जिंदादिल प्रयागराज
इलाहाबाद इतनी समृद्ध धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विरासत समेटे है जिसे शब्दों में पिरोना कठिन है। मेरे लिए गंगा की बूंदें तस्बीह के वो दाने रही हैं जिनको निगाहों में फिराने से सच्ची इबादत हो जाती है। कुंभ मेले का इलाहाबादियों के लिए बहुत महत्व है। बचपन की कुछ स्मृतियां हैं। गंगा तट पर, अस्थायी तम्बूनुमा घरों में लोग पूरे एक माह कल्पवास करते थे। सुबह-शाम भंडारों में श्रद्धालुओं को भोजन कराना, पुआल के गद्दों पर सोना; माघ की सिहराती हवा के बीच गर्म चाय और पकौड़ों के खोमचे, ढोल-मंजीरों की थाप के साथ गूंजते रामकथा के स्वर, श्रद्धालुओं द्वारा गंगा को अर्पित दीयों से जगमगाता त्रिवेणी संगम, बड़े मनोहारी दृश्य का भान कराते थे।
दूध-जलेबी और देवदुर्लभ चाट
माघ की ठिठुरती ठंड में, मेरे दादाजी हम भाई-बहनों की रजाइयां खींच कर हमें भोर में चार बजे पैदल गंगा स्नान के लिए ले जाते थे। गंगा किनारे भोला हलवाई की दुकान थी जिसमें बैठकर हम सपरिवार, माँ के हाथों के बने तिल-गुड़, बाजरे, खड़ी मूंग, चावल के लड्डू, पूरी-आलू और खीर का आनंद लेते थे; साथ में भोला चाचा की दूध जलेबी। यह स्वादों का शहर है। सुबह नाश्ते में दूध-जलेबी, कुल्हड़ में चाय, दाल-भात-चोखा, लाल अमरूद, लंगड़ा, दशहरी आम, हरिराम के समोसे, नेतराम की कचौड़ी, लोकनाथ की ठंडी मलाईदार लस्सी जो मिट्टी की सौंधी खुशबू वाले कुल्हड़ में आत्मा तृप्त कर देती थी। मक्खन-सा कलाकंद, देवदुर्लभ इलाहाबादी चाट, जिसमें आलू की टिकिया, पालक के कुरकुरे पकौड़े, मैदे के बने करेले, दही-बड़े। वैसा स्वाद अन्यत्र नहीं मिला।
कपड़ाफाड़ होली की परंपरा
इलाहाबाद में कपड़ाफाड़ होली की अनोखी परंपरा है। लोकनाथ चौराहे पर लोग एक-दूसरे के कपड़े फाड़ते हैं। जो कपड़ा उतारने में ना-नुकुर करते हैं, पटक के उनके कपड़ों के चिथड़े करके बिजली के तारों पर लटका दिए जाते हैं। महान हस्ती छुन्नन गुरु एक बार वहां से केले का पत्ता लपेट घर लौटे थे। दारागंज में दमकल युद्ध होता है जहां दमकलों से, रंगों के साथ गुलाब की खुशबू और केवड़ा जल बरसाया जाता है।
इंदिरा जी की शादी का कार्ड
स्वतंत्रता सेनानी चन्द्रशेखर आजाद के सम्मान में आजाद पार्क में उनकी मूर्ति स्थापित है। इलाहाबाद संग्रहालय में आजाद की माउजर पिस्तौल भी रखी है। यहां भारद्वाज आश्रम है। इलाहाबाद का किला है जिसके अंदर 150 वर्ष से भी पुराना अक्षय वट है। खुसरो बाग, पब्लिक लाइब्रेरी, इलाहाबाद उच्च न्यायालय हैं। बंधवा वाले हनुमान- विश्व के एकमात्र लेटे हुए बजरंगबली हैं, करीब 150 साल पुराना यमुना पुल, कभी ‘ईस्ट का ऑक्सफोर्ड’ कहलाने वाला इलाहाबाद विश्वविद्यालय और ऐतिहासिक संग्रहालय स्वराज भवन जिसका मूल नाम ‘आनन्द भवन’ था। नेहरू जी के फूफाजी, लाड़ली प्रसाद, मेरे दादाजी के मित्र थे। इंदिरा गांधी के विवाह का निमंत्रण पत्र उन्होंने दादाजी को भी भेजा था। इंदिरा जी की शादी का वो कार्ड, खादी के बेहद सादे, क्रीम रंग के हस्तनिर्मित कागज से बना था। उसमें सुनहरी स्याही से समस्त कार्यक्रम अंकित था। मेरे दादाजी उस कार्ड को बड़े सम्हाल कर रखते थे।
