मेरा ट्रांस समाज ही मेरा सब कुछ है
नव्या सिंह, अभिनेत्री, मॉडल, डांसर और मिस ट्रांसक्वीन इंडिया ब्यूटी पेजेंट की ब्रांड एंबेसडर
मैं बिहार के छोटे से जिले कटिहार में पैदा हुई। मैं गलत शरीर लेकर पैदा हो गई हूं यह मुझे तब पता चला जब मेरी उम्र 12 साल हो चुकी थी। थोड़ा बड़े होते ही जो प्यार मुझे बचपन में मिल रहा था वह खत्म होने लगा और प्यार की जगह हिकारत, मजाक, छेड़खानी ने ले ली। बचपन से ही मैं सभी काम लड़कों की तरह करती थी। राह चलते लोग मुझे हिजड़ा कहकर चिढ़ाते थे। 16 साल की उम्र में मेरे दोस्तों ने मेरा सिर्फ इसलिए यौन शोषण किया ताकि मुझे एहसास दिला सकें कि मैं लड़का हूं।
शोषण के बाद भी मैं चुप रही। एक दिन मैंने कहीं पढ़ा कि एक लड़का अपना शरीर बदल कर लड़की हो गया। खबर पढ़ते ही मुझे पता लग गया कि मेरी दिक्कत क्या है। मैंने अपने मां-पिता से कहा कि मैं अब इस शरीर में नहीं रह सकती। जमींदार पिता के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था। लोग कहते थे कि मुझ पर 'भूत' सवार हो गया है और मुझे झाड़-फूंक की जरूरत है।
सर्जरी कराना आसान नहीं था। फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी। जद्दोजहद के बाद घरवाले 18 की उम्र में मुझे मौसी के पास मुंबई भेजने के लिए तैयार हो गए। जो बात मेरे घरवालों को 18 साल समझ नहीं आई, वह बात मौसी समझ गईं। मौसी मुझे मनोचिकित्सक के पास ले गईं। काउंसलिंग के बाद डॉक्टर ने कहा कि मैं 'जेंडर डिस्फोरिया' से जूझ रही हूं और मुझे सर्जरी की जरूरत है। मैंने मां-पिता को मुंबई आने के लिए कहा। लेकिन वे नहीं आए। एक तरफ मेरी जिंदगी बदलने वाली थी, दूसरी तरफ माता-पिता साथ नहीं थे। जीवन की सबसे कठिन लड़ाई मैंने अकेले ही लड़ी और सफल हुई।
मुंबई में ही मेरा ट्रांजीशन शुरू हुआ। सोचती थी सर्जरी के बाद जीवन पटरी पर लौट आएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चीजें और मुश्किल लगने लगीं। मौसी को ताने मिलने लगे कि मेरी वजह से बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ रहा है। सोसाइटी के दबाव में मुझे मौसी का घर छोड़ना पड़ा। मेरे पास दूसरा कोई ठिकाना नहीं था। मैं फिर उसी भयावह अंधेरे में घुसने ही वाली थी कि मेरी मुलाकात ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट अभिना अहेर से हुई। जब तथाकथित पुरुषों और महिलाओं के समाज ने मुझे दुत्कारा तब ट्रांसजेंडर समाज ने मुझे अपनाया। मैंने इन्हीं लोगों के साथ रहना शुरू कर दिया। आज मैं जिस मुकाम पर हूं उसमें इन लोगों का बहुत योगदान है। बॉलीवुड में भी मुझे रोज अपमान मिलता है। हालांकि अब मुझे इसका दुख नहीं होता। अब 'ट्रांस' समाज के लिए मुझे कुछ करना है।
बॉलीवुड से मेरा अनुरोध है कि किसी 'ट्रांस' व्यक्ति का रोल पुरुष या महिला के बजाय 'ट्रांस' को ही दें। उन्हें भी काम करने और प्रतिभा दिखाने का हक है। ये लोग भी अच्छी एक्टिंग कर सकते हैं। इसके बावजूद मैं कहूंगी कि समाज में चीजें बहुत बदली हैं। आइपीसी की धारा 377 हटने के बाद असल मायने में हमारा पुनर्जन्म हुआ है और हमें एक नई पहचान मिली है। ओटीटी के आ जाने से सिनेमा में भी बदलाव देखने को मिल रहा है लेकिन अब भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। समाज उस दिन पूरी तरह बदलेगा जिस दिन लोग हमसे हमारी पहचान पूछना बंद कर देंगे।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
ट्रांस भी इन्सान हैं...
