गोद में दो साल के बेटे और कोख में दूसरी संतान लिए अमोला देवी ने बमुश्किल किशोरावस्था की दहलीज लांघी थी, कि उनके पति सतीश चौधरी गायब हो गए। ग्यारह साल बाद वे घर लौटे, लेकिन विछोह के इस लंबे सदमे ने उनके फिर मिलने की खुशी के पलों को जैसे थाम दिया। गांव के दूसरे लोगों की तरह अमोला ने भी मान लिया था कि उनके पति की मौत हो गई है। बिहार के दरभंगा जिले के तुसलीडीह मनोरथ गांव के रहने वाले सतीश, छोटे भाई मुकेश चौधरी के साथ अप्रैल 2008 में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर एक डेकोरेटर के यहां काम करने पटना गए थे। दो दिन बाद एस.के. मेमोरियल हॉल से वे रहस्यमय रूप से लापता हो गए। वहां दोनों भाई बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के समारोह के लिए पंडाल बना रहे थे।
सतीश उन दिनों अवसाद का इलाज करा रहे थे, इसलिए शुरू में मुकेश ने सोचा कि भाई शायद बिना बताए गांव लौट गए हैं। कई दिनों तक वे घर नहीं पहुंचे, तो खोजबीन शुरू हुई लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। तब मुकेश ने पटना के गांधी मैदान थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई।
महीनों बीत गए पर सतीश की कोई खबर नहीं मिली। बेटे के जाने के गम में पिता रामविलास चौधरी दुनिया छोड़ गए। पत्नी अमोला ने भी मान लिया कि पति की मौत हो गई है और उन्होंने सिंदूर लगाना छोड़ दिया। लेकिन सतीश की मां और भाई की उम्मीदें नहीं टूटी थीं। मुकेश ने आउटलुक से कहा, “मां ने मुझे किसी भी कीमत पर भाई का पता लगाने का संकल्प दिलाया। इसके बाद यह मेरे जीवन का मिशन बन गया।”
मुकेश कहते हैं, “मैं दिहाड़ी मजदूर हूं। मेरे पास पैसे नहीं थे। भाई के परिवार की जिम्मेदारी का अतिरिक्त बोझ भी मुझ पर आ गया था। मैंने मां और भाभी से वादा किया कि एक दिन भाई को वापस लाऊंगा।” मुकेश महीने-दो महीने पटना में काम कर पैसे बचाते थे ताकि सतीश को खोज सकें। वे कहते हैं, “पुलिस कोई मदद नहीं कर रही थी, इसलिए मुझे अपने दम पर यह करना पड़ रहा था। चार साल तक मेरी कोशिश का कोई नतीजा नहीं निकला।”
इस बीच एक और वाकया हुआ। सतीश के साथ गांव में उनके पड़ोसी का बेटा भी काम करने गया था। सतीश के लापता होने के एक हफ्ते बाद वह भी पटना से गायब हो गया तो पड़ोसी ने मुकेश और उनके परिवार पर अपहरण का मुकदमा दर्ज करा दिया। मुकेश और परिवार के दो अन्य पुरुष सदस्यों को नौ महीने जेल में बिताने पड़े। मुकेश की मां श्रीकला देवी कहती हैं, “अपहरण का मामला वापस लेने और पड़ोसी को देने के लिए मैंने 30,000 रुपये उधार लिए, लेकिन उन लोगों ने भरोसा नहीं किया। शुक्र है कि उनका बेटा ढाई साल बाद लौट आया।”
आखिर 2012 में मुकेश को ऐसी खबर मिली जिसका उन्हें बरसों से इंतजार था। रेड क्रॉस सोसायटी के पटना ऑफिस ने उन्हें एक पत्र दिया, जो रेड क्रॉस क्रेसेंट सोसायटी ढाका ने भेजा था। उसमें लिखा था कि सतीश, बांग्लादेश की लक्ष्मीपुर जिला जेल में बंद है। मुकेश कहते हैं, “पत्र पर जब हमने भाई के हस्ताक्षर देखे तो हमारी खुशी की सीमा नहीं थी। हमने राहत की सांस ली कि वे अभी जिंदा हैं।”
