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आवरण कथा/दस साल निर्भया : निर्भय निर्लज्जता की हदें

निर्भया कांड के दस साल बाद और उसके गुनहगारों को फांसी के करीब तीन साल बाद रोज बढ़ती यौन हिंसा और उसकी बर्बर प्रकृति यह दिखाती है कि बलात्कार विरोधी आंदोलन से उपजे सारे महिला सुरक्षा कानून पूरी तरह हुए फेल
निर्भया बलात्कार मामले ने देश की राजधानी सहित पूरे भारत में गुस्से का उबाल आ गया था

एक सैलाब आया था 2012 की ऐसी ही चढ़ती सर्दियों में, जब लाखों पिंजड़े तोड़कर औरतों की आजादी का सतरंगा इंद्रधनुष राष्ट्रपति भवन के कंगूरे के ऊपर तन गया था। देश की एक बेटी के साथ हुई बर्बरता पर उमड़े आक्रोश से तब दिल्ली उबल उठी थी। उसकी भाप जब बैठी, तो लोकतंत्र की आंख का पानी ही मर गया। लिखा होगा कभी जॉन रीड ने ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ का कालजयी ब्यौरा, पर निर्भया कांड के बाद गुजरे दस साल में दोबारा हिंदुस्तान में एक पत्ता तक नहीं हिला। प्राकृतिक न्याय में सामूहिक आस्था का जो पौधा मार्च 2020 में चार मुजरिमों की फांसी के साथ रोपा गया था, वह बीते 7 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश यू.यू. ललित की अगुआई वाली खंड पीठ की सख्त िटप्पणियों से झुलसकर मुरझा गया। निर्भया कांड से दस महीने पहले वैसी ही नियति का शिकार हुई अनामिका के तीन अपराधी उस दिन बरी कर दिए गए।

विरोध

बलात्कार विरोधी आंदोलनः दिसंबर 2012 की दिल्ली का एक दृश्य

दिल्ली के दक्षिण-पश्चिमी छोर पर साहिबी नदी जहां सबसे तीखा बल खाती है, वहीं उसके कटि प्रदेश में बसा है प्रवासियों का एक मुहल्ला कुतुब विहार। खेतों के बीच बीते तीन दशक में उग आए कच्चे-पक्के मकानों के इस अनियमित बसेरे को द्वारका से पहले एक कच्चा पुल जोड़ता था। अब नदी के ऊपर पक्की सड़क बन रही है। मिट्टी डाली जा रही है। बीच-बीच में इक्का-दुक्का वाहन गुजरते दिखते हैं। शक होता है कि कहीं गलत तो नहीं आ गए। खेतों के बीच से गुजरते हुए सामने एक बड़ा सा प्रवेश-द्वार आता है जिस पर ‘उत्तरैणी’ लिखा है। ज्यादातर मकानों पर लगे नेमप्लेट अहसास कराते हैं कि यहां की बसावट उत्तराखंड से आए लोगों की है। इन्हीं के बीच सात नंबर गली में मदर डेयरी बूथ के पास रहते हैं कुंवर सिंह नेगी। रहते भी क्या हैं, बस टिके हुए हैं उम्मीद की एक डोर के सहारे अपनी पत्नी, एक बेटे और एक बेटी के साथ, कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। इस डोर का दूसरा सिरा पौड़ी गढ़वाल में उनके परिजन थामे हुए हैं। 

हालांकि पंच-परमेश्वर की कुर्सी पर बैठे कुछ बंदों ने 7 नवंबर, 2022 को यह डोर काट दी। उनकी सबसे बड़ी बेटी के तीन बलात्कारी सुप्रीम कोर्ट से दस साल बाद बरी हो गए। उस दिन के बाद से उनके घर पर चौबीसों घंटे छावला थाने के एक सिपाही का पहरा है। मन में डर है कि कहीं वे मुजरिम अपनी कैद का बदला उनसे लेने न आ जाएं। दिन के उजाले में जब धूप सेंकती तमाम औरतें बाहर गली में बैठी थीं, कुंवर सिंह की पत्नी माहेश्वरी घर के भीतर थीं। छोटी बेटी तकरीबन घर में कैद है क्योंकि वह रेगुलर क्लास नहीं करती। बेटा बेशक काम पर गया है पर कुंवर सिंह खुद फैसले के बाद वाले दिन से काम पर नहीं गए हैं।

