समय ठहर कर कुछ कहता है
मध्य भारत की हृदय भूमि में एक नगर है सतना। यह नाम सिर्फ नक्शे पर नहीं, बल्कि सभ्यता की अंतर्ध्वनि है। यह नगर विंध्य की शांत चट्टानों पर टिका, तमसा या टोंस की लहरों में भीगता, इतिहास की छांव में लेटा हुआ है। तमसा मंदाकिनी की सहायक नदी है। सतना को सतही दृष्टि से देखा, तो केवल सीमेंट का शहर लगेगा, पर भीतर झांकें, तो यह मिट्टी की तरह कोमल और जीवंत है।
इतिहास की धूल में छिपा स्वर्ण
सतना का अतीत वह चुप रहस्य है, जो समय के पन्नों पर खुद को किसी ऋषि के मौन मंत्र की तरह बिखेरता है। भरहुत का स्तूप, जिसके भग्नावशेष आज कोलकाता के संग्रहालयों में हैं, सतना की संस्कृति का अजंता कहा जा सकता है। यहां कभी बौद्ध भिक्षु ध्यानस्थ होते थे, और विहारों में धम्म-वाणी गूंजा करती थी। रीवा रियासत के अधीन रहा यह क्षेत्र, बघेलों की शान और शौर्य का साक्षी बना। यहां की हवाओं में आल्हा-ऊदल की वीरगाथा आज भी तैरती है। यहां कभी घोड़े दौड़ते थे, पालकियां हिलती थीं और कवियों के कंठ से युद्ध और प्रेम दोनों भावनाओं की कविताएं जन्म लेती थीं।
नाम में बसी नदी की स्मृति
विंध्य की घाटियों से होकर एक छोटी-सी नदी बहती थी सतन। लोककथाओं के अनुसार, यह नदी चित्रकूट की पहाड़ियों से निकलती थी और तमसा नदी में मिल जाती थी। इस नदी के किनारे बसे गांव को पहले लोग ‘सतनवा’, ‘सतनाहा’ या ‘सतनकूट’ के नाम से पुकारते थे, जिसका अर्थ था ‘सतन नदी के पास बसा स्थान।’ कालांतर में गांव कस्बा बना, कस्बा नगर बना, तब नाम सतना बन गया। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि ‘सतना’ नाम ‘सप्तनदी’ या ‘सप्तनगरी’ से निकला है- यानी वह क्षेत्र जहां सात छोटी-छोटी नदियां बहती थीं- सतन, तमसा, सिमरौल, मंदाकिनी, सिलपरी, पयस्विनी और बेलन। धीरे-धीरे भाषायी सरलता के कारण यह ‘सप्तन’ से ‘सतन’ और फिर ‘सतना’ हो गया।
भूगोल की मूक भाषा
विंध्य पर्वतमालाओं की बाहों में समाया सतना, धरती की गहराई से सीमेंट नहीं, सभ्यता का आधार निकालता है। यहां की जलवायु जैसे मनुष्य की तरह है, गर्मियों में ज्वालामुखी, सर्दियों में हिम और बरसात में जीवनदायिनी। सोन, तमसा और मंदाकिनी- ये नदियां केवल जल नहीं, प्राचीन कथाओं की आवाजें हैं। चित्रकूट के जंगलों में आज भी राम-सीता के पदचिन्हों की कल्पना की जा सकती है।
धार्मिक चेतना का उजास
चित्रकूट, जहां श्रीराम ने वनवास के वर्ष बिताए, सतना की आत्मा है। यहां की सुबह, गंगा-आरती की घंटियों के साथ नहीं, मंदाकिनी के किनारे मौन साधना के साथ खुलती है। मैहर (अब यह स्वयं एक जिला है), मां शारदा का वह सिंहासन, जहां भक्त अपनी हर मनोकामना को पूरा करने आते हैं। प्रायश्चित के लिए, कष्ट हरने की आस लेकर, जीवन की बेहतरी की आशा के सपने लेकर।
स्वादों में बसी संस्कृति
यहां का खाना केवल भूख मिटाने का साधन नहीं, बल्कि स्मृतियों को संजोने का रस है। यहां की बाटी-चोखा, फरा और कढ़ी-चावल में मां के हाथों की सौंधी गंध है। पोहा और जलेबी के लिए भले ही इंदौर प्रसिद्ध हो लेकिन यहां भी स्वाद गजब का होता है। गुड़ की जलेबी जब गर्म तेल से निकलती है, तो लगता है कोई लोककथा गोल-गोल घूम रही है। त्योहारों पर गुझिया की मिठास, लपसी की गाढ़ी गंध और अनरसे का कुरकुरापन ये सब मिलकर सतना का स्वाद बढ़ाते हैं।
सादगी की कविता
यहां की जीवनशैली ऐसी है, जैसे सादगी पर सज्जनता की कसीदाकारी। गांवों में सुबह होते ही हल थामे किसान निकल पड़ते हैं और महिलाएं ओस में भीगी तुलसी पर जल चढ़ाकर दिन की शुरुआत करती हैं। शहरों में भले ही मॉल और मोबाइल आए हों, लेकिन लोगों की आत्मा अब भी मोहल्ले की चौपाल में बसती है। बच्चे अब भी आंगन में पिठ्ठू खेलते हैं।
उद्योग और श्रम की गाथा
सतना को ‘सीमेंट नगरी’ कहा जाता है, पर उसमें केवल पत्थर नहीं, श्रमिकों का पसीना और उनके स्वप्न भी गुंथे होते हैं। प्रिज्म, जेपी, बिरला जैसी फैक्ट्रियों के भीतर मशीनों की ध्वनि श्रम का संगीत रचती है। फिर भी खेती यहां की रीढ़ है। धान के खेतों में पानी लहराता है, तो किसी लोकगीत जैसा लगता है। सरसों के फूल खिलते हैं, तो किसी नवविवाहिता के शृंगार जैसे होते हैं।
शिक्षा, यात्रा और संवाद
सतना में शिक्षा ने गांव-गांव दीप जलाए हैं। इंजीनियरिंग, फार्मेसी, कला, विज्ञान सभी की राहें यहां से निकलती हैं। चित्रकूट का ग्रामोदय विश्वविद्यालय में बच्चे सिर्फ डिग्री नहीं, चरित्र भी बुनते हैं।
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता– सब से जुड़ा यह नगर, जैसे मध्य भारत की आवाज है।
संघर्ष और संभावनाएं
हर नगर की तरह सतना के हिस्से भी कुछ सवाल हैं, जल संकट, बेरोजगारी, प्रदूषण। लेकिन चित्रकूट को वैश्विक तीर्थ बनाया जाए, मैहर में पर्यटन बढ़ाया जाए और सतना को हरित उद्योगों की दिशा में मोड़ा जाए, तो यह भारत का सांस्कृतिक ही नहीं, आर्थिक मेरुदंड बन सकता है।
(लेखक और स्वतंत्र पत्रकार)