राजा विशाल का गढ़
ऐतिहासिक गाथाओं में वर्णित वैशाली भारत के प्राचीनतम नगरों में से है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, इक्ष्वाकु वंश के राजा विशाल ने इसकी स्थापना की थी, जिसके बाद इसका नामकरण वैशाली हो गया। जब भगवान राम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ मिथिला जा रहे थे, तो उनका स्वागत वैशाली की तत्कालीन साम्राज्ञी रानी सुमति ने किया था। वह राजा विशाल की दसवीं पुश्त थीं। वैशाली में आज भी राजा विशाल का गढ़ है, जहां उनके महल के अवशेष मौजूद हैं।
लोकतंत्र की जन्मभूमि
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वैशाली लिच्छवी गणराज्य की राजधानी थी। लिच्छ नामक महापुरुष के वंशज होने के कारण इसका नाम लिच्छवी पड़ा। माना जाता है कि विशेष प्रकार के चिह्न (लिक्ष) या शस्त्र धारण करने के कारण वह इस नाम से प्रसिद्ध हुए। लिच्छवी राजवंश नेपाल, मगध और कौशल तक था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में क्षत्रियों की इस शाखा का नाम ‘निच्छवि’ या ‘निच्छिवि’ मिलता है। पाली रूप ‘लिच्छवि’ है।
बुद्ध-महावीर की नगरी
वैशाली को जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मस्थली होने का गौरव प्राप्त है। इस नगर का भगवान बुद्ध तथा बौद्ध धर्म से भी घनिष्ठ संबंध रहा है। भगवान बुद्ध ने अनेक वर्षावास यहां व्यतीत किए तथा अंत में अपने निर्वाण की घोषणा भी वैशाली में ही की। भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित आठ अनोखी घटनाओं में से एक बंदरों द्वारा बुद्ध को ‘मधु’ भेंट करना यहीं घटित हुई। बुद्ध के पवित्र शारीरिक अवशेषों पर लिच्छवियों ने एक स्तूप का निर्माण किया। स्तूप के अवशेष आज भी हैं। वैशाली को द्वितीय बौद्ध संगीति के आयोजन स्थल का भी गौरव प्राप्त है। राजगीर में पहली संगीति के आयोजन के लगभग सौ साल बाद वैशाली में ही द्वितीय संगीति आयोजित की गई थी। यहीं ‘विनय पिटक’ और ‘सुत्त पिटक’ का विस्तार किया गया और ‘अभिधम्म पिटक’ का संकलन इसी संघ में क्रियान्वित किया गया। दूसरी बौद्ध संगीति में सात सौ लोगों ने भाग लिया था, इसलिए इसका नाम सप्तसतिका पड़ा। दूसरी बौद्ध संगीति को बुलाने का मुख्य कारण संघ के अनुशासन में ढिलाई को दूर करना था। अब महात्मा बुद्ध के अस्थि कलश को रखने के लिए संग्रहालय का एक भव्य भवन बनाया जा रहा है।
सम्राट अशोक का सिंह स्तंभ
कोल्हुआ ग्राम में मौर्य सम्राट अशोक ने बलुआ पत्थर का सिंह स्तंभ, जिसे अशोक स्तंभ के नाम से जाना जाता है तथा ईंट द्वारा निर्मित स्तूप का निर्माण कराया। उत्खनन के दौरान शुंग और कुषाण काल के अनेक संकलित एवं छोटे स्तूपों के अवशेष के साथ-साथ कुटागारशाला, संघाराम एवं बौद्ध साहित्य में वर्णित मरकटहृद के अवशेष भी यहीं प्राप्त हुए हैं। चौथी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ में लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी का विवाह गुप्त राजा चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ हुआ। कालांतर में गुप्त साम्राज्य के साथ ही वैशाली का भी वैभव समाप्त हो गया। इसकी भव्यता के अवशेषों का कुछ उल्लेख चीनी यात्री ह्वेन सांग ने भी किया है। चीनी यात्री के उल्लेख के बाद सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने 1861-62 में इसे प्राचीन वैशाली के रूप में पहचाना। टी. ब्लाच (1903-04 ईस्वी) तथा डी. बी. स्पूनर (1913-14 ईस्वी) द्वारा भी यहां उत्खनन किया गया।
नारी को समान अधिकार
यहां का पुरातत्व संग्रहालय भी बेहद खास है। इस संग्रहालय की स्थापना स्थानीय वैशाली संघ द्वारा संचालित संग्रहालय के विलय के साथ 1971 ई. में हुई। इसमें वैशाली के प्राचीन टीलों के उत्खनन तथा सतह से प्राप्त पुरावशेषों का संग्रह है। ये सभी पुरावशेष लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से बारहवीं शती ईस्वी के विस्तृत काल से संबंधित हैं। संग्रहालय में प्रस्तर प्रतिमाएं, मृणमय मानव और पशु-पक्षी की खिलौनानुमा आकृतियां, हाथी दांत, अस्थि तथा सीप से निर्मित वस्तु आभूषण, मुद्राएं, चांदी और कांसे के आहत सिक्के तथा कांस्य के ढले सिक्के प्रदर्शित किए गए हैं। यही नहीं, यहां पहली-दूसरी शताब्दी ईस्वी का टॉयलेट पैन भी मौजूद है जो प्रमाणित करता है कि यहां महिलाओं का संघ भी मौजूद था, साथ ही यह बताता है कि आज से लगभग दो हजार साल पहले भी हम स्वच्छता को लेकर संजीदा थे। इस पुरावशेष की पहचान शौचालय में प्रयोग होने वाले वस्तु के रूप में की गई थी, जो कोल्हुआ उत्खनन में एक संघाराम से प्राप्त हुआ था। इसी आधार पर इस संघाराम की पहचान स्त्रियों के संघाराम के रूप में की गई है। बौद्ध साहित्य के अनुसार जब भगवान बुद्ध वैशाली के कुटागारशाला में निवास कर रहे थे, तभी उनकी मौसी महाप्रजापति, जिन्होंने बालक सिद्धार्थ का लालन-पालन भी किया था, का आगमन हुआ। राजा शुद्धोधन की मृत्यु के बाद संतापग्रस्त महाप्रजापति गौतमी भगवान बुद्ध से मिलने पहुंची थी। आनंद के अनुरोध एवं काफी वाद-विवाद के उपरांत भगवान बुद्ध ने उन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध अपने 500 सहयोगियों के साथ संघ में प्रवेश का अनुमति देकर नारी को समानता का अधिकार प्रदान किया था। इसके बाद यहां की राजनर्तकी आम्रपाली को भी संघ में प्रवेश दिया गया। इस तरह वैशाली की नगरवधू भी इसी महिला संघ की सदस्य हो गई थी।
चीनिया केले की मिठास
यहां का चीनिया केला बहुत प्रसिद्ध है। पूरे देश में मिलने वाले छोटे पीले केले का जिक्र छठी शताब्दी में पहुंचे चीनी तीर्थयात्री ह्वेन सांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में भी किया है। उन्होंने लिखा है, “यहां की भूमि उपजाऊ है और यहां मोचे यानी केले की खेती बड़े पैमाने पर होती है।”
(‘बिहार के व्यंजन’ के लेखक)