अपने-अपने दुख

माहेश्वरी नेगी आंखों में उमड़ते आंसू रोकते हुए कहती हैं, ‘‘इन्हीं जाटों के खेतों में बरसिंग काट के हमने बच्चों को पढ़ाया। रंगाई-पुताई का काम किया। मजूरी की, कि हम नहीं तो कम से कम बच्चे पढ़-लिख जाएं। वह कहती थी कि मम्मी तुम चिंता न करो, मैं नौकरी कर के घर चला लूंगी। मार दिया उसे। दस साल से हम बैठे थे कि न्याय होगा। जमीन खिसक गई पैर के नीचे से हमारी जब तीनों को कोर्ट ने छोड़ दिया। निर्भया से भी पहले का केस था हमारा। उन्हें तो न्याय मिल गया, हम कहां जाएं?’’

निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सरकारी वकीलों के भरोसे न्याय की बाट जोह रहे कुंवर सिंह भीतर ही भीतर उबल रहे हैं। वे बताते हैं कि पिछले सात साल में आज तक सुप्रीम कोर्ट की सरकारी वकील ने उनसे बात तक नहीं की। वे मिले ही नहीं हैं उससे। वे पूछते हैं, ‘‘2015 में हमारा केस सुप्रीम कोर्ट में आया था। तब से लेकर अब तक इन्हें समय ही नहीं मिला सुनवाई करने का। और जब सुनवाई की तो ठीक रिटायर होने के दिन ही जज को जांच में कमी दिख गई? हाइकोर्ट तक ने फांसी की सजा कायम रखी थी मगर सुप्रीम कोर्ट बरी कर दे, यह समझ में नहीं आता।’’

नेगी दंपतीः छावला की पीड़िता के मां-बाप

नेगी दंपतीः छावला की पीड़िता के मां-बाप

दिल्ली में अभी श्रद्धा वालकर की लाश के टुकड़े पूरी तरह बरामद भी नहीं हुए थे कि नेगी परिवार का दिल टुकड़े-टुकड़े हो गया। फरवरी 2012 में छावला की अनामिका के साथ गैंगरेप हुआ था। उसकी क्षत-विक्षत लाश रेवाड़ी के एक गांव में मिली थी। बर्बरता के जैसे वर्णन निर्भया कांड में दिसंबर 2012 में सामने आए, वह दरअसल अनामिका के साथ घटे का हूबहू था। इसके बावजूद अनामिका के मुजरिम आज बाहर हैं जबकि निर्भया के मुजरिम दो साल पहले ही फांसी पर चढ़ाए जा चुके हैं।

उनकी पत्नी कहती हैं, ‘‘निर्भया तो राष्ट्रीय मामला बन गया था। निर्भया के बाद जो फास्ट ट्रैक कोर्ट बनी, हमारे केस में उसका फायदा हुआ लेकिन हमें तो पहले ही सबने भुला दिया था। पहले पता होता कि बेटी मार दी जाएगी तो पैदा ही नहीं करते। कोख में ही मार देते। थोड़ा खून ही तो बहता। ये दिन तो नहीं देखना पड़ता।’’

माहेश्वरी नेगी का दुख उनमें कटुता पैदा करता है। यही दुख आशा देवी को मांजता है। फैसले के महीने भर बाद 5 दिसंबर, 2022 को जब कुंवर सिंह नेगी अपने वकील संदीप शर्मा के साथ पुनर्विचार याचिका दायर करने सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, उस वक्त निर्भया की मां आशा देवी भी उनके साथ थीं। कहने को तो आशा देवी को न्याय मिल चुका है, लेकिन उनका दुख अब भी इतना गहरा है कि वे दूसरे के दुख को बांट कर अपना रेचन करने में लगी हैं। उन्हें हर लड़की को देखकर अब भीतर से डर लगता है। हर बेटी उन्हें अपनी बेटी जान पड़ती है। नेगी परिवार के दुख में उनका सुख-दुख साझा है, लेकिन दोनों के दुख में फर्क भी है।   