आर्यन पाशा, देश के पहले ट्रांसमैन बॉडी बिल्डर
मेरी उम्र 6 साल की थी, जब मैंने लड़कियों के कपड़े पहन कर स्कूल जाने से मना कर दिया था। मैं अड़ियल बच्चा था इसलिए मेरे पिता ने मेरी बात मान ली और मेरा दाखिला दूसरे स्कूल में करा दिया, जहां मुझे कोई नहीं जानता था। मैं लड़के की तरह कपड़े पहन कर जाता था इसलिए अधिकतर लोग नहीं जानते कि मैं लड़की हूं।
मैं बचपन से हमेशा अकेला रहा हूं। ममत्व और प्यार मुझे कभी नहीं मिला। जब मैं 6 साल का था, तब मेरे माता-पिता का तलाक हो गया। बाद में पापा ने दूसरी शादी कर ली। उसके बाद 10 साल मैं चाचा और चाची के यहां रहा। 16 साल की उम्र में मैं अपने पिता के घर गया। एक दिन मैं शीशे के सामने खड़ा होकर रो रहा था। मेरी सौतेली मां ने मुझे रोते देख कारण पूछा। उस दिन मैंने पहली बार किसी को बताया कि मैं लड़का नहीं हूं। मैं खुशनसीब था कि घरवालों ने मुझे हमेशा सपोर्ट किया। 18 की उम्र में मेरा ट्रांजीशन हुआ और मुझे मेरे सपनों का शरीर मिल गया।
भारत में ट्रांसवीमेन, लेस्बियन और गे के बारे में सभी लोगों को पता है लेकिन ट्रांसमैन को कोई नहीं जानता। 6 साल पहले जब मैंने ट्रांसजेंडर एक्टिविज्म शुरू किया तो देखा जो लोग ट्रांसजेंडर समुदाय के समर्थन में नारे लगाते थे, वे भी ट्रांसमैन के बारे में कुछ नहीं जानते। लेकिन अब समाज में जागरूकता आ रही है। पहले ट्रांसजेंडर के लिए कैसे पॉलिसी बनेगी या पॉलिसी कैसी होगी इस पर बात होती थी, लेकिन उन पर अमल नहीं होता था। अब चीजें अब बदल गई हैं। अब कई ऐसी नीतियां मौजूद हैं, जो ट्रांस लोगों को फायदा देती हैं।
समाज को बदलने के लिए एडवोकेसी की जरूरत है। अगर कोई ट्रांस पुलिस में शिकायत करने जाता है, तो वे उसे सेक्स वर्कर के रूप में ही देखते हैं। समाज के लोगों से मैं यही कहना चाहूंगा कि अपने ट्रांस बच्चे से प्यार करें और उनकी भावनाओं को आहत न करें। वे भी इंसान ही हैं और उनका भी दिल धड़कता है।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
मिस के बजाय डॉक्टर लगाने की जिद
अनमोल सिंह, स्वास्थ्य विशेषज्ञ
मैं मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुआ। मेरी मां मुझे लड़कों और लड़कियों दोनों के कपड़े पहनाती थीं। कुछ समय बाद मैं जिद करने लगा कि मुझे सिर्फ लड़कों जैसे कपड़े पहनने हैं। धीरे-धीरे मेरे प्रति उनका रवैया बदलने लगा। मैं जब 12 साल का था तब मैंने रिसर्च करना शुरू किया कि आखिर मैं क्या हूं। लड़कियों की ओर आकर्षण के कारण मुझे लगा मैं लेस्बियन हूं। इंटरनेट पर जब लेस्बियन के बारे में पढ़ा तो लगा मैं यह नहीं हूं। काफी सोचने के बाद मैं नतीजे पर पहुंचा कि मैं ट्रांस हूं। मैंने घरवालों को बताया तो उनकी पहली प्रतिक्रिया थी, तुम्हें क्या हुआ है? क्या तुम पागल हो?
