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आवरण कथा/इंटरव्यू/शरणकुमार लिंबाले: “दलित साहित्य मानवाधिकारों का आंदोलन”

मराठी दलित साहित्य में दया पवार, नामदेव ढसाल और लक्ष्मण गायकवाड़ की तरह शरणकुमार लिंबाले राष्ट्रीय स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। पिछले दिनों उनकी रचना सनातन को प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा हुई, जिसमें 15 लाख रुपये की राशि मिलती है। वे यह सम्मान पाने वाले पहले दलित लेखक हैं। भारतीय भाषाओं के साहित्य जगत में इस निर्णय का भरपूर स्वागत हुआ है। लिंबाले की आत्मकथा अक्करमाशी हिंदी में काफी चर्चित रही है। उनसे अरविंद कुमार ने तमाम मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की। प्रमुख अंश:
शरणकुमार लिंबाले

लिंबाले जी आप इस पुरस्कार को किस रूप में देखते हैं? क्या यह भारत में दलित अस्मिता को साहित्यिक मान्यता है या फिर दलित वर्ग को अपनी धारा में मिलाने की सत्ता प्रतिष्ठान की कोशिश?

दलित लेखक की एक किताब को पुरस्कार मिलने से दलित अस्मिता को साहित्यिक मान्यता मिली, यह नहीं हो सकता। दलित अस्मिता दलितों की चेतना है। यह आत्मसम्मान के लिए संघर्ष करने वाली समूह चेतना है। मुझे पुरस्कार मिलने से दलित लेखक और दलित समाज को आनंद हुआ है। दलित लेखक के लेखन को प्रताडि़त किया गया। कहा गया कि दलित साहित्य गाली-गलौज करने वाला साहित्य है, यह प्रोपगंडा के लिए लिखा जा रहा है, इसमें तटस्थता नहीं, कला के लिए कला होनी चाहिए। ऐसी आलोचना हुई कि दलित लेखक को साहित्य लिखना नहीं आता, उसके लेखन में गुणवत्ता नहीं है। सरस्वती सम्मान मिलने से यह साबित हुआ कि दलित लेखक का लेखन श्रेष्ठ होता है। एक दलित को या उसकी एक किताब को सम्मानित करने से समूचा दलित वर्ग मुख्यधारा में आएगा, यह बात मुझे मंजूर नहीं। समूचा दलित वर्ग आत्मसम्मान और सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। मुझे लगता है कि उस दिशा में एक पहल हुई है। उसका स्वागत करना होगा।

आपको सनातन के लिए यह सम्मान मिला, जिसमें भीमा कोरेगांव का भी जिक्र है। इस उपन्यास से आप क्या संदेश देना चाहते हैं, खासकर जब भीमा कोरेगांव मामले में कई बुद्धिजीवी आज जेल में हैं?

मैंने स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा तक इतिहास की किताबें पढ़ी हैं। इस इतिहास में हम न के बराबर हैं। भारतीय इतिहास ने दलित और आदिवासियों को जगह नहीं दी। उनको नकारा गया है। उसका मैं पुरजोर विरोध करता हूं। मैंने दलित और आदिवासियों को नकारे गए इतिहास की ओर उंगली उठाई है। दलित और आदिवासियों ने संघर्ष किया है। इन समाजों में महापुरुष हुए हैं। भीमा कोरेगांव इस बात का प्रमाण है। भीमा कोरेगांव में अंग्रेज और पेशवा की फौज में युद्ध छिड़ा था। इस युद्ध में अंग्रेजों की ओर से महारों ने युद्ध किया था और पेशवा को हराया था। हिंदू व्यवस्था ने दलितों के हाथों में झाड़ू दी और अंग्रेजों ने बंदूक। दलित को अवसर मिल जाता है तो वह अपनी काबिलियत दिखा सकता है। यहां दलितों को बराबरी का अवसर नहीं दिया गया है। उनके शौर्य को नकारा गया है। इस बात की ओर मुझे पाठक वर्ग का ध्यान खींचना है।

1956 में 'दलित साहित्य' शब्द सामने आया और आपका जन्म भी उसी साल हुआ। इन 65 वर्षों में दलित साहित्य ने क्या दलितों की संपूर्ण पीड़ा को व्यक्त कर दिया? क्या भूमंडलीकरण और बाजार के युग में यह बढ़ नहीं गया है?

