनुमान एक लाख करोड़ रुपये तक का है। फर्क देखिए कि आज ये आंकड़े चौंकाते भी नहीं हैं और ज्यादातर लोग इसे अब सामान्य मानने लगे हैं।
अनुमान यह भी है कि 7-10 फीसदी राशि अकेले सोशल मीडिया पर खर्च हो रही है। कुल मिलाकर 2019 का चुनाव 2014 की तुलना में 70 फीसदी ज्यादा महंगा साबित हो सकता है। मोटे अनुमान से 2014 में लोकसभा चुनावों में 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे। जबकि विडंबना यह है कि देश के 99 फीसदी से ज्यादा उम्मीदवार चुनाव आयोग को दिए घोषणापत्र में मानते हैं कि उन्होंने तो तय खर्च की सीमा से भी कम पैसे में चुनाव लड़ा है। इस बार चुनाव आयोग ने छोटे संसदीय क्षेत्रों के लिए 50 लाख रुपये और बड़े क्षेत्र के लिए 70 लाख रुपये खर्च की सीमा तय की है। इस हिसाब से तो प्रति संसदीय क्षेत्र में 10 उम्मीदवार का औसत माना जाए तो पूरे चुनाव में केवल 3000-4000 करोड़ रुपये खर्च होने चाहिए। सवाल उठता है कि फिर अतिरिक्त 45 हजार करोड़ रुपये कहां खर्च होंगे।
इस बात का जवाब सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के फाउंडर चेयरमैन डॉ एन. भास्कर राव देते हैं। उनका कहना है कि हमारी स्टडी रिपोर्ट के अनुसार, ‘साल 2018 तक जो ट्रेंड देखने को मिला है, उसके अनुसार चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले कुल खर्च की करीब 20 फीसदी राशि इस्तेमाल की जाती है। जबकि 80 फीसदी राशि उसके बाद खर्च की जाती है। इसमें से औपचारिक राशि करीब 15-25 फीसदी होती है। जबकि बाकी अनौपचारिक रूप से खर्च किए जाते हैं। उनके अनुसार पिछले चुनाव और मौजूदा ट्रेंड को देखते हुए 2019 के चुनाव दुनिया के सबसे महंगे चुनाव होंगे। इसमें करीब 50 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे, जबकि 2014 में करीब 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए थे।’
क्या चुनाव बिना पैसे या करोड़ों रुपये खर्च किए बिना भी जीता जा सकता है? ऐसी क्या वजहें बनी, जिसकी वजह से ऐसा हुआ, इस पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के फाउंडर मेंबर जगदीप छोकर का कहना है कि ‘इसके लिए बैकुंठ भाई मेहता के उदाहरण को समझना होगा। छोकर के अनुसार भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत आजादी के पहले भारतीयों को चुनाव लड़ने का अधिकार मिला था। उस समय गुजरात में समाज सेवी बैकुंठ भाई मेहता को उनके क्षेत्र के लोगों ने चुनाव लड़ने के लिए कहा। महात्मा गांधी के निर्देश पर फिर मेहता ने चुनाव लड़ा। जिसमें गांधी ने उनसे कहा था कि चुनाव में न तो तुम प्रचार के लिए जाओगे और न ही एक पैसा खर्च करोगे। मेहता ने इसी आधार पर चुनाव लड़ा और वह जीत गए। समझने वाली बात यह है कि भारत में ऊपरी स्तर पर तो लोकतंत्र है, लेकिन पार्टियों के स्तर पर लोकतंत्र नहीं है। अब जनता उम्मीदवार तय नहीं करती है। पैराशूट उम्मीदवार चुनाव में उतरते हैं। ऐसे में जीतने के लिए उन्हें पैसे तो खर्च करने पड़ेंगे।’ वहीं भास्कर राव अपने स्टडी के जरिए बताते हैं कि ‘चुनावों में जो राशि खर्च होती है उसमें से 40-45 फीसदी उम्मीदार खर्च करता है। जबकि 20-25 फीसदी राशि पार्टी, 15-20 फीसदी सरकार और एक से दो फीसदी मीडिया के जरिए खर्च होता है। बाकी दूसरे मद में खर्च किए जाते हैं।’ इसके अलावा चुनावों में रियल एस्टेट सेक्टर, चिटफंड, ट्रांसपोर्ट, असंगठित क्षेत्र आदि से भी बड़ी मात्रा में फंडिंग की जा रही है। राव के अनुसार, चुनावों में कॉरपोरेट फंडिंग का भी तरीका काफी बदला है। पहले कॉरपोरेट, पार्टियों को उनके मिलने वाले वोट के आधार पर फंडिंग करते थे, लेकिन वह तरीका बदल गया है। अब यह पैमाना खत्म हो गया है। इससे साफ है कि अब अपने हितों को देखते हुए फंडिंग की जा रही है। छोकर के अनुसार, ‘राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट फंडिंग मिलना कोई नई बात नहीं है। आजादी के पहले से कांग्रेस पार्टी को बिड़ला, बजाज जैसे कॉरपोरेट घरानों से चंदा मिला करता था। लेकिन उस समय यह अपने हितों को साधने के लिए नहीं था। लेकिन बाद में धीरे-धीरे यह बदलाव आता गया। जब देश में लाइसेंस राज आया, तो उस समय सत्ताधारी पार्टी को चंदे देने का सिलिसिला बढ़ा। कॉरपोरेट चुनाव में चंदा देकर अपने बिजनेस के लिए लाइसेंस लेते थे। वहां से शुरू हुआ सिलसिला अब इस स्तर तक पहुंच गया है। जहां पर यह साफ दिखता है कि कॉरपोरेट और राजनीतिक दलों की मिलीभगत हो गई है।’
अगर आंकड़ों को देखा जाए तो यह बात साफ हो जाती है कि सत्ताधारी दल को चंदा देने में कॉरपोरेट से लेकर दूसरे लोग अपनी सहूलियत समझते हैं। इसे पिछले पांच साल में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की आय से समझा जा सकता है। साल 2014-15 में जहां भाजपा की आय 970.43 करोड़ रुपये थी और कांग्रेस की आय 593.31 करोड़ रुपये थी। यह समीकरण 2017-18 आते-आते पूरी तरह से बदल गया है। साल 2017-18 की भाजपा की आय जहां 1027.34 करोड़ रुपये पहुंच गई, वहीं कांग्रेस की आय घटकर 199.15 करोड़ रुपये रह गई।
इसी तरह का ट्रेंड साल 2004-2012 में देखा गया था, जब केंद्र में कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सरकार थी, उस दौरान उनकी इनकम में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2004 से 2012 के बीच राजनीतिक दलों को कुल आय 4895.96 करोड़ रुपये की हुई। इसमें से इलेक्टोरल ट्रस्ट से केवल 105.96 करोड़ रुपये मिले। जबकि अज्ञात स्रोतों से राजनीतिक दलों को 3674.50 करोड़ रुपये मिले, जो दलों की कुल आय का 75.1 फीसदी है। राजनीतिक दलों के आधार पर देखा जाए तो इस अवधि में सबसे ज्यादा राष्ट्रवाटी कांग्रेस पार्टी को 91.58 फीसदी, कांग्रेस को 82.5 फीसदी राशि अज्ञात स्रोतों से मिली। जबकि भारतीय जनता पार्टी को 73 फीसदी, बहुजन समाज पार्टी को 61.8 फीसदी, सीपीएम को 53.8 फीसदी और सीपीआइ को 14.7 फीसदी राशि अज्ञात स्रोतों से मिली।
सत्ता में रहने का फायदा पार्टियों को कैसे मिलता है, उसे उनकी संपत्तियों में हुए इजाफे के आधार पर देखा जा सकता है। इसका सबसे ज्यादा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 से 2015-16 के बीच भारतीय जनता पार्टी की संपत्ति में 627 फीसदी का इजाफा हुआ है। 2004-05 में भाजपा की संपत्ति 122.93 करोड़ रुपये थी, जो 2015-16 में बढ़कर 893.88 करोड़ रुपये हो गई। इसी तरह कांग्रेस की संपत्ति में 353.14 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2004-05 में पार्टी की संपत्ति 167.35 करोड़ थी, जो 2015-16 में बढ़कर 758.79 करोड़ रुपये हो गई। इसी तरह बीएसपी की संपत्ति 43.09 करोड़ रुपये से बढ़कर 559.01 करोड़ रुपये और सीपीएम की संपत्ति 90.55 करोड़ रुपये से बढ़कर 437.78 करोड़ रुपये हो गई।
पिछले 15 साल से राजनीतिक दलों की हुई आय का विश्लेषण किया जाए तो यह बात साफ तौर सामने आती है कि राजनीतिक दलों की आय बढ़ने में अज्ञात स्रोतों से मिले चंदे की अहम भूमिका रही है। पिछले 15 साल में यह राशि 50-75 फीसदी के बीच बनी हुई है। साथ ही सरकार द्वारा पिछले 3-4 साल में भारतीय जनप्रतिनिधि कानून में जो बदलाव किए गए हैं, उससे इसके बढ़ने की आशंका और बढ़ गई है।