मैंने ठान लिया कि मुझे इस देश में नहीं रहना है। लेकिन आर्थिक परिस्थितियों के कारण मुझे अपनी बैचलर्स डिग्री तक विदेश जाने का मौका नहीं मिल पाया। एक दिन मेरी बहन ने मजाक में कहा कि मैं डॉक्टर बन जाऊं ताकि मेरे नाम के आगे से मिस की जगह डॉक्टर लग जाए। मेडिकल में एडमिशन लेने से पहले मुझे लगता था कि डॉक्टर समाज का एलीट और शिक्षित वर्ग है। लेकिन वहां मैंने सबसे ज्यादा क्रूरता देखी। शिक्षक भरी क्लास में मुझे जलील करने लगे और मैं पूरे कॉलेज का गॉसिप मैटेरियल बन गया। जैसे-तैसे मैंने पढ़ाई पूरी की और स्कॉटलैंड चला गया। मुझे लगता है मैंने अपने जीवन की सुकून भरी पहली सांस देश के बाहर ही ली। वहां मुझे पहली बार कम्युनिटी बिल्डिंग का महत्व पता चला और उस दिन मैंने ठान लिया कि मैं इंडिया आऊंगा और अपने लोगों के लिए काम शुरू करूंगा।
पिछले 6 साल से मैं एक पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट के नाते, कैंसर और मेंटल हेल्थ पर कार्य कर रहा हूं। एक ट्रांसमैन होने के नाते मैं जानता हूं कि सर्जरी में लाखों का खर्च आता है और जिस समुदाय के अधिकतर लोग भीख मांगने और सेक्स वर्क करके एक वक्त की रोटी जुटा रहे हो॒ं, उनके लिए सर्जरी कराना असंभव है। सरकार अगर इसके लिए वित्तीय मदद देने लगे तो इस तरह के आधे लोगों की समस्याएं खत्म हो जाएंगी।
देश में कितने ट्रांसजेंडर हैं सरकार के पास इसका सही आंकड़ा भी नहीं है। पश्चिमी देशों में सौ में से एक व्यक्ति ट्रांस है। अगर इस आंकड़े के आस-पास भी भारत में ट्रांस लोग होंगे तो सोचिए हमारा समुदाय कितना बड़ा है और कितने लोग रोजाना घुट-घुट कर मर रहे हैं। सरकार मदद देने लगे, तो इस समुदाय में भी खुशहाली आ जाएगी।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
निडर फैसले ने मुकाम दिलाया
हैरी एडम, पायलट का लाइसेंस प्राप्त करने वाले पहले ट्रांसजेंडर
उन दिनों मैं बिलकुल अकेला था। वे दिन आज भी मेरे लिए किसी दुःस्वप्न की तरह हैं। स्कूल का ऐसा एक भी अच्छा दिन याद नहीं जिसे मैं स्मृति में संजो सकूं। अब भले ही मैं देश का पहला प्राइवेट लाइसेंस प्राप्त ट्रांसजेंडर पायलट हूं लेकिन बचपन में मैंने बहुत प्रताड़ना सही है। हमारे समाज में प्रचलन है कि लड़कियों को बचपन में खेलने के लिए गुड्डे-गुड़िया दिए जाते हैं। लेकिन बचपन से मैं कार, एरोप्लेन से खेलता था। उस वक्त खेल-खेल में मैंने पायलट बनने का जो सपना देखा था वह आज पूरा हो सका है।
2014 की बात है, मैं डेक्कन क्रॉनिकल में एक रिपोर्ट पढ़ रहा था। उसमें मैंने अलग-अलग लोगों की कहानियां पढ़ीं और वहीं से मुझे खुद की आइडेंटिटी पर पहली बार संदेह हुआ। 13 साल की उम्र में मुझे पता चला कि मैं 'ट्रांस' हूं। मैं सपना देखने लगा कि एक दिन ऐसा जरूर आएगा, जब मुझे वैसा शरीर मिलेगा जैसा मैं चाहता हूं।
