सोशल मीडिया ने उर्दू भाषा और शायरी को प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज हर किसी के फोन तक उर्दू शायरी की पहुंच है। लोग उर्दू शायरी को वाट्सएप स्टेटस पर शेयर करने से लेकर उस पर इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स बना रहे हैं। रेख़्ता वेबसाइट का उर्दू भाषा और शायरी को जन-जन तक पहुंचाने में अहम योगदान रहा है। इसके पीछे रेख़्ता के संस्थापक संजीव सराफ की जी तोड़ मेहनत रही है। संजीव सराफ से रेख़्ता, उर्दू भाषा की दीवानगी और वर्तमान पीढ़ी में उर्दू शायरी की दिलचस्पी पर आउटलुक के मनीष पांडेय ने बातचीत की।
तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद, वर्तमान पीढ़ी में उर्दू शायरी और शायरों के प्रति जो दीवानगी है, उसकी क्या वजह नजर आती है आपको, क्यों आज भी युवाओं के दिल में ग़ालिब,मीर, फैज, फराज जिंदा हैं ?
मीर-ओ-गालिब के जमाने से आज तक दुनिया भले ही काफी बदल गई हो मगर इंसान आज भी वही है। उर्दू गजल हमेशा से उसी इंसान के दिल-ओ-दिमाग में होने वाले वाकयों और हादसों की खबर बरामद करती आई है। मुहब्बत और गम ऐसे जज्बे हैं जो किसी भी किस्म की सरहद से परे लोगों के दिलों को जोड़ती है और इनके ज़ेर-ए-असर हर शख्स खुद को एक ही कश्ती मे सवार पाता है। जिंदगी और मौत की पहेली से जूझता हुआ हर इंसान अपने दिल में लाखों सवाल लिए फिरता है और इन सवालों से जूझते हुए दो इंसानों में कोई फर्क नहीं होता। उर्दू शायरी इकलौती ऐसी रवायत है जो मिट्टी और पानी से बने हुए उस इंसान की हिमायत करती है जिसमें हुनर के साथ ऐब भी हैं, खूबियों के अलावा खामियां भी हैं, जो नेकदिल है मगर गुनाह के भी लुत्फ उठाता है। जाहिर सी बात है कि इस जहान-ए-बेमुरव्वत में किसी को एक ऐसा सुकून भरा गोशा मयस्सर हो जाए तो वो कहीं और उठ कर क्यूं जाए और क्यूं न हमेशा उसे दिल मे बसाए रखे। और वैसे भी, मुहब्बत की जबान से कोई कैसे नफरत करे। इसमें कोई हैरत नहीं अगर इन शायरों के लिए लोगों की दीवानगी रहती दुनिया तक जिंदा रहे।
जैसा कि मीर तक़ी मीर फरमाते हैं-
जाने का नहीं शोर सुख़न का मेरे हरगिज़
ता हश्र जहां में मेरा दीवान रहेगा
आपने किस उद्देश्य के साथ रेख़्ता की शुरुआत की? आप अपने उद्देश्य में किस हद तक सफल हुए हैं?
रेख़्ता की शुरुआत मेरी उर्दू शायरी से जाती मुहब्बत का नतीजा थी। उर्दू शायरी पढ़ने और जबान सीखने के शुरुआती दौर में मैंने पाया कि जहां इंटरनेट पर दूसरी जबानों का बड़ा साहित्यकोश और डिक्शनरियां मौजूद हैं वहीं उर्दू सीखने के लिए ऐसी कोई सहूलियत मयस्सर नहीं। खास कर वो लोग जो उर्दू की लिपि नहीं जानते वो किसी भी तौर से उर्दू अदब नहीं पढ़ सकते। चंद वेबसाइट्स जिन पर उर्दू शायरी पढ़ी जा सकती थीं उनमें कई गलतियां होतीं और वो किसी तौर से भरोसे के लायक नहीं मानी जा सकती थीं। ये उर्दू जबान के फरोग में एक जानलेवा रुकावट की तरह था। रेख़्ता की शुरुआत उर्दू शायरी के दीवानों को उर्दू अदब तक पहुंचने में पेश आने वाली मुश्किलों को आसान करना और उर्दू अदब का एक ऑथेंटिक साहित्य कोश तैयार करना था। हम इसमें किस हद तक कामयाब हुए ये तो जमाना और वक्त तय करेगा, मगर लोगों से मिली मुहब्बत के सबब हमारा मकसद अब पहले से ज्यादा बड़ा हो चुका है।
मैं अकेला ही चला था जानिब ए मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
- मजरूह सुल्तानपुरी
रेख़्ता ने उर्दू शायरी को युवा पीढ़ी तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इस यात्रा में क्या चुनौतियां पेश आईं?
