आज हमारा देश एक विचित्र दौर से गुजर रहा है। एक तरफ तो हम आर्थिक प्रगति की दिशा में सरपट दौड़ रहे हैं। विश्व की अर्थव्यवस्थाओं में भारत की प्रगति सर्वाधिक तीव्र गति से है। दूसरी ओर, ऐसा लगता है जैसे देश की आत्मा धीरे-धीरे मर रही है। आत्मा से मेरा तात्पर्य देश की संस्कृति, देश की परंपरा, देश का दर्शन, देश के मूल्यों से है। इन सभी में इतनी तेजी से गिरावट आ रही है कि एक प्रबुद्ध नागरिक को अंदर से अत्यंत क्लेश होता है। भारत को विश्व का धर्मगुरु कहा जाता है, लेकिन वर्तमान स्थिति चलती रही तो हम भी अन्य देशों की तरह पतनोन्मुख हो जाएंगे। देश की संस्कृति और धर्म को बचाए रखने में धर्मगुरुओं का बहुत बड़ा स्थान होता है। दुर्भाग्य से, आजकल अधिकांश धर्मगुरुओं के चरित्र और आचरण को देखकर, जनसाधारण की उनमें आस्था कम होती जा रही है। कितने ही धर्मगुरु ऐसे हैं, जिनसे किसी-न-किसी प्रकार के स्कैंडल जुड़े हैं। साधु और साध्वी के रूप में आज हमें ऐसे व्यक्ति देखने को मिलते हैं, जिनके आचरण को देखकर अफसोस होता है। कितने ही गेरुआ वस्त्र पहने व्यक्ति राजनीति में आ गए हैं। यूं तो प्लेटो ने कहा था कि जब तक दार्शनिक व्यक्ति राजनीति में नहीं आएंगे या राजनैतिक व्यक्ति दर्शन नहीं पढ़ेंगे, तब तक किसी देश का उद्धार नहीं हो सकता। इसलिए, सिद्धांततः गेरुआ वस्त्र पहने व्यक्ति का राजनीति में आने से विरोध नहीं किया जा सकता, लेकिन सवाल यह है कि ऐसे व्यक्ति राजनीति में शुचिता के लिए अपनी पहचान बनाते हैं या घृणा और हिंसा के लिए!
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर बराबर विवादों में रही हैं। 2008 में मालेगांव में विस्फोट हुए थे, जिसमें छह व्यक्ति मारे गए थे। जांच के बाद 14 अभियुक्तों के विरुद्ध, जिनमें साध्वी प्रज्ञा भी शामिल थीं, चार्जशीट लगाई गई थी। बाद में, 2015 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) ने प्रज्ञा के विरुद्ध ‘मकोका’ के आरोप खारिज कर दिए थे। कालांतर में प्रज्ञा को बॉम्बे हाइकोर्ट से जमानत मिल गई। वर्तमान में वे भोपाल से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। कुछ लोगों ने उन्हें टिकट देने पर भी आपत्ति उठाई है। विशुद्ध राजनीति की दृष्टि से साध्वी प्रज्ञा को टिकट देना गलत अवश्य था। लेकिन सवाल यह है कि कौन-सी पार्टी विशुद्ध राजनीति कर रही है। नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार, चुनाव के प्रथम चार चरणों में 5378 प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण किया गया, उसमें 1014 (19%) के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज थे और 701 (13%) के विरुद्ध गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। दुर्भाग्य है कि सभी पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को खुलेआम टिकट दे रही हैं। कुछ वर्षों बाद पॉर्लियामेंट का क्या स्वरूप होगा, यह सोचकर भी भय लगता है।