माता-पिता के सामने पहली बार मैंने अपनी पहचान का खुलासा 12वीं कक्षा में किया। वे मुझे इलाज कराने ले गए क्योंकि उन्हें लगता था कि यह सब ठीक किया जा सकता है। इलाज के दौरान मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से इतना प्रताड़ित किया गया कि मैंने खौफ में माता-पिता को कह दिया कि आज के बाद मैं कोई उल्टी-सीधी हरकत नहीं करूंगा। मेरा मकसद उन्हें ठेस पहुंचाना नहीं था। वे लोग मान गए और उन्होंने मुझे पायलट प्रशिक्षण ट्रेनिंग के लिए दक्षिण अफ्रीका भेज दिया।
दक्षिण अफ्रीका जाकर मैं समझा कि मुझे जीवन में क्या चाहिए। जिस पहचान को मैं अब तक छुपाता फिर रहा था उसे मैंने सोशल मीडिया के जरिए सार्वजनिक कर दिया। उस निडर फैसले ने मुझे उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां आज मैं हूं। एक वक्त था जब केरल में मेरे गृह जिले में ट्रांसजेंडर होने की वजह से कई लोगों के साथ हिंसा हुई और वे डर से केरल छोड़ गए थे। नालसा जजमेंट आने से पहले ही 2014 में केरल में ट्रांसजेंडर नीति थी। इसके तहत राज्य सरकार ट्रांसजेंडर के लिए कॉलेजों में रिजर्वेशन और आर्थिक रूप से कमजोर ट्रांस के लिए छात्रवृत्ति प्रदान कर रही है। केरल सरकार ट्रांस लोगों की सर्जरी के लिए पैसा और घर भी मुहैया करा रही है। मैं चाहता हूं कि पूरे देश में ऐसी नीति लागू हो।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
आत्मा को पाने का संघर्ष
मोहुल शर्मा, होटल 'द ललित' में एफ ऐंड बी एसोसिएट
जिंदगी के कई साल मैंने लड़की बनकर जिए। किसी लड़की को समाज में क्या-क्या सुनना पड़ता है और उसके डर क्या होते हैं यह मैं जानता हूं। लेकिन मैं लड़की नहीं था, मेरी आत्मा पुरुष की थी और मेरे जीवन के सारे संघर्ष इसी आत्मा को पाने के लिए हुए। एक उम्र के बाद आपके शरीर के अंदर कई तरह के आंतरिक बदलाव होते हैं। मेरे अंदर जब हार्मोनल बदलाव होने लगे, तब मुझे पता चला कि मैं बाकी लड़कियों की तरह नहीं हूं। मैं दसवीं में था और उस वक्त क्लास की लड़कियां लड़कों की तरफ आकर्षित होती थीं लेकिन मैंने कभी ऐसा कोई आकर्षण महसूस नहीं किया। मेरे अंदर एक लड़का था और मैं इस बात से अनभिज्ञ था। लेकिन इतना मुझे पता था कि मेरे अंदर सब-कुछ सामान्य नहीं है।
लड़की के शरीर में लड़के को लेकर चलना मुश्किल होता है। मैंने कई साल ऐसा किया है। स्कूल जाता था तो टीचर्स डांटते थे। कई बार मानसिक शोषण हुआ। स्कूल वाले पिता जी को बुला कर कहते थे, इसके बाल लड़कियों जैसे कटवाइए। जॉब के लिए अप्लाई करता तो मेरी पहचान की वजह से मुझे रिजेक्शन मिलते। लोग कहते थे आप लड़की हैं मगर आवाज लड़कों जैसी है। कुछ बोलते थे कि यह काम 'हिजड़ों' के लिए नहीं है।
मैं जब 10 साल का था तब मेरे माता-पिता के बीच तलाक हो गया। मेरा एक भाई है, जिसकी उम्र तलाक के वक्त मात्र एक साल थी। मां ने दूसरी शादी कर ली और मैं पिता के साथ रहने लगा था। एक दिन मैं 'सत्यमेव जयते' देख रहा था। उसमें गजल धालीवाल को देखकर लगा, मेरे जैसे और भी लोग इस दुनिया में हैं। यहीं से मुझे 'ट्रांजीशन' शब्द के बारे में पता चला। मैंने पापा को यह शो दिखाया और ट्रांजीशन के बारे में बताया। पापा इसके लिए तैयार नहीं थे लेकिन जुलाई 2017 में वह एक शर्त पर ट्रांजीशन के लिए मान गए कि इसके बाद शुरुआती 6 महीने तक मैं किसी से नहीं मिलूंगा। मेरा ट्रांजीशन हुआ और पापा का व्यवहार मेरे प्रति बदलने लगा था। लेकिन यह खुशी ज्यादा देर नहीं टिक सकी। पापा का एक्सीडेंट हो गया और मेरा सब कुछ बिखर गया।