पिछले 65 साल से दलित साहित्य लिखा जा रहा है। तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़, गुजराती, बांग्ला, हिंदी और मराठी में अनेक किताबें प्रकाशित हुई हैं। जब तक समाज में छुआछूत है और दलित तथा आदिवासियों का दमन होता रहेगा, तब तक दलित साहित्य लिखा जाएगा। दलित साहित्य मानवाधिकारों के लिए आंदोलन है। आज भी दलितों पर अन्याय और अत्याचार होते हैं। इसके विरोध में दलित लिखता रहे। दलित लेखक का शब्द समाज को बदलने का हथियार है और समाज बदल रहा है। इसे नकारा नहीं जा सकता।

मराठी के कुछ दलित लेखकों की शिवसेना जैसे राजनीतिक दलों में आस्था रही, इस प्रवृत्ति के बारे में आप कुछ कहेंगे?

दलित नेता और कार्यकर्ता भाजपा और शिवसेना के साथ हैं, लेकिन ब्राह्मण समाज के व्यक्ति हर पार्टी में होते हैं, तब यह बात नहीं उठती है। नामदेव ढसाल और अर्जुन डांगले शिवसेना के साथ रहे हैं। रामदास आठवले भाजपा के साथ हैं। मैं इसे अलग नजरिए से देखता हूं। दलितों में दो गुट हैं। एक गुट हमेशा संघर्ष में रहता है। वह विरोध का स्वर बुलंद करता है। दलितों के प्रश्नों को लेकर संघर्ष करता है। दूसरा गुट सत्ता के साथ रहता है। सत्ता के साथ रह कर दलितों के प्रश्नों का हल ढूंढ़ता है। हमारे राष्ट्र में जनतंत्र है। सारे दलित एक ही पार्टी में रहें, ऐसा फरमान नहीं निकाल सकते। केवल दलितों को क्यों कठघरों में खड़े करते हैं? मुसलमान हर पार्टी में हैं। महिलाएं हर पार्टी में दिखाई देंगी। फिर दलित को लेकर क्यों आपत्ति है?

आपने करीब 40 पुस्तकें लिखीं, इस रचनाशीलता का प्रेरणास्रोत क्या है?

मैंने मराठी में करीब 40 किताबें लिखी हैं और मेरी किताबों का अनुवाद भी हुआ है। अनूदित किताबों की संख्या 53 है। मेरा साहित्य भारतीय और अंग्रेजी भाषा में भारी मात्रा में प्रकाशित हुआ है। लेखक का मन कुआं जैसा होता है। कुएं से आप पानी निकालते रहो। पानी भरता ही जाएगा। कुआं कभी खाली नहीं होगा। मैं दलितों के प्रश्नों को लेकर लिखता हूं। जब तक हमारे प्रश्नों का हल नहीं होता तब तक हमें लिखना होगा। दलितों के प्रश्न केवल दलितों के नहीं, ये इस राष्ट्र के प्रश्न हैं। दलितों, आदिवासियों के पीडि़त रहने से यह राष्ट्र महान नहीं बन सकता। समता और न्याय पर आधारित समाज का निर्माण हो, यह हमारा सपना है। यह सपना सच होने तक हमें लिखना होगा। यह एक लड़ाई है जो अधूरी छोड़ी नहीं जा सकती।

हिंदी दलित साहित्य के बारे में आपकी राय क्या है, खासकर मराठी दलित आंदोलन को देखते हुए। हिंदी के किस दलित लेखक का लेखन आपको पसंद है?