लेकिन प्रज्ञा ठाकुर ने जो बयान दिए, उसका कोई औचित्य नहीं था। मुंबई के आतंकवाद निरोधक दस्ते के प्रमुख हेमंत करकरे, जिन्होंने प्रज्ञा को गिरफ्तार किया था, के लिए उन्होंने कहा कि उनके अभिशाप के कारण करकरे की मृत्यु हुई। जैसा कि सर्वविदित है, हेमंत करकरे आतंकवादियों से लड़ते हुए 26 नवंबर 2008 को शहीद हुए थे। उन्होंने कहा कि उन्होंने करकरे को श्राप दिया था, “तेरा सर्वनाश होगा।” केंद्र सरकार ने करकरे को बाद में अशोक चक्र से विभूषित किया था। साध्वी का बयान न केवल गलत, बल्कि अत्यंत भड़काऊ था। पहली बात, क्या उन्हें श्राप देने की शक्ति है। ऐसी शक्ति तो केवल आध्यात्मिक दृष्टि से एक ऊंचाई तक पहुंचे हुए व्यक्ति में ही होती है। साध्वी की पृष्ठभूमि को देखते हुए यह कहना मुश्किल है कि किसी भी दृष्टिकोण से वे ऐसी व्यक्ति हैं। दूसरे, अगर उनमें श्राप देने की शक्ति वास्तव में है, तो उन्होंने ऐसा श्राप हाफिज मोहम्मद सईद या मसूद अजहर को क्यों नहीं दिया। सईद लश्कर-ए-तैयबा का प्रमुख है और उसी की योजना के तहत आतंकवादियों ने मुंबई में नरसंहार किया था। मसूद अजहर के जैश-ए-मोहम्मद ने पुलवामा में सीआरपीएफ के 40 जवानों को विस्फोट में मार दिया था। अगर इन दो बड़े आतंकवादियों का साध्वी खात्मा कर देतीं तो देश की बहुत बड़ी समस्या अपने आप हल हो जाती। प्रधानमंत्री शायद देश की खुफिया एजेंसी रॉ को बंद कर देते और देश के दुश्मनों से निपटने का काम प्रज्ञा और उन्हीं की तरह की अन्य साध्वियों को दिया जा सकता था। लेकिन साध्वी ने ऐसा नहीं किया। शायद उन्हें अपनी तकलीफ ज्यादा कष्टदायक लगी, देश को जो बड़ी हानि होती है, उससे उनका कोई लेना-देना नहीं था। या फिर, श्राप की शक्ति केवल एक ढोंग है।
साध्वी ने बाद में अपने बयान को वापस लिया, पर यह भी कहा कि इससे देश के दुश्मन फायदा उठा रहे हैं, इसलिए वे क्षमा मांगती हैं। यानी, क्षमा भी शर्तों के साथ थी। साध्वी ने जो कहा, उससे देश के 30 लाख से अधिक पुलिसकर्मियों और अर्धसैनिक बल के कर्मियों को ठेस लगी। उन्हें इस बात का अफसोस होता है कि उनके अच्छे कार्यों को मान्यता नहीं मिलती, जबकि किसी भी गलती पर उनकी गंभीर आलोचना होती है। भारी संख्या में कर्मी ऐसे हैं, जो बड़ी कठिन परिस्थितियों में अपनी जान की बाजी लगाते हुए पूर्वोत्तर के राज्यों, जम्मू-कश्मीर या नक्सल प्रभावित प्रदेशों में बराबर अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं। एक आकलन के अनुसार, आजादी के बाद से आज तक 35 हजार पुलिसकर्मी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। हेमंत करकरे भी इसी श्रेणी में आते हैं। ऐसे बहादुर पुलिसकर्मी की शहादत का मजाक बनाना या यह कहना कि वह उनके श्राप के फलस्वरूप मारा गया, एक बहुत गैर-जिम्मेदाराना बयान था, जिसकी कितनी भी निंदा की जाए कम होगी। जो देश अपने सपूतों को भूल जाता है या उन बहादुरों को पर्याप्त सम्मान नहीं देता, जो देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति देते हैं, उसका अस्तित्व एक-न-एक दिन समाप्त हो जाता है।
(लेखक सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक हैं)