समाज में थोड़ा बदलाव तो आया है। पहले मैं कहीं 'गे' की तरह काम नहीं कर सकता था। पुलिस भी उनके साथ ज्यादती करती थी लेकिन इसमें काफी हद तक कमी आई है। हालांकि अभी भी बहुत कुछ है जिस पर सरकार को ध्यान देने की जरूरत है। मैं चाहता हूं कि सरकार स्कूली स्तर पर बच्चों और शिक्षकों को जागरूक करे क्योंकि यहीं से अगली पीढ़ी का निर्माण होता है और हम नहीं चाहते कि आज से 40-50 साल बाद भी हमारी परेशानियां, पीड़ाएं वैसी ही रहें जैसी अभी हैं। अपने समुदाय के लोगों से मेरा यही अनुरोध रहता है कि ये लोग पढ़ाई पर ध्यान दें और हिम्मत न हारें।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
सौभाग्य हमेशा नहींसोता रहता
अभिना अहेर, ट्रांसजेंडर समूह के डांसिंग ग्रुप डांसिंग क्वींस की संस्थापक। फिलहाल, आइ-टेक इंडिया (की पॉप्यूलेशन), में तकनीकी विशेषज्ञ
मैं मुंबई, महाराष्ट्र में पली-बढ़ी हूं और मुझे बचपन से नृत्य का शौक था। मेरे पिता तबला वादक थे और मां थियेटर में काम करती थीं। इसलिए स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर यह गुण आया। मैं बचपन से सभी काम लड़कियों की तरह करती थी क्योंकि मेरे पुरुष शरीर के अंदर लड़की छिपी हुई थी। मेरी हरकतों को देखकर लोग मुझे 'हिजड़ा' कहने लगे। रिश्तेदार मां से कहने लगे कि इसे किन्नर समाज में दे दो। मेरे साथ स्कूल में भेदभाव होने लगा और मैंने क्लास में लड़के या लड़कियों के साथ न बैठकर अलग बैठना शुरू कर दिया।
अब तक मुझे समझ आने लगा था कि मेरे अंदर कुछ ऐसा है, जो असामान्य है। मेरे साथ की सभी लड़कियां सुंदर होती जा रही थीं और मेरा चेहरा कोमल के बजाय सख्त होता जा रहा था। मैं 'बदसूरत' होती जा रही थी और मेरे हाथों पर बाल उगने लगे थे। एक वक्त ऐसा आया कि मैंने आईने में चेहरा देखना तक छोड़ दिया। बाजार जाने पर लोग मेरे ऊपर पत्थर फेंकते थे और मां को बुरा-भला कहते थे। मेरे अंदर 'सेल्फ हेट' इतना बढ़ चुका था कि आत्महत्या करने के लिए पंखे पर फंदा तक डाल दिया था। लेकिन सीलिंग कमजोर थी और मेरे वजन से टूट गई। मैं बच गई। दूसरी बार मैंने ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या के बारे में सोची लेकिन ट्रेन के आगे कूदने की हिम्मत न जुटा सकी।
मैं अंदर से टूट चुकी थी। तब मैंने सोचा कि मैं अपनी मां को लेकर अमेरिका चली जाऊंगी क्योंकि मुझे पता था वहां का समाज हमें हिकारत भरी नजरों से नहीं देखेगा। यह वह समय था जब लोग कंप्यूटर के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानते। तब मैं सॉफ्टवेयर की बारीकियां समझती थी। मैं मुंबई में एक कंप्यूटर संस्थान में पढ़ाने लगी। शुरुआती एक हफ्ता सब कुछ ठीक रहा लेकिन जैसे ही मेरी पहचान के बारे में वहां के लोगों और छात्रों को पता चला, उनका व्यवहार बदल गया। मैं क्लास में जाती थी तो पाती कि बोर्ड पर हिजड़ा, छक्का, गुड़, मामू जैसे शब्द लिखे हुए हैं। कुछ छात्रों ने विरोध किया और कहा कि वे मुझसे नहीं पढ़ेंगे क्योंकि मैं हिजड़ा हूं।