यह फर्क आशा देवी की रिहाइश द्वारका और कुतुब विहार के बीच महज छह किलोमीटर की दूरी के कारण है। नेगी को दुख है कि पिछले कई साल से नदी पार करके उनके घर तक कोई नहीं आया। न नेता, न मीडिया, न एनजीओ वाले। केवल बलात्कार विरोधी एक्टिविस्ट योगिता भयाना का उन्हें सहारा रहा, जो अब तक कैंपेन कर रही हैं। नेगी कहते हैं, ‘‘हम गरीब हैं। हमारे पास देने के लिए कुछ नहीं है। कोई क्यों आएगा।’’

छावला कांड में पीडि़ता की ओर से पेश होने वाले सरकारी वकील भी सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका डाल रहे हैं। दिल्ली सरकार को लेफ्टिनेंट गवर्नर ने मंजूरी दे दी है कि वह मुजरिमों को बरी किए जाने के खिलाफ अपील करे। दिल्ली महिला आयोग ने भी चिट्ठी लिखी है। पूरी दिल्ली इस फैसले से हैरत में है। नेगी परिवार की पैरोकार अधिवक्ता चारु वली खन्ना कहती हैं, ‘‘लाख टके का सवाल यही है कि फांसी की सजा पाए मुजरिमों को बरी क्यों कर दिया गया। हम इस फैसले को त्रुटिपूर्ण मान रहे हैं।’’    

नाइंसाफी की बेशर्म दलीलें

न्याय-निर्णय में ‘त्रुटि’ होना मानवीय बात है, लेकिन गुजरात में बीस साल बाद बिलकिस बानो के अपराधियों का जो सार्वजनिक अभिनंदन हुआ उसे कैसे समझा जाए? वहां तो केंद्र सरकार ने ही अपराधियों को छोड़ने की मंजूरी दी थी? विडंबना यह भी है कि दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल बिलकिस बानो के सवाल को निजी बातचीत में तो प्रमुखता के साथ उठाती हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी ने गुजरात के विधानसभा चुनाव में बिलकिस के मुद्दे को छूने तक से परहेज किया है। इस गुजरात चुनाव में बिलकिस बानो के मुजरिमों को छोड़ा जाना कोई मुद्दा ही नहीं बन सका।  

सरकारें जब कानूनी खामियों का सहारा लेकर अपराधी को प्रोत्साहन दें तो इसके पीछे प्रच्छन्न हित समझे जा सकते हैं, लेकिन कानून जब खुद ऐसी नजीर पेश कर दे तो कुंवर सिंह नेगी जैसे पीडि़त क्या करें। मसलन, पिछले साल मार्च 2021 में पूरा देश चौंक गया जब सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने पोक्सो के एक केस में आरोपी से कथित रूप से कहा, ‘‘आप अगर शादी करना चाहते हैं तो हम आपकी मदद कर सकते हैं, नहीं तो आपकी नौकरी चली जाएगी और आप जेल चले जाओगे। आपने लड़की के साथ बलात्कार किया है।’’ महाराष्ट्र के इस केस में सोलह साल की लड़की के साथ बलात्कार हुआ था और आरोपित की मां ने एफआइआर से बचने के लिए वादा किया था कि लड़की के बालिग होने के बाद वह अपने बेटे से उसकी शादी करवा देगी।

एक ओर जहां बलात्कारी बरी हो रहे हैं वहां समाज माला पहना कर उनका स्वागत कर रहा है। दूसरी ओर बलात्कारी को सजा और निलंबन से बचाने के लिए उसे बलात्कृत से शादी कर के फिर से बलात्कार करने का सुझाव दिया जा रहा है। निर्भया के मुजरिमों को फांसी की सजा देने के खिलाफ अंतिम समय तक लड़ने वाले एडवोकेट एपी सिंह भी ऐसा ही एक केस बताते हैं जिसमें वे सुप्रीम कोर्ट तक गए थे। यह ‘सुलह वाली शादी’ का नया न्यायिक फार्मूला इतना संक्रामक है कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2014 के बाद से लेकर अब तक हर साल औसतन 191 बलात्कार के मामलों में ‘सुलह’ हो चुकी है। इसमें इस तथ्य की पूरी तरह उपेक्षा की गई है कि आइपीसी की धारा 376 के अंतर्गत बलात्कार के जुर्म में सुलह संभव ही नहीं है। ब्यूरो के मुताबिक 2014 के बाद 1100 से ज्यादा बलात्कार के मामलों में अदालत के रास्ते ‘सुलह’ करवाई गई है। बीते कुछ वर्षों में ऐसी सुलह को न्यायिक एजेंसियों ने संस्थागत बना डाला है।

महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा के मामले में कुछ लोग कानूनों के कमजोर क्रियान्वयन, प्रशासनिक ढांचे और संसाधनों के अभाव पर टेक लिए हुए हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों के बीच निर्भया कानून, पोक्सो और बलात्कार कानून में संशोधन आदि को लेकर दस साल से बहसें चल रही हैं। अलग-अलग आग्रहों और असहमतियों के बावजूद मोटे तौर पर एक बात यह सामने आती है कि कानून का क्रियान्वयन सही ढंग से नहीं किया जा रहा है और संसाधनों की कमी का सवाल तो तकरीबन सभी एक स्वर में उठाते हैं। इसमें निर्भया फंड की नाकामी की तरफ हर कोई इशारा करता है, जो बनाया तो 1000 करोड़ रुपये का गया था लेकिन 200 करोड़ रुपये पर आकर सिमट गया है।

विरोध

विरोध हर जगह लेकिन फैसले में देरी और स्थिति भी जस के तस

निर्भया फंड की बात करें तो लोकसभा में 29.11.2019 को इससे संबंधित पूछे गए एक तारांकित प्रश्न के जवाब में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कुछ आंकड़े प्रस्तुत किए थे। उसके मुताबिक पूरे देश में नवंबर 2019 तक जारी किए गए 2264 करोड़ रुपये के फंड में से केवल 11 प्रतिशत का उपयोग किया जा सका था। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने केवल 252 करोड़ रुपये का ही इस्तेमाल किया था। सबसे ज्यादा फंड का इस्तेमाल उत्तराखंड और मिजोरम ने किया, वह भी आवंटित धन का महज 50 प्रतिशत है। विडंबना यह है कि दिल्ली, जिसे बलात्कार की राजधानी का दर्जा प्राप्त है, उसने निर्भया फंड से आवंटित धनराशि का केवल 5 प्रतिशत उपयोग किया। इस श्रेणी में महाराष्ट्र, त्रिपुरा, तमिलनाडु, मणिपुर, पश्चिम बंगाल और गुजरात भी आते हैं।

शिक्षा, महिला, बच्चों, युवाओं और खेलों पर स्थायी संसदीय समिति की मार्च 2022 की एक रिपोर्ट कहती है कि कुल 9549 करोड़ रुपये के आवंटित फंड में से 4241 करोड़ रुपये ही राज्यों को जारी किए जा सके हैं जिनमें से मात्र 2989 करोड़ रुपये का इस्तेमाल किया जा सका है। इस तरह अब तक निर्भया फंड से जारी किए गए पैसे का केवल 30 प्रतिशत ही देश भर में इस्तेमाल हो सका है।

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इसके बावजूद तेलंगाना और दिल्ली जैसे राज्यों की शिकायत है कि निर्भया फंड से पैसे देने में केंद्र उनके साथ भेदभाव करता है। मालीवाल सीधे आरोप लगाती हैं कि केंद्र सरकार राज्यों को फंड खर्च करने की छूट नहीं देती बल्कि दिल्ली के बंद कमरे में बैठ कर कुछ सचिव स्तर के अधिकारी देश भर में महिला सुरक्षा की परियोजनाओं को पास या खारिज करते हैं। यह बात बिलकुल सही हो सकती है, लेकिन संसाधन और कानून मात्र इंसाफ दिलवाने के लिए पर्याप्त हैं?