मराठी दलित साहित्य विद्रोही तेवर का है। दलित लेखक आंदोलन से लगाव रखता है। वह इनमें कार्यकर्ता के रूप में लिखता है। हिंदी दलित साहित्य में भी समाज परिवर्तन की भाषा व्यक्त हुई है, लेकिन हिंदी दलित साहित्य का स्वरूप आंदोलन जैसा नहीं है। फुले और आंबेडकर के कारण मराठी में भूचाल आया है। हिंदी में भी कुछ कबीर और काशीराम जी का प्रभाव दिखाई देता है। मराठी दलित साहित्य विद्रोह और आक्रामक तेवर के कारण चर्चित हुआ है। धर्मबीर और कंवल भारती ने बहुत अच्छा लेखन किया है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीरामजी और अजय नवरिया के लेखन की हमेशा बात होती है। हिंदी  दलित साहित्य को आगे ले जाने में सोहनलाल सुमनाक्षर का काम बहुत प्रशंसनीय है। जयप्रकाश कर्दम और नेमिसराय ने अपनी पत्रिका में दलित साहित्य को बड़े पैमाने पर प्रकाशित किया है। श्योराज सिंह बेचैन और बलबीर माधोपुरी अच्छे दलित लेखक हैं। हिंदी राष्ट्रभाषा है। इसमें विपुल प्रकार दलित साहित्य लिखा जा रहा है। लेकिन इस लेखन का उतना स्वागत नहीं हुआ है। मराठी में प्रगतिशील समाज के लोगों ने दलित साहित्य का स्वागत किया। इसी कारण यहां दलित साहित्य के विकास लिए पृष्ठभूमि निर्माण हुई। हिंदी पत्रिका हंस और युद्धरत आम आदमी ने हिंदी दलित लेखकों का पक्ष लिया है। विमल ठोरात ने अस्मिता नामक पत्रिका निकाली है। यह पत्रिका महत्वपूर्ण है।

मराठी दलित साहित्य विद्रोही तेवर का है। हिंदी दलित साहित्य में भी समाज परिवर्तन की भाषा व्यक्त हुई है, लेकिन इसका स्वरूप आंदोलन जैसा नहीं

आपने एक इंटरव्यू में कहा था, मैंने प्रेम कविताएं लिखनी छोड़ दी? आखिर ऐसा क्यों?

प्रेम हमारी प्राथमिकता नहीं है। संघर्ष हमारी मूल भावना है। दलितों ने कभी प्रेम नहीं किया। उन्होंने संघर्ष और आंदोलन से प्रेम किया है। हमें प्रेम के बजाय अस्मिता महत्व की लगती है। हमने कभी प्रेम नहीं किया। काल्पनिक प्रेम कविता और कहानी लिखना मुझे बेकार की बात लगती है। दलितों पर अन्याय हो रहे हैं और प्रेम कहानी में कैसे मजे ले सकते हैं! हम प्रेम पर लिखेंगे, तो वह अपराध होगा। हजारों साल में हमारे बारे में किसी ने लिखा नहीं है, इसलिए हमें लिखना होगा। यह हमारी प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी है। इससे हम मुकर नहीं सकते। मैं भी सुंदर चेहरा देखकर मोहित होता हूं। मुझे अच्छी कला देखकर आनंद होता है। मैं कोई रोबो नहीं हूं।

आपने दलितों का सौंदर्य शास्त्र किताब लिखी है, यह सौंदर्य कैसे अलग है?

भारतीय साहित्य का सौंदर्यशास्त्र संस्कृत और विदेशी भाषाओं से प्रेरित हुआ है। यह सौंदर्यशास्त्र कला मूल्यों को तवज्जो देता है। कला का धर्म आनंद देना होता है, यह भूमिका इस सौंदर्यशास्त्र की है। यह सौंदर्यशास्त्र दलित साहित्य को साहित्य ही नहीं मानता। दलित साहित्य का निर्माण आनंद के लिए नहीं हो रहा है। दलितों का आक्रोश पढ़कर किसे आनंद होगा। दलित साहित्य समझने के लिए सौंदर्यशास्त्र की जरूरत नहीं। जाति व्यवस्था को समझना होगा। जाति व्यवस्था को समझे बिना दलित साहित्य को समझ नहीं सकते। दलित साहित्य में प्रमुख भावना ‘आनंद’ नहीं है। ‘स्वतंत्रता’ प्रमुख स्वर है। गुलामी से लड़ रहा व्यक्ति आनंद नहीं चाहता, मुक्ति चाहता है। आनंद के लिए क्रांति नहीं होती। आनंद के लिए कोई सूली पर नहीं चढ़ता। आजादी के लिए कुर्बानी दी जाती है। दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र ‘आजादी’ की भावना पर टिका है। इसलिए वह अलग है।

इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं और भविष्य में क्या योजना है?

हाल ही में मेरा ‘रामराज्य’ नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ है। इसका हिंदी अनुवाद एक-दो माह में पूरा होगा। 1920 से लेकर 1956 तक के काल पर आधारित उपन्यास लिखने की सोच रहा हूं। मुझे पता नहीं, यह कब और कैसे पूरा होगा।

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