इन त्रासद परिस्तिथियों से गुजरने के बाद जितनी जल्दी हो सके मैं खुद की पहचान बदल देना चाहती थी। मेरा पुरुष शरीर अब मुझसे सहन नहीं हो रहा था। खुद को बदलने के लिए अपने मन से ही इंजेक्शन के जरिये आर्टिफिशियल हॉरमोन लेने शुरू किए। उस वजह से कितनी ही नसें हैं, जो आज भी काम नहीं करती हैं। एक दिन बाजार में मैंने पत्रिका देखी, जिसमें दो मर्द एक दूसरे को चुंबन दे रहे थे। सुलभ शौचालय में छुपकर मैंने यह पत्रिका पढ़ी। उसी पत्रिका से मुझे ट्रांजिशन के बारे में पता चला। उसी वक्त मैंने तय कर लिया कि मुझे सर्जरी करानी है। लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे और घर में मैं इकलौती कमाने वाली सदस्य थी। मैंने कई जगह नौकरी के लिए आवेदन किया लेकिन कोई मुझे नौकरी नहीं देता था। मजबूरी में मैंने सेक्स वर्कर का काम शुरू किया। पूरे घर को खाना खिलाने के लिए बहुत से पैसों की जरूरत थी। उस वक्त मैं एक व्यक्ति से 50 रुपये लेती थी और राशन खरीदने के लिए मुझे 11 लोगों से संबंध बनाने पड़ते थे।
जीवन धीमी गति से ऐसे ही गुजर रहा था। लेकिन कहते हैं न कि किसी का भी सौभाग्य हमेशा सोया नहीं रहता। मुझे अच्छी अंग्रेजी आती थी और मेरे पास कंप्यूटर की डिग्री थी। यह बात जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के कुछ लोगों को पता चली, तो उन्होंने मुझे वहां आकर शोध करने का न्योता दिया। वहां जाकर मेरी जिंदगी बदल गई। वहां जाकर मुझे लगा कि इस देश में आकर मुझे अपने समाज के लिए कोई कार्य करना चाहिए और उसके बाद से ही मैं एक्टिविज्म की तरफ मुड़ गई। मेरे समुदाय में 5 फीसदी लोग एचआइवी पीड़ित हैं और अधिकतर सेक्स से जुड़ी किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं। अब मैं ऐसे ही लोगों के लिए काम करती हूं। मैं पिछले दो दशक से एचआइवी/एड्स पीड़ितों के लिए काम कर रही हूं। कई जगह हम स्वास्थ्य शिविर लगाते हैं। हमने पहला ट्रांसजेंडर डांस ग्रुप बनाया और इसके जरिये भी हम एडवोकेसी करते हैं। मैं चाहती हूं कि मेरे समुदाय को मूलभूत अधिकार मिले। अभी हमें अपने माता-पिता की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिलता। हम चाहते हैं कि हमें बराबरी का हिस्सेदार समझा जाए। इसके अलावा, हम सरकार से अपने लिए एक सख्त ट्रांसजेडर लॉ की मांग भी करते हैं।
- राजीव नयन चतुर्वेदी
जीने की जिद से बदली अपनी दुनिया
अमृता अल्पेश सोनी, सरकारी सेवा में पहली ट्रांसजेंडर
मेरा जन्म महाराष्ट्र के शोलापुर में एक कैथोलिक परिवार में हुआ था। पिता अधिकारी थे और मां सरकारी अस्पाताल में हेड मेट्रन। माता-पिता ने मेरा नाम पॉल जेवियर था। लगभग दस साल की उम्र में ही मेरी कमर में लचक आने लगी थी। लोग मुझे मामू, छक्का, हिजड़ा जैसे संबोधन से पुकारने लगे। सिर्फ एक मां ही थी जो मेरा साथ दे रही थी। मेरे ट्रांसजेंडर होने के कारण माता-पिता में तलाक हो गया था।
