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5 अगस्त 2024 · AUG 05 , 2024

शहरनामा: कर्रा

मनोरम सुंदरता वाला आदिवासी क्षेत्र
यादों में शहर

नाम तो सुना नहीं होगा

कम ही लोग इस शहर के नाम से परिचित होंगे। यह झारखंड के खूंटी जिले का छोटा-सा कस्बा है। रांची से इसकी दूरी महज चालीस किलोमीटर के आसपास है लेकिन ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी सड़क के कारण रांची से यहां पहुंचने में एक घंटा से ज्यादा समय लग जाता है। दिलचस्प यह है कि झारखंड का प्रमुख पर्यटन स्थल नेतरहाट कर्रा ब्लॉक की एक पंचायत मात्र है। नेतरहाट का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत है और यहां की मनोरम पहाड़ियों के बीच लड़कों का प्रसिद्ध आवासीय विद्यालय है। इसमें दाखिले के लिए देश स्तर की परीक्षा पास करनी होती है। यही वजह है कि कर्रा नेतरहाट की छाया में दब-सा गया है।

मिशन स्वास्थ्य

कर्रा आदिवासी बहुल है इसलिए यहां सुविधाएं नाम मात्र की हैं। कुल आबादी का लगभग 75 प्रतिशत मुंडा आदिवासी यहां के मूल निवासी हैं। बाकी 25 प्रतिशत गैर-आदिवासियों को स्थानीय भाषा में दिकु बोला जाता है। झारखंड के अन्य पिछड़े क्षेत्रों की तरह कर्रा में भी मिशनरीज का असर है। यही वजह है कि यहां सरकारी के बजाय मिशनरी संचालित स्कूल और अस्पताल हैं, जो लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करते हैं। अब कुछ अन्य संस्थाएं भी सक्रिय हुई हैं, और यहां के लोगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।

मां मुरादे पूरी कर दे

जरियागढ़ पंचायत स्थित सोनमेर माता की बहुत प्रसिद्धि है। आदिवासियों के साथ दिकु भी उनमें बहुत आस्था रखते हैं। मान्यता है कि सोनमेर मां हर मनोकामना पूर्ण करती हैं। किंवदंती है कि मंदिर में स्थापित अष्टभुजा दुर्गा की प्रस्तर प्रतिमा स्वयं प्रकट हुई है। यहां पूजा के बाद मुर्गे और भैंसे की बलि चढ़ती है। लेकिन अन्य जगहों की तरह यहां बलि दुर्गा पूजा में न होकर पूर्णिमा के दिन दी जाती है। इसके पीछे भी एक रोचक कथा है। यह प्रथा जरियागढ़ के राजा ने चलाई थी। हुआ यूं कि एक साल दुर्गा पूजा के समय राजा के परिवार में किसी की मृत्यु हो गई। इस कारण छुतका हो गया था और बलि नहीं दी जा सकी। लेकिन संयोग से दुर्गा पूजा के पांच दिन बाद पूर्णिमा के दिन राजा के यहां लड़के का जन्म हुआ। उस दिन राजा ने बलि दी और तब से यहां पूर्णिमा के दिन बलि देने की प्रथा चल पड़ी।

सृष्टि और सिंगबोंगा

सरहुल का त्योहार यहां खूब धूमधाम से मनाया जाता है। हर समुदाय इसे मनाता है। यहां के मुंडा आदिवासियों के मुख्य देवता सिंगबोंगा हैं। अंग्रेजों ने सिंगबोंगा की पूजा को सूर्य की आराधना से जोड़ दिया, जबकि मुंडा आदिवासियों के लिए सिंगबोंगा समस्त सृष्टि का प्रतीक हैं। सिंगबोंगा के प्रतीक के तौर पर प्रस्तर शिला को सिंगबोंगा मानकर पूजा जाता है। सिंगबोंगा की पूजा करने वाले व्यक्ति शफ्फाक सफेद कपड़ों में होते हैं और पूजा में सफेद फूल ही चढ़ाए जाते हैं। साथ में सफेद मुर्गे की बलि दी जाती है। सिंगबोंगा के अलावा भी अलग-अलग गांवों के अलग-अलग ग्राम देवता होते हैं, जैसे- हातुबोंगा, देवी देशाउली, जाहर बोरी, चंडी बोंगा आदि।

बारिश के देवता

आदिवासियों की आजीविका खेती पर टिकी है। सो, अच्छी बारिश के लिए आदिवासी मंडा पूजा करते हैं। अच्छी वर्षा और फसल के लिए वैशाख पूर्णिमा की रात को यह पूजा की जाती है। इसमें भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए केवल घुटनों तक की एक सफेद लूंगी पहने ‘भगत’ नंगे बदन लोटते हुए शिव मंदिर तक जाते हैं। पूजा के बाद भगत जलते अंगारों पर नंगे पैर चलते हैं। कभी-कभी कुछ भक्त भी मुराद पूरी होने या इच्छा की कामना को लेकर आग पर चलते हैं।

अनोखी प्रथा गीतिओड़ा

शहरी समाज के लिए यहां के तौर-तरीके हर दिन नया अचरज लेकर आते हैं। समाज भले ही पुरुष प्रधान हो लेकिन शादी में लड़कियों को धन देकर घर लाया जाता है। इसके अलावा यहां एक और अच्छी प्रथा है। शादी लायक युवक-युवतियों को एक साथ एक हॉलनुमा जगह रखकर विवाह संबंधी जिम्मेदारियों और सेक्स की बुनियादी शिक्षा दी जाती है। इसे ही गीतिओड़ा कहते हैं।

माड-भात, मांदर और महुआ

उत्सव प्रिय आदिवासी रोज रात में सब कुछ भूलकर मांदर की थाप पर नाचते-गाते हैं। इसमें युवक युवतियां, बड़े बुजुर्ग सभी शामिल होते हैं। यहां के लोगों का मुख्य भोजन चावल है। माड- भात और जंगल में होने वाली शाक-सब्जियां ही उनके लिए सब तरह के व्यंजन हैं। चावल से ये अपना मुख्य पेय हड़िया बनाते हैं। हड़िया के मादक नशे में लिंग भेद नहीं है। स्‍त्री-पुरुष दोनों समान रूप से इसे पीते हैं। इसके साथ महुआ से भी शराब बनाई जाती है। दोनों ही चीजें छोटे पैमाने पर आदिवासी अपने घरों में ही बना लेते हैं। सीधे-सादे आदिवासी, पहनावे के मामले में कुछ अलग नहीं हैं। आजकल चलन में पैंट-शर्ट आ गए हैं। लेकिन कुछ समूह के पुरुष अब तक घुटने तक की लुंगी और कुर्ते जैसा वस्‍त्र पहनते हैं। इसे बटोई और करेया कहा जाता है। महिलाएं साड़ी को कई तरह से बांधती हैं। इसे परेया कहा जाता है।

वीणा वत्सल सिंह

(चर्चित उपन्यास बेगम हजरत महल की लेखिका)

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