निर्भया कांड के बाद पूरे देश में इतना बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ, फिर न्याय प्रक्रिया में आखिर गलती कहां हुई? सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की रंजना कुमारी इसे अलग तरीके से समझाती हैं। वे कहती हैं कि उसी समय दो-तीन गलतियां हुई थीं, ‘‘एक तो जो परिभाषा बनाई गई यौन हमले की, उसे काफी व्यापक कर दिया गया। अगर आप अपराध की परिभाषा में बहुत संक्षिप्त न रहें तो सबूत जुटाने में पुलिस बहुत कोताही बरतती है। छावला वाले मामले में यही हुआ है। इसके अलावा, रेपिस्ट को फांसी देने का मसला राजनीतिक मुद्दा बना दिया गया। खास तौर से मैं नेताओं को जिम्मेदार मानती हूं कि उन्होंने फांसी के सवाल पर जो राजनीतिक माहौल बनाया, उससे बहुत गड़बड़ हुई। एक तरह से यह होड़ लग गई कि कौन सबसे ज्यादा महिलाओं के हक में बैठा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आज रेप भी हो रहे हैं, साथ में बच्चियों को मार भी डाल रहे हैं और साबित भी नहीं हो पा रहा है। कानून बनने से जितना फायदा नहीं होना था उससे ज्यादा नुकसान हो गया।’’

सही पुरुष कैसा हो

कानून, संसाधन और प्रशासन से इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महत्वपूर्ण बात स्वतंत्रता दिवस पर कही थी कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए मानसिकता बदलने की जरूरत है। यह बात भले थोड़ी अबूझ जान पड़े, लेकिन पुरुष वर्चस्व वाले सामाजिक ढांचे में मूल लगती है। निर्भया की वकील रही सीमा कुशवाहा हालांकि सपाट ढंग से पूछती हैं, ‘‘इतने बड़े समाज में सबकी मानसिकता कैसे बदलेंगे?’’

पुरुषों की मानसिकता का सवाल स्त्रीवादी कार्यकर्ता लगातार उठाती रही हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की शिक्षक प्रतीक्षा बख्शी अपने एक पुराने लेख में खैरलांजी की घटना के हवाले से लिखती हैं कि भारत में जो अभिजात पुरुष (और स्त्रियां भी) देश को चला रहे हैं वे नवउदारवाद, सैन्यकरण, राष्ट्रवाद, विकास और वृद्धि की कामयाब कहानियों को यौन हिंसा के प्रति सहिष्णुता से काट कर देखते हैं और महिलाओं की स्वायत्तता का दमन करने की एक तकनीक के तौर पर इसका इस्तेमाल करते हैं। वे सवाल उठाती हैं कि आखिर मनोरमा के गैंगरेप और हत्या के बाद भी आफ्सपा (सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम) को क्यों नहीं हटाया गया? वे महिलाओं के दुखों के लिए सीधे तौर पर राजनीति को जिम्मेदार मानती हैं।

एक और महत्वपूर्ण बात रंजना कुमारी कहती हैं, कि समाज और परिवार का ढांचा औरतों के त्याग के कारण ही कायम रहा है। यह बात पुरुषों को समझनी चाहिए और अपने नजरिये में बदलाव लाना चाहिए। ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसलिए क्योंकि पितृसत्ता को बचाने की राजनीति आज बहुत जोरों से चल रही है, जहां महिला आंदोलन का असर व्यापक समाज पर नहीं हो पा रहा है। 

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स्त्रियों के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए पुरुषों की मानसिकता के बदलने के सवाल पर अधिवक्ता एपी सिंह पुरुषों में खुदकुशी के मामले गिनवाते हुए पूछते हैं कि पुरुषों के बारे में आखिर कौन सोचेगा। यह भी एक सच है कि दुनिया भर में पुरुषों की खुदकुशी के मामले महिलाओं से दोगुने हैं। इस बात के साक्ष्य हैं कि पुरुषों में अवसाद का निदान जरूरत से कम हो रहा है। मेरीलैंड की टाउसन यूनिवर्सिटी में पुरुष अध्ययन और संस्कृति के व्याख्याता एंड्रयू रीनर लिखते हैं कि सारी समस्या इस बात से जुड़ी है कि पुरुष खुद पुरुष होने का अर्थ नहीं खोज पा रहे हैं। पुरुष दो छोर पर जी रहे हैं। एक ओर आज का पुरुष अपने व्यक्तित्व में बहुत ‘सॉफ्ट’ हो जा रहा है तो दूसरी ओर वह परंपरागत पुरुषवादी ‘टॉक्सिक’ (जहरीला) व्यवहार कर रहा है। दोनों को ही छोड़ने का आग्रह समाज में बराबर है। इस चक्कर में पुरुष प्रतिक्रिया कर रहे हैं। इस समूचे विमर्श में से बीच का रास्ता बिलकुल गायब है जहां आदमी को ऐसी लैंगिक अस्मिता दिए जाने की जरूरत है जहां वह अपनी भावनात्मक जरूरतों की भरपाई कर सके।