मुकेश को लगा था कि कुछ ही दिनों में सतीश घर आ जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पटना रेड क्रॉस ऑफिस ने उन्हें सरकारी अधिकारियों से मिलने के लिए कहा, तो वे नीतीश कुमार के जनता दरबार में गए। मुख्यमंत्री कार्यालय ने मामला राज्य के गृह विभाग को और उसने विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव को भेजा। मुकेश कहते हैं, “मैं पटना में प्रमुख सचिव (गृह) सहित राज्य के कई शीर्ष अधिकारियों से मिला, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।”
साल बीतते रहे। इस बीच मुकेश बिहार के कुछ सांसदों से भी मिले, लेकिन कोई मदद नहीं मिली। आखिरकार, मुकेश ने बांग्लादेश जाने का फैसला किया। उन्होंने पासपोर्ट बनवाया और टूरिस्ट वीजा लेकर 2018 में सड़क मार्ग से ढाका गए। उनके पास पैसे बहुत थोड़े थे, तब उनकी मदद कोलकाता के स्क्रैप डीलर सनी भाई ने की। मुकेश बताते हैं, “मेरे दोस्त ने मुझे ढाका में अपने एक परिचित का पता दिया। वह एक मुस्लिम परिवार था। उस परिवार ने न सिर्फ मुझे रहने की जगह दी और शाकाहारी खाना दिया, बल्कि मेरी हर तरह से मदद की।”
ढाका पहुंचकर मुकेश को लगा था कि वे लक्ष्य से केवल एक कदम दूर हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वे बताते हैं, “मैं लक्ष्मीपुर जेल गया लेकिन भाई वहां नहीं था। अधिकारियों ने बताया कि हो सकता है, वह रिहा हो गया हो या किसी और जेल में भेज दिया गया हो। दस दिन भटकने के बाद भी भाई का पता नहीं लगा। आखिरकार मुझे खाली हाथ लौटना पड़ा।”
वीजा अब भी वैध था, इसलिए सनी भाई ने फिर बांग्लादेश जाने की सलाह दी। वे बताते हैं, “इस बार मैं पश्चिम बंगाल से लगी दूसरी सीमा पर गया और बीएसएफ अफसरों को बताया। उन्होंने तुरंत बांग्लादेश के अधिकारियों के साथ संपर्क किया और कुछ घंटों के बाद बताया कि सतीश चौधरी नाम का कोई भी व्यक्ति बांग्लादेश की किसी जेल में नहीं है। निराश हो कर मैं गांव लौट आया।”
अगस्त 2019 में ढाका से भारतीय उच्चायोग के एक अधिकारी का फोन आने पर मुकेश की उम्मीदें एक बार फिर जागीं। वे बताते हैं, “उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं किसी सतीश चौधरी को जानता हूं? उन्होंने मेरे मोबाइल पर फोटो भेजा और पहचानने को कहा। फोटो भाई की ही थी। मैंने उनसे पूछा कि भाई को घर वापस आने में कितने दिन लगेंगे, तो उन्होंने कहा कि कोई समय-सीमा नहीं दी जा सकती।”
तब कुछ लोगों ने मुकेश को गया में रहने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता विशाल रंजन दफ्तुअर से मिलने की सलाह दी। मुकेश बताते हैं, “मैंने सारी जानकारियां उनके मेल पर भेजीं। उन्होंने फौरन जवाब दिया और भाई को जल्द वापस लाने का वादा किया।” ह्यूमन राइट्स अम्ब्रेला फाउंडेशन नामक संस्था चलाने वाले दफ्तुअर ने सतीश की घर वापसी के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को पत्र भेजा। जल्द ही पता चला कि बांग्लादेश सरकार ने 12 सितंबर 2019 को सतीश को सौंपने की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए ढाका में भारतीय उच्चायोग से संपर्क किया था।
कुछ दिनों बाद मुकेश और दफ्तुअर गेदे-दर्शना सीमा पर पहुंचे जहां, सतीश को बीएसएफ के अधिकारियों ने लिया और औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें सौंप दिया। राज्य सरकार पर उदासीनता का आरोप लगाते हुए दफ्तुअर ने कहा, “दुखद है कि बिहार सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने सीमा पर जाने की जहमत नहीं उठाई।”