वैचारिक सिद्धपीठ
सिविल लाइंस का कॉफी हाउस बौद्धिकता से ओतप्रोत, बुद्धिजीवियों का ऐसा अड्डा रहा है जो वैचारिक सिद्धपीठ कहलाने का हकदार है। यह महान राजनेताओं, बड़े साहित्यकारों की बैठकों और उन्मुक्त ठहाकों का साक्षी रहा है। यह भारत की सांस्कृतिक राजधानी है जहां हृदय में कविता स्वयमेव प्रस्फुटित होती है और लहू के साथ रगों में साहित्य बहता है। जहां स्वच्छंदता अबाध गति से बहती है। सदियों से समय की निरंतर मार पड़ने के बाद भी, बकौल सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - ‘भूधर ज्यों ध्यान मग्न है’ - इलाहाबाद का ध्यान अभी तक भंग नहीं हुआ है।
‘भौकालियों’ का शहर
निखालिस इलाहाबादी के लिए संजीदा होना बहुत मुश्किल है। ये अपनी बेबाकी, मस्ती, निठल्लेपन, हाजिरजवाबी और अलमस्त रहन-सहन के लिए विश्वप्रसिद्ध हैं। कितना भी मुश्किल दौर हो, अपने इष्ट पर अपनी श्रद्धा और दृढ़ विश्वास बनाए रखते हुए सभी सानंद रहते हैं। यहां अपनी अलग भाषा है - यहां धूप नहीं, घाम होता है, रुतबा नहीं, भौकाल चलता है। यहां कोई टॉयलेट नहीं, निपटने जाता है। यहां ओहहहह गॉड नहीं, ‘आई गजब’ बोला जाता है। यहां मजाक नहीं उड़ता, मजा लिया जाता है। यहां कभी सीवर ओवरफ्लो नहीं होता, नरिया बहता है। कहीं कट जाने पर लगाते बोरोलीन हैं क्योंकि कल्लाता डेटॉल है। यहां कपड़े धोते नहीं, कचरते या फींचते हैं। यहां मारा-पीटा नहीं जाता, हौंका जाता है। यहां बकवास नहीं, बकैती होती है। यहां कोई गुंडा नहीं होता, बदमाश या बाबा होता है। यहां मच्छर काटते नहीं, चांपते हैं। यहां शिकायत नहीं की जाती, पोंक दिया जाता है। यहां धमकी नहीं, अरदब दिया जाता है। यहां लड़ाइयां सुलझायी नहीं, सुल्टायी जाती हैं। इलाहाबाद की माटी और हवा का असर है कि यहां के बालक तक डरते नहीं, बल्कि अक्सर घुस के तमाशा देखने में विश्वास करते हैं। इसीलिए सब गर्व से कहते हैं कि हम इलाहाबादी हैं।
कलेक्टरी नाहीं तो करब खेती!
यहां के युवाओं में जिद रहती है कि ‘देब तो सिविल नाहीं तो करब खेती’ और पढ़ें चाहे ना पढ़ें, पर कलेक्टर का बंगला इनको चाहिए ही। ये एक ऐसा शहर है जो न हार मानता है न हार मानने देता है, और अनगिनत स्वप्नों को यथार्थ में फलीभूत करने में सहायक होता है।
(कवयित्री, काव्य संग्रह “सूर्य-रश्मियों के नारंगी पात” और “ख़ामोश चीख़ों का हलफ़नामा” की लेखिका)