रीनर कहते हैं कि पुरुषों के खंडित व्यक्तित्व की समस्या ही स्त्रियों पर हमले के रूप में व्यक्त होती है। यह खंडित व्यक्तित्व कई कारणों से बनता है, जिसमें एक अहम सामाजिक धारणा यह है कि पुरुषों को अपनी भावनाओं को दबा ले जाना चाहिए और त्याग करना चाहिए। वे कहते हैं कि पुरुष होने का सही अर्थ क्या है, इस पर दोबारा चिंतन किया जाना चाहिए।

बर्बरता की नई तहें

रीनर जिस भावनात्मक पुरुष की बात करते हैं, दरअसल उसी का लुप्त हो जाना महिलाओं के खिलाफ हिंसा को दिन-ब-दिन बर्बर बनाता जा रहा है। दिल्ली में श्रद्धा वालकर के तीन दर्जन टुकड़े वाले भयावह कांड के बाद भी यह बर्बरता लगातार जारी है। मुंबई में एक महिला के साथ गैंगरेप कर धारदार हथियारों से उसे मारा गया, फिर सिगरेट से दागा गया। विशाखापत्तनम में एक औरत के लाश के टुकड़े एक ड्रम में पाए गए। दिल्ली के गणेश नगर में एक व्यक्ति ने अपनी लिव-इन पार्टनर महिला को चाकू से मारा और उसकी उंगली काट ली। बिहार के भागलपुर में एक व्यक्ति ने एक महिला का अंगभंग किया। ये तमाम घटनाएं बीते दस दिनों की हैं। इन सभी में एक समानता है- स्त्री की देह भंग की जा रही है।

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ऐसा अनायास नहीं हुआ है। यह नए दौर का बलात्कार है। फिल्मकार डेविड क्रोनेनबर्ग इस अंग-भंग को बलात्कार नहीं, ‘सेक्स’ कहते हैं। अब सिर्फ बलात्कार नहीं होते। औरतों के शरीर के टुकड़े किए जाते हैं। उसके भीतर झांकने की कोशिश की जाती है। भीतर की चीजों को बाहर खींचा जाता है। बाहर की चीजों से भीतर को टटोला जाता है। अपनी ताजा फिल्म ‘क्राइम्स ऑफ द फ्यूचर’ में क्रोनेनबर्ग ने निर्भया और अनामिका के अपराधियों की ठूंठ भावनात्मकता को सर्जरी के माध्यम से उकेरा है। उनके द्वारा चित्रित ‘भविष्य का अपराधी’ अब शरीर से नहीं, उसके भीतर के अंगों से आकर्षित होता है। वह कहता है, ‘सर्जरी इज द न्यू सेक्स।’

यह किरदार महज बाहरी शरीर से प्रेम या यौनिकता का सुख नहीं ले पाता क्योंकि ‘परंपरागत सेक्स’ के काबिल वह बचा ही नहीं है। उसकी भावभूमि मर चुकी है। इसलिए सर्जरी कर के उसके भीतर की यौन ग्रंथियों को हाथ से टोह कर जगाना पड़ता है। भविष्य का यह यौन अपराधी मानवेतर जुगुप्सा जगाता है। यह पुरुष भी है, स्त्री भी है। यहां स्त्री और पुरुष का अंतर गायब है।

ऐसे एक किरदार के सामने मानसिकता को बदलना या विपरीत लिंग के प्रति स्वीकार्यता को जगाना तो बहुत पिछड़ी बात दिखती है। जब हम रोज अपने इर्द-गिर्द कटी-फटी लाशें देख रहे हों और नाक सिकोड़ते हुए चुपचाप आगे बढ़ जा रहे हों, ऐसे में मानसिकता बदलने वाली बात करना एक सुविधाजनक आड़ से ज्यादा कुछ नहीं लगता। रोज घट रहे जुर्म की भयावहता और तीव्रता को देखते हुए लगता है कि पुरुष-स्त्री संबंधों के मामले में हमारा समाज जिस संक्रमण के दौर में है, उसे समझ पाना ही सबसे बड़ी और पहली चुनौती है।