इसके बाद विशाल ने नीतीश सरकार को पत्र लिखा कि सतीश को मुआवजे के तौर पर 25 लाख रुपये और इलाज का खर्च दिया जाए, उनकी पत्नी को आंगनवाड़ी में नौकरी और बेटों को मुफ्त शिक्षा मिले और परिवार को एक घर दिया जाए। उन्हें अभी तक सरकार के जवाब का इंतजार है। मुकेश के अनुसार सतीश का नाम गलती से बांग्लादेश के रिकॉर्ड में ज्योतिष चौधरी दर्ज हो गया था, जिससे मामला उलझ गया था।
सतीश अब बिल्कुल बदल चुके हैं। स्थानीय किसान सियाराम लाल देव बताते हैं, “वह मानसिक रूप से अस्थिर हैं। उसके साथ 11 वर्षों में क्या हुआ, उसे कुछ भी याद नहीं। ऐसा लगता है जैसे वह बहुत अधिक मानसिक और शारीरिक यातना से गुजरा हो।” फिर भी घरवाले खुश हैं। सतीश की मां श्रीकला देवी कहती हैं, “भगवान की कृपा से वह जीवित लौट आया है और आशा है कि वह इस स्थिति से भी उबर जाएगा।” सतीश बांग्लादेश कैसे पहुंचे, यह कोई नहीं जानता। परिवार को भी उस पल का इंतजार है जब सतीश यह सब बताने की स्थिति में होंगे।
ऑपरेशन ‘वतन वापसी’
बिहार के बेगुसराय शेल्टर होम से छूटी बांग्लादेश की सवेरा बेगम
पिछले महीने की 24 तारीख, साढ़े चार साल से बिहार के बेगूसराय शेल्टर होम में रह रही सवेरा बेगम की जिंदगी में नया सवेरा लेकर आई। बांग्लादेश की 50 वर्षीय सवेरा बेगम की उस दिन वतन वापसी हुई। ढाका से उनकी बहन सोफिया बेगम उन्हें हरिदासपुर-बेनापोल बॉर्डर पर लेने आई थीं। करीब 54 महीने बाद सवेरा को उनके परिवार से मिलवाने में ह्यूमन राइट्स अम्ब्रेला फाउंडेशन (एचआरयूएफ) के चेयरमैन और मानवाधिकार कार्यकर्ता विशाल रंजन दफ्तुअर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
2016 में पटना अपने संबंधी के पास आने वाली सवेरा कुछ दिनों तक मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में थीं। वहां 2018 में यौन उत्पीड़न मामला सामने आने के बाद उन्हें बेगूसराय भेजा गया था।
विशाल बताते हैं कि मुजफ्फरपुर शेल्टर होम में ही सवेरा बेगम का पासपोर्ट और वीजा, 40 से अधिक महिलाओं के यौन उत्पीड़न का आरोपी ब्रजेश ठाकुर ने जब्त कर लिया था। विशाल के अनुसार सवेरा बेगम को उनके देश पहुंचाने की मुहिम इस साल फरवरी में शुरू हुई। वे मई तक वापस लौट जातीं, लेकिन कोरोना की वजह से देरी हुई। इस साल मई में आरटीआइ कार्यकर्ता जतिन देसाई के सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय ने कहा था कि 38 मछुआरे सहित कुल 80 भारतीय बांग्लादेश की जेलों में बंद हैं। इसी तरह 207 भारतीय पाकिस्तान की जेलों में और 99 पाकिस्तानी मछुआरे भारत की जेलों में हैं। विशाल कहते हैं, “ये निर्दोष हैं तो इन्हें स्वदेश लाना विदेश मंत्रालय का काम है। इन गरीबों की फाइलें वर्षों तक भटकती रहती हैं, पर कुछ नहीं होता।”
विशाल की संस्था एचआरयूएफ अब तक तीन लोगों की वतन वापसी करा चुकी है। उन्होंने दो साल से बांग्लादेश की जेल में बंद उत्तर प्रदेश के बलिया के अनिल कुमार सिंह की वापसी करवाई। अब वे बांग्लादेश की जेल में तीन साल से बंद भागलपुर के 30 वर्षीय राजेंद्र रविदास की वतन वापसी में लग गए हैं। राजेंद्र की पत्नी सविता ने लिखा है, “भूखे मरने की नौबत आ गई है।” मानसिक असंतुलन की वजह से राजेंद्र 2017 में बांग्लादेश बॉर्डर पार कर गए थे। जल्द से जल्द उनकी भी वापसी कराई जाएगी।
नीरज झा