किसी भी काम की तरह ये काम भी चुनौतियों से खाली नहीं था। हिन्दुस्तान में उर्दू जबान से जुड़ी दकियानूसी विचारधाराओं से तो आप वाकिफ ही हैं। सबसे पहली चुनौती इस भेदभाव को दूर करना था। इसके लिए कई कदम उठाए गए। रेख़्ता को रवायती रंग रूप देने के बजाय उसे एक आधुनिक पैकर में ढाला गया। हमने अवाम तक ये पैगाम पहुंचाने की कोशिश की कि हिंदी और उर्दू में बहनों का रिश्ता है और ये एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचातीं बल्कि एक-दूसरे को पूरा होने में मदद करती हैं। इसके बाद रेख़्ता की वेबसाइट पर उर्दू लिपि के अलावा रोमन और देवनागरी लिपियों में भी गजलों, नज़्मों और कहानियों को उपलब्ध कराया गया जिससे लिपि की जानकारी न होना किसी भी युवा के उर्दू साहित्य पढ़ पाने में अड़चन न बने। रवायती तालीम से महरूम होने के कारण नौजवानों की बड़ी आबादी उर्दू ज़बान की गाढ़ी लफ्जियात से वाकिफ नहीं थी। इस रुकावट को दूर करने के लिए रेख़्ता की वेबसाइट पर लफ्जों पर क्लिक करते ही उनका मतलब देख पाने की सहूलियत भी मुहैया कराई गई। नौजवान अक्सर जिज्ञासा से भरे होते हैं। वे किसी भी नई चीज को कुबूल करने के लिए औरों के मुकाबले ज्यादा फराखदिल होते हैं। नौजवानों के और करीब पहुंच पाने के लिए हमने अपने सोशल मीडिया एकाउंट्स को उनकी मानसिकता के हिसाब से ढाला और उस पर लगातार काम करते रहे। इसका नतीजा ये हुआ कि आज रेख़्ता को नौजवानों से बहुत मुहब्बत मिल रही है और वे बड़ी तादाद में उर्दू से मुतास्सिर हो रहे हैं।
रेख़्ता और सोशल मीडिया ने कई नए और प्रतिभावान लेखकों को मंच देने के साथ ही बड़ी संख्या तक पहुंचाने का काम तो किया है, लेकिन ये लेखक कुछ ही समय में फिर गायब भी हो जा रहे हैं। इसका क्या कारण नजर आता है आपको ?
रेख़्ता की कोशिशों के सबब बड़ी तादाद में नए लिखने वाले सामने आ रहे हैं। रेख़्ता पुराने लोगों के साथ इन नए लिखने वालों को भी मौका देने के लिए जिम्मेदार है। कोविड के कारण दो साल इसको नुकसान पहुंचा। इसकी भरपाई इस जश्न-ए-रेख़्ता में कई नई आवाजों को मौका दे कर करने की कोशिश की गई। रेख़्ता इन अदीबों को तरवीज देने के अलावा एक अदबी समाज की तखलीक की भी कोशिश करता रहा है। ये सभी नए पुराने लोग हमेशा के लिए उस समाज का हिस्सा बन कर इसकी सरगर्मियों में शिरकत करते हैं। वे जहां जिस शहर में है, रेख़्ता परिवार के सदस्य हैं। बहरहाल, अभी रेख़्ता के कई जश्न होना बाकी हैं और ये सभी चेहरे वहां अक्सर नजर आते रहेंगे।
बक़ौल वली दकनी -
राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
ता-क़यामत खुला है बाब-ए-सुख़न
सोशल मीडिया के कारण लोगों का अधिकांश समय इंस्टाग्राम रील्स और यूट्यूब शॉर्ट्स देखने में बीत रहा है, किताबें पढ़ना कम हो गया है, ऐसे में लोगों में साहित्य के प्रति दिलचस्पी पैदा करना कितना कठिन है?
ये जमाने का तकाजा है कि इंसान को उसके हिसाब से बदलना पड़ता है। रेख़्ता की वेबसाइट की शुरुआत खुद में इस बात की पुख्ता दलील है। आज बदलती टेक्नोलॉजी के सबब इशाअत के नए-नए जरिये वजूद में आ रहे हैं। हमारी कोशिश रहेगी कि हम इन तमाम जरियों के इस्तेमाल से लोगों तक उर्दू शायरी और अदब को पहुंचाते रहें।
ईमां मुझे रोके है तो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे
- मिर्ज़ा ग़ालिब
स्कूली पाठ्यक्रम में उर्दू शायरी, शायरों की जानकारी बहुत सीमित है। किस तरह से स्कूली बच्चों में उर्दू भाषा के प्रति प्रेम जगाया जा सकता है?
स्कूली पाठ्यक्रम में उर्दू शायरी और शायरों की जानकारी शामिल करना एक बेहद मुबारक कदम होगा मगर ये हमारे इख्तियार में नहीं। अगर बच्चों को महज उनकी मादरी जबान और दीगर जबानों में ही अदब की तालीम दी जाए तो उर्दू जबान की तासीर यकीनन उनके दिलों तक अपना रास्ता ढूंढ लेगी क्योंकि उर्दू हिंदुस्तान में रची बसी जबानों और बोलियों की ही पैदावार है। रेख़्ता में बच्चों के लिए अदब पर भी काम किया जा रहा है, हमें उम्मीद है कि हमारी कोशिशें लोगों तक पहुंचेगीं।
उनका जो फ़र्ज़ है वो अहले सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे
- जिगर मुरादाबादी
हर अच्छे कार्य को करते हुए आलोचना का सामना करना पड़ता है, आलोचना को आप किस तरह से लेते हैं?
आलोचना ही किसी भी कार्य को संतुलन प्रदान करती है। मैं आलोचनाओं पर बेहद संजीदगी से गौर करता हूं और जरूरत के मुताबिक उन पर अमल करने का भरसक प्रयास करता हूं। मेरी यही कोशिश मुझे संतुलित रखती है।
मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत संवरती है
मैं दुश्मनों का बहुत एहतराम करता हूं
- बशीर बद्र
जश्न-ए-रेख़्ता का आयोजन एक उत्सव की तरह होता है। देश विदेश से लोग इसमें जुड़ते हैं। भविष्य में आपकी क्या योजनाएं हैं, आप किस स्तर पर इसे लेकर जाना चाहते हैं?
जश्न-ए-रेख़्ता 2022 में लोगों ने जिस तादाद और जोश-ओ-खरोश के साथ शिरकत की, इसके बाद हम इसे और भी बड़े पैमाने पर करने के मंसूबे रखते हैं और इसे हिंदुस्तान के अलावा दूसरे देशों में भी ले जाने के ख्वाहिशमंद हैं। आगे इसकी और जानकारी दी जाएगी।