फाइनेंस बिल 2017 से कंपनी कानून 2013 में बदलाव किया गया है। इसके तहत अब कंपनियों के लिए किसी भी पार्टी को फंड देने के लिए राशि की सीमा खत्म हो गई है। यानी कोई भी कंपनी कितनी भी राशि का चंदा दे सकती है। पहले नियम था कि कंपनियां केवल अपने तीन साल के औसत प्रॉफिट के आधार पर अधिकतम 7.5 फीसदी ही राशि इस मद में खर्च कर सकती थीं। इस सीमा को हटा दिया गया है। यही नहीं, प्रॉफिट की शर्त भी हटा दी गई है। भास्कर राव का कहना है कि ‘अगर कोई कंपनी प्रॉफिट में नहीं है, उसके बावजूद किसी भी पार्टी को फंडिंग करती है तो जाहिर है उसमें कोई उसका हित होगा।’ साथ ही नए नियम में एक अहम बात यह भी जोड़ी गई है कि कंपनियों को अपने शेयरहोल्डर्स को यह भी बताने की जरूरत नहीं होगी कि उसने किस पार्टी को फंडिंग की है। छोकर के अनुसार, ‘यह कदम सीधे तौर पर पारदर्शिता के खिलाफ है। इसी तरह विदेशी कंपनियों से लिए जाने वाले फंडिंग के नियमों में बदलाव कर भी पारदर्शिता को खत्म करने की कोशिश की जा रही है।’
सरकार ने विदेशी सहायता नियमन कानून में भी संशोधन किया है। इसमें राजनीतिक पार्टियां विदेशी स्रोतों से चंदा ले सकेंगी। जबकि साल 1976 के कानून में ऐसा करना संभव नहीं था। इस संशोधन के खिलाफ एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की हुई है। नए संशोधन के लागू होने के बाद राजनीतिक पार्टियां 1976 के बाद लिए हुए चंदों की जवाबदेही से बच गई हैं। इसी तरह साल 2017-18 में शुरू की गई सरकार की इलेक्टोरल बांड स्कीम पर खुद चुनाव आयोग ने सवाल खड़े कर दिए हैं। उसका कहना है कि इसके जरिए चुनाव में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता की कमी आएगी। सुप्रीम कोर्ट में 25 मार्च को दायर हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा है कि इलेक्टोरल बांड के जरिए मिलने वाले चंदे का विस्तृत ब्योरा नहीं होने से पारदर्शिता पर सीधा असर होगा। उसका यह भी कहना है कि फाइनेंस एक्ट 2016 और 2017 में किए गए बदलावों से चुनावों में कालेधन के इस्तेमाल को बढ़ावा मिलने की आशंका बढ़ गई। इसके लिए शेल कंपनियां बनाई जा सकती हैं, जो कालेधन को चुनावों में भारी मात्रा में लाभ पहुंचाने में सहायक होगी।
इसी तरह विदेशी चंदा नियमन कानून में बदलाव से अब विदेशी कंपनियां भी राजनीतिक दलों को बिना किसी पारदर्शिता के चंदा दे सकेंगी। इसका खामियाजा यह होगा कि वह भी अपने हितों के लिए चुनावों को प्रभावित कर सकेंगी। आयोग ने इस मामले में यह भी कहा है कि उसने कानून एवं सामाजिक न्याय मंत्रालय को मई 2017 में इस बात के लिए सतर्क किया था कि नए संशोधनों से कैसे चुनावों में पारदर्शिता में कमी आएगी। इस मामले पर छोकर का कहना है कि जब इलेक्टोरल बांड का ऐलान सरकार ने किया था, तभी से यह लग रहा था कि इससे पारदर्शिता में कमी आएगी, साथ ही इस बात का भी अंदेशा था कि इलेक्टोरल बांड से मिलने वाला चंदा प्रमुख रूप से सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाएगा। छोकर के अनुसार इलेक्टोरल बांड में इस बात का प्रावधान है कि चंदा देने वाले शख्स या कंपनी की जानकारी गुप्त रखी जाएगी। यह बांड भारतीय स्टेट बैंक की तय शाखाओं से मिलते हैं। जब जानकारी सार्वजनिक ही नहीं होगी, तो उसमें पारदर्शिता कैसे आएगी। साथ ही इस प्रक्रिया में यह भी प्रावधान है कि इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदा देने वाले शख्स या कंपनी को केवाईसी मानकों को पूरा करना होगा। एक तरफ सरकार कह रही है कि जानकारी गुप्त रखी जाएगी। वहीं, दूसरी तरफ केवाईसी भी ली जाएगी। तो यह जानकारी किसके लिए ली जा रही है। जाहिर है कि बैंक से लेकर आरबीआइ, वित्त मंत्रालय जब सरकार के अधीन है तो इसका दुरुपयोग अपने हितों के लिए हो सकता है। छोकर के अनुसार, यह अंदेशा सही भी साबित हुआ है।’ साल 2017-18 में राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बांड के जरिए मिले कुल चंदे में करीब 95 फीसदी राशि भारतीय जनता पार्टी को मिली है। इस अवधि में 222 करोड़ रुपये में से 210 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को इलेक्टोरल बांड के जरिए चंदे में मिले हैं। साफ है कि जिस बात का अंदेशा था वही हो रहा है। इलेक्टोरल बांड के जरिए मिले चंदे से भी स्पष्ट है कि सत्ताधारी राजनीतिक दल को ही ज्यादा से ज्यादा चंदा दिया जा रहा है।
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे में एक और गंभीर सवाल उठाया है। उसने कहा है कि आयकर अधिनियम कानून में बदलाव के बाद राजनीतिक दलों को 20 हजार रुपये से कम की राशि चंदे के रूप में देने वाले व्यक्ति और संस्थानों को अपना नाम, पता और पैन कार्ड की जानकारी देने का प्रावधान खत्म कर दिया गया है। इसकी वजह से ज्यादातर राजनीतिक दल बड़ी मात्रा में चंदे की राशि इसी मद में दिखा रहे। साफ है कि अज्ञात स्रोतों से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। एक बात साफ हो रही है कि फाइनेंस एक्ट 2017 के तहत जनप्रतिनिधि कानून, आयकर अधिनियम, विदेशी सहायता नियमन कानून, कंपनी कानून में जिस तरह से बदलाव हुए हैं, उसके बाद राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में अज्ञात स्रोतों से मिलने वाले चंदे में काफी बढ़ोतरी हुई है।
एडीआर द्वारा जनवरी 2019 में जारी रिपोर्ट के अनुसार साल 2017-18 में देश की छह राष्ट्रीय राजनीतिक दलों (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर) को उनके मिले कुल चंदे में से 53 फीसदी राशि अज्ञात स्रोतों से आई है। राजनीतिक दलों को इस अवधि में 689.44 करोड़ रुपये अज्ञात स्रोतों से मिले हैं। जबकि 47 फीसदी राशि ज्ञात स्रोतों से मिले हैं। रिपोर्ट में एक अहम बात और सामने आई है कि 20 हजार रुपये और उससे ज्यादा की राशि जो चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को मिली है, उसमें 93 फीसदी राशि भारतीय जनता पार्टी को मिली है। साल 2017-18 में इस मद में भारतीय जनता पार्टी को 437.04 करोड़ रुपये और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को 26.66 करोड़ रुपये प्रमुख रूप से मिले हैं। अगर 2017-18 की साल 2016-17 से तुलना की जाए तो अज्ञात स्रोतों से मिलने वाले चंदे में इलेक्टोरल बांड की अहम भूमिका रही है। साल 2016-17 में राजनीतिक दलों को 50 फीसदी से कम चंदा अज्ञात स्रोतों से मिला था, जो 2017-18 में 53 फीसदी पहुंच गया है। इसमें से इलेक्टोरल बांड की हिस्सेदारी 31 फीसदी है। यानी राजनीतिक दलों के अज्ञात स्रोतों से चंदा देने का सबसे अहम जरिया इलेक्टोरल बांड बनता जा रहा है। छोकर का कहना है, “भले ही पारदर्शिता लाने के नाम पर कई सारे कदम उठाने का दावा किया गया हो, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। ताजा आंकड़े इस बात की कहानी बयां कर रहे हैं।” उनका कहना है कि राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में धन-बल का सीधा गणित लगाते हैं। जिसको वह ‘जिताऊ उम्मीदवार’ के रूप में पेश करते हैं। इसके नाम पर ही सब चलता है। एक अहम बात यह भी है कि जब देश के 99 फीसदी से ज्यादा उम्मीदवार यह मानते हैं कि उन्होंने चुनावों में तय खर्च सीमा की 60-65 फीसदी राशि ही खर्च की है, तो फिर हर बार चुनाव आयोग खर्च सीमा को क्यों बढ़ाता है।
