अलबेला रसियों का अनूठा नगर
झुमरी। यह एक गांव है। तिलैया एक ताल। इस गांव और ताल के बीच जो है, वह है झारखंड का झुमरीतिलैया। कोई बड़ा शहर नहीं पर नाम का जलवा देश के कोने-कोने तक फैला रहा। पुराने जमानेवाले जानते हैं इस कस्बाई शहर का जलवा। रेडियो पर बिनाका, सिबाका गीतमाला या विविध भारती पर फरमाइशी गीतों की बात चलती है, तो झुमरीतिलैया स्मृतियों में अपार विस्तार लिए उभारता है। इतने किस्से जुड़े हैं इस शहर से कि किस किस्से को ज्यादा तवज्जो दी जाए, तय करना मुश्किल होता है। रेडियो पर फरमाइशी गीत सुननेवाले अनूठे दीवानों का शहर रहा है यह। रामेश्वर प्रसाद वर्णवाल और गंगा प्रसाद मगधिया, दो ऐसे रेडियो दीवाने हुए शहर में, जो अब दुनिया में नहीं हैं पर उनके रेडियो और फिल्म संगीत प्रेम का किस्सा यहां की गलियों में जिंदा है। किस्से दर किस्से, कहानियां दर कहानियां जुड़ी हुई हैं इस शहर से। इस झुमरीतिलैया को देश, दुनिया में लोकप्रियता मिली इन्हीं रेडियो प्रेमियों के कारण। यहां पुराने लोग मिल जाएं, तो वे हसीना मान जाएगी फिल्म का गीत गाकर सुनाते हैं, “मैं झुमरीतिलैया जाऊंगी, नत्थु तेरे कारण, मैं जोगन बन जाउंगी, नत्थु तेरे कारण...।”
फरमाइश का जुनून
सबसे रोचक होता है, रेडियो प्रेमियों की स्मृतियों और दस्तावेजों से गुजरना। हम गंगा प्रसाद मगधिया के घर जाते हैं। मगधिया अपने जमाने में रेडियो पर फरमाइशी सुनने के चर्चित रसिया थे। रेडियो सिलोन से लेकर विविध भारती तक में चर्चित नाम। घर में घुसते ही लगता है, यह किसी घनघोर संगीत रसिया का घर है। कुछ पुराने रेडियो छज्जे पर दिखते हैं। गट्ठर में पुराने कागजों के बंडल। बंडल में संगीत की दीवानगी की कहानी होती है। बंडल खुलता है, पैड नजर आता है, बारूद रेडियो श्रोता संघ, झुमरीतिलैया। तरह-तरह के प्रिंटेड पोस्टकार्ड गंगा प्रसाद मगधिया के नाम के। कुछ पोस्टकार्ड उनकी और पत्नी मालती देवी दोनों के नाम से। एक ओर प्रेषक का नाम पता प्रिंट होता और दूसरी ओर फरमाइशी गीत, फिल्म का नाम, गीतकार आदि। सिर्फ दो चार शब्द कलम से भरने होते थे। मगधिया की वह कॉपी दिखायी जाती है। मोटी-मोटी चार-पांच कॉपियां, जिनमें हिंदी सिनेमा के गीतों की डायरेक्ट्री होती है। गीतों के बोल, फिल्म का नाम, गीतकार, गायक आदि सब क्रमवार। पत्रिका दीपक भी मिलती है बंडल में, जो रेडियो श्रोता संघ की ओर से प्रकाशित होती थी।
झुमरीतिलैया से प्रेम कन्हैया!
लोग बताते हैं कि उस जमाने में विदेश में एक बार फरमाइश भेजने में 14 रुपये तक का खर्च आता था। 60 से 80 के दशक के बीच की बात है यह। पर यह काम जुनून की तरह था। जुनून था अपने कस्बेनुमा शहर को ख्याति दिलाने का। रेडियो सिलोन, रेडियो इंडोनेशिया, रेडियो अफगानिस्तान, विविध भारती में रोज अपना और अपने शहर का नाम सुनने का चस्का लगा था सबको। रेडियो श्रोताओं के कई गुट थे यहां, जिनके बीच अधिक से अधिक फरमाइश और अधिक से अधिक बार अपना नाम सुनने की होड़ चलती थी। कई तो ऐसे थे, जो टेलीग्राम भेजकर भी गीतों की फरमाइश करते थे और कई ऐसे जो डाकखाने से सेटिंग कर एक-दूसरे की फरमाइशी चिट्ठियों को गायब भी करवा देते थे ताकि दूसरे का नाम कम आए! एक दीवाने नंदलाल सिन्हा का किस्सा भी है। गीतों की दुनिया में ऐसे डूबे नंदलाल बाबू कि कैसेट की दुकान ही खोल ली। यहां हरेकृष्ण सिंह प्रेमी जैसे श्रोता भी थे, जो अपने नाम के साथ अपनी प्रेमिका प्रिया जैन का नाम भी लिखकर भेजते थे। पर फरमाइशी गीतों में लगातार फरमाइश करते रहने के बावजूद वे प्रेम में कामयाब नहीं हो सके थे।
एनडीए की नर्सरी
इसी झुमरीतिलैया के पास मशहूर सैनिक स्कूल है। 1962 में चीन से हार के बाद जब एनडीए की नर्सरी के रूप में सैनिक स्कूल की स्थापना की बात सोची गई, तो 1963 में एक सैनिक स्कूल खोलने के लिए झुमरीतिलैया के इलाके को भी चुना गया। पास ही ध्वजाधारी पहाड़ी है। 777 सीढ़ियां चढ़कर पहाड़ी पर पहुंचने के बाद हनुमानजी और शिवजी का मंदिर है। इन सबके बाद यह कस्बा तिलैया डैम के लिए मशहूर है। तिलैया बांध पर ही दामोदर घाटी निगम का बनाया गया बांध है। आजादी के बाद देश का पहला बांध, जिसे देश को समर्पित किया था देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने। 1200 फीट लंबा और 99 फीट ऊंचा बांध।
अबरक नहीं, सोने की खान
एक बड़ी पहचान अबरक के खदानों के लिए रही। 1890 में कोडरमा के आसपास रेल की पटरी बिछाने का काम शुरू हुआ। तब, अबरक की खानों का पता चला। फिर क्या था, एक से एक कंपनी अबरक के खनन के लिए आईं। सीएच प्राइवेट लिमिटेड, छोटू राम भदानी और होरिल राम भदानी जैसी कंपनियां सिरमौर बन गईं। उन्हें माइका किंग कहा जाता था। कहते हैं माइका से इतनी समृद्धि आई कि इस इलाके में 1960 के दशक में मर्सिडीज जैसी कारें दिखती थीं।
कलाकंद का स्वाद
झुमरीतिलैया का ही दावा है कि कलाकंद नाम की जिस मिठाई का जलवा देश के कोने-कोने में है, वह उनके ही शहर की खोज या देन है। दावा तो यहां तक है कि भले ही कलाकंद देश भर में अब बनता, मिलता हो पर यहां जैसा बनता है, उस स्वाद का मुकाबला किसी और के कलाकंद में नहीं। यकीन करने के लिए इसका स्वाद सिर्फ एक बार ही तो चखना है।
(गुरु घासीदास विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ में अध्यापन )