अंधेरे तलछट की गुमनाम रूहें

निर्भया कांड के कुल छह मुजरिम थे। ये सभी समाज के उन कोनों से आते थे जिन्हें हम रोजाना अपनी नजरों से ओझल रखते हैं; जिन्हें किसी विदेशी मेहमान की सैर के दौरान लोकतंत्र के पहरेदार प्लास्टिक की नीली-हरी चादरों से गरीबी से उपजी राष्ट्रीय शर्म को छुपाने के लिए ढंक देते हैं। जैसा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की यात्रा के दौरान अहमदाबाद की झुग्गियों को छुपाया गया था। अलबत्ता, यह तबका अपनी मेहनत-मजूरी से गुजर-बसर करता है, मगर हर तबके की तरह इसमें भी कुछ अपराधी निकल ही आते हैं।

निर्भया के अपराधी

राम सिंह, मुकेश सिंह, विनय शर्मा, अक्षय ठाकुर, पवन गुप्ता और अफरोज दिल्ली की ऐसी ही एक झुग्गी बस्ती संत रविदास कैम्प में रहते थे। राम और मुकेश सगे भाई थे जो घटना से बीस साल पहले राजस्थान से दिल्ली में कमाने आए थे। दोनों दो कमरे के एक खोखे में वहां रहते थे। राम सिंह बस चलाता था। मुकेश उसके साथ कभी-कभी क्लीनर या ड्राइवर का काम करता था। इसी बस में बिहार से आया अक्षय खलासी का काम करता था। उसकी शादी हो चुकी थी और उसका बच्चा भी था। सबसे छोटा अफरोज इस बस में पहले कभी काम कर चुका था। उस दौरान के आठ हजार रुपये उसके राम सिंह पर बकाया थे। वही पैसे लेने के लिए 16 दिसंबर, 2012 की रात वह उसके पास गया था। इसी झुग्गी में विनय शर्मा भी रहता था। वह जिम में ट्रेनर था और छहों के बीच इकलौता पढ़ा-लिखा था। अंग्रेजी बोल लेता था। पवन का परिवार यहीं पर फल की रेहड़ी लगाता था।

अफरोज 11 साल का था, तब उत्तर प्रदेश के अपने गांव से भागकर दिल्ली आया था। छह लोगों के घर-परिवार का पूरा खर्चा बड़ी बहन चलाती थी। उसकी मां को पता तक नहीं था कि वह जिंदा है, जब तक निर्भया केस में उसका नाम सामने नहीं आ गया। घटना के वक्त नाबालिग होने के चलते उसे फांसी नहीं हुई। तीन साल दिल्ली के एक सुधार गृह में रखे जाने के बाद अब वह दक्षिण भारत में कहीं गुमनाम जिंदगी जी रहा है।

फांसी से बचने के लिए पवन ने भी खुद को नाबालिग साबित करने की बहुत कोशिश की थी। फैसला आने के बाद विनय ने जेल की दीवार से अपना सिर फोड़ लिया था ताकि मेडिकल आधार पर कुछ राहत मिल सके। कोई जुगत काम नहीं आई। मुकेश, अक्षय, पवन और विनय को एक साथ 2020 में फांसी हुई। छहों के बीच मुख्य अभियुक्त माना जाने वाला राम सिंह जेल के भीतर मार्च 2015 में मृत पाया गया था। उसने खुद को फांसी लगायी या उसकी हत्या हुई, इस पर काफी बहस हुई।

राम सिंह का परिवार घटना के बाद ही राजस्थान लौट गया था। पवन और विनय के परिवार रविदास कैम्प में ही बने रहे। लंबे समय तक रविदास कैम्प के लोग मानते रहे कि इन लड़कों और उनकी रिहाइश को बदनाम किया गया है। छिटपुट काम-धंधों और मजदूरी करने वाले प्रवासियों की यह झुग्गी बस्ती आज भी कैमरों और बाहरियों की निगाह से बचती है। गूगल पर रविदास कैम्प लिखकर खोजने पर निर्भया के गुनहगारों के चेहरे सामने आ जाते हैं। अंधेरे की इस तलछट में बीते दस साल में अंधेरा और घना हो गया है। इन अंधेरों में क्या कुछ पल रहा है, आज इसका अंदाजा तक बाहरी दुनिया को नहीं है।

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