सोशल मीडिया की इस बार चुनावों में अहम भूमिका रहने वाली है। भास्कर राव के अनुसार, ‘2014 के चुनावों में करीब 50-60 संसदीय क्षेत्र ऐसे थे, जहां पर सोशल मीडिया के जरिए चुनाव अभियान पर काफी फोकस किया गया था। लेकिन इस बार यह संख्या 150 संसदीय क्षेत्रों तक पहुंचने वाली है। यानी इस बार पार्टियों का बड़ा खर्च इस मद में भी होने वाला है।’ राव के मुताबिक 2014 में यह कुल खर्च का करीब एक फीसदी था, जो कि 2019 में सात से दस फीसदी के करीब रहने वाला है।’ यानी चार हजार से पांच हजार करोड़ रुपये अकेले सोशल मीडिया पर खर्च होंगे। जबकि चुनाव आयोग की खर्च सीमा के आधार पर उम्मीदावरों का पूरा खर्च इतनी राशि में पूरा हो जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा है, “इस बार चुनावों में एक लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे, इसमें से 90 फीसदी राशि यानी 90 हजार करोड़ रुपये अकेले भाजपा खर्च करेगी।”
बढ़ते खर्च को क्या रोका जा सकता है? इस मामले पर एडीआर प्रमुख (रिटायर्ड मेजर जनरल) अनिल वर्मा कहते हैं “चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के व्यय और आय की कड़ाई से निगरानी करनी चाहिए और दोषी दलों पर जुर्माना लगाना चाहिए। नकदी में चंदे का हिसाब-किताब रखा जाना चाहिए। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) से नियुक्त पैनल के चार्टर्ड अकाउंटेंट्स के जरिए राजनीतिक दलों की फंडिंग का ऑडिट कराया जाना चाहिए। गाइडलाइन के उल्लंघन पर राजनीतिक दलों को मिली आयकर छूट समाप्त की जाए। विवरण न देने पर राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगाया जाना चाहिए। पारदर्शिता बढ़ाने के लिए इलेक्टोरल बांड स्कीम रद की जाए। मुख्य सूचना आयुक्त के 2013 के फैसले के अनुसार राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने का आदेश लागू किया जाना चाहिए।” साफ है कि अभी चुनावी खर्च में पारदर्शिता का अभाव है, पिछले तीन-चार वर्षों में पारदर्शिता बढ़ाने के नाम पर जो नियम बनाए गए हैं, उन पर भी सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में जब तक सही मायने में पारदर्शिता लाने के कदम नहीं उठाए जाएंगे, उस समय तक पूरी चुनाव प्रणाली पर सवाल तो उठते रहेंगे।
(साथ में चंडीगढ़ से हरीश मानव)
रोचक तथ्य
-अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव से महंगा होगा 2019 का लोकसभा चुनाव
- औसतन प्रति संसदीय क्षेत्र 90 करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च
- चुनाव आयोग के अनुसार उम्मीदवार 50-70 लाख रुपये खर्च कर सकते हैं
- राजनीतिक दलों को अज्ञात स्रोतों से 53 फीसदी चंदा मिल रहा है
- सत्ता में रहने वाले दल को सबसे ज्यादा चंदा मिलता है
- एंबुलेंस, पर्ची, रियल एस्टेट, चिटफंड कंपनियों के इस्तेमाल से अवैध चंदा देने की आशंका
इलेक्टोरल ट्रस्ट से मिला चंदा
राजनीतिक दलों को 2017-18 में इलेक्टोरल ट्रस्ट से जो चंदा मिला है, उसमें से 86.59 फीसदी राशि यानी 167.80 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को मिले हैं। जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बीजू जनता दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और नेशनल कांफ्रेंस को कुल मिलाकर 25.98 करोड़ रुपये मिले।
15 लाख करोड़ का राजस्व नुकसान
केंद्र सरकार हर साल उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए अलग-अलग तरह की टैक्स छूट देती है। इस मद में साल 2013-14 से लेकर 2016-17 तक एक्साइज और कस्टम ड्यूटी में उद्योग जगत को मिली छूट से करीब 15.21 लाख करोड़ रुपये का राजस्व नुकसान हुआ है। साफ है कि जो पैसे सरकार को मिलने चािहए थे, वह इकोनॉमी को रफ्तार के नाम पर चले गए।