मैं इंटरनेशनल स्विमिंग प्लेयर रही हूं। दसवीं पास करने के बाद माहौल बदलने और इलाज के लिए मां ने चाचा के पास दिल्ली भेज दिया। लेकिन चाचा ने ही मेरा शारीरिक शोषण किया। उसी दौरान मैं दिल्ली के एक होटल में गिटार बजाने लगी। किन्हीं परिस्थितियों की वजह से मुझे घर छोड़ना पड़ा। तब मेरी मुलाकात नगमा से हुई। उसने मुझे आसरा दिया और अपनी जमात में शामिल करने के साथ नया नाम अमृता दिया। एक अग्रवाल महोदय की मदद से मैंने इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से 12वीं पास की। मगर नगमा का साथ छूट गया। 18 साल की उम्र में मैं दोबारा दिल्ली आई। यहां कोई सहारा नहीं था। मदर टेरेसा अस्पताल की बेंच पर सोती और वहां ढेरों काम के बदले एक कप चाय मिलती। पेट की आग मिटाने के लिए मात्र 20 रुपये में खुद को बेचना पड़ता था।
एक बिजनेसमैन जिंदगी में आया। उन्होंने कपड़े दिए, घर का इंतजाम किया। खर्च चलाने के लिए मैंने पीसीएल इंटरनेशनल कॉल सेंटर में काम शुरू किया। साथ ही जामिया मिल्लिया से स्नातक किया। एचआर, मार्केटिंग में एमबीए भी किया। मुंबई में चार साल तक बार डांसर और सेक्स वर्कर के रूप में काम किया। इसी बीच मध्य प्रदेश के अल्पेश से मेरी नजदीकियां बढ़ीं। शादी कर ली मगर सिलसिला सात साल से आगे नहीं चला। अल्पेश बहाना बनाकर अलग हो गया। जब मैं मुंबई में बार डांसर थी उसी दौरान 13 लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म किया। उसके बाद मैं एचआइवी पॉजिटिव हो गई। एमबीए के बाद भी मुझे नौकरी नहीं मिली। इस बीच कोल्हापुर में पहचान प्रोजेक्ट के तहत कंडोम बांटने वाले के रूप में मुझे काम मिल गया। 2013 में छत्तीसगढ़ में हिंदुस्तान लेटेक्स फैमिली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट में एडवोकेसी अफसर के रूप में मैंने नौकरी शुरू की। मैं देश की पहली किन्नर एडवोकेसी अफसर थी। 2013 के अंत में चंडीगढ़, हरियाणा, पंजाब में एडवोकेसी अफसर बनी। 2014 में सुप्रीम कोर्ट का किन्नरों के मामले में फैसला आया, जो मील का पत्थर साबित हुआ। तब जाकर छत्तीसगढ़ में एड्स कंट्रोल सोसाइटी में नोडल अफसर बनाया गया। मैं देश की पहली किन्नर हूं जिसे, सरकारी अधिकारी बनाया गया। वहां मैंने दो साल काम किया। 2017 में अर्बन ट्रीज चेन्नै ने पावरफुल वीमेन ऑफ इंडिया से सम्मानित किया। 2016 में मैंने एक अनाथ बच्चे अर्जुन को गोद लिया। अब वह 19 साल का है। मार्च 2019 में मैंने बखोरापुर मंदिर में साथ काम करने वाले विकास सिंह से शादी कर ली। लेकिन कुछ महीनों बाद ही विकास का इगो हर्ट होने लगा कि वह क्लर्क है और मैं मैनेजर। शादी बचाने के लिए मैंने नौकरी छोड़ दी और पटना में सड़क किनारे फास्ट फूड बेचने लगी। इससे पहले मैं झारखंड में ट्राई इंडिया में रीजनल हेल्थ डायरेक्टर के रूप में काम कर चुकी थी। एड्स कंट्रोल सोसाइटी झारखंड में 24 जिलों में ट्रेनिंग पार्टनर भी रह चुकी थी। यू ट्यूब पर मेरे 12 लाख फॉलोअर्स हैं। अब मैं यूएनडीपी के अधीन स्टेट प्रोग्राम मैनेजर के रूप में काम कर रही हूं। जेल में कैदियों के एचआइवी स्क्रीनिंग, टीबी, एचसीबी, एसटीसी सहित दस इंडिकेटरों पर काम कर रही हूं।
-नवीन कुमार मिश्र