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छोटों के बड़े भाव

त्रिशंकु लोकसभा के आसार के बीच खास जातियों में असर रखने वाली चंद सांसदों की पार्टियों की बढ़ेगी पूछ
रणनीतिः हम-एस के प्रमुख जीतनराम मांझी और राजद नेता तेजस्वी यादव

बिहार की राजनीति में 2014 के आम चुनावों से पहले किसी ने मुकेश सहनी का नाम तक नहीं सुना था। तब तक उनकी प्रसिद्धि के खाते में बतौर निर्माता सिर्फ एक चलताऊ भोजपुरी फिल्म एक लैला तीन छैला थी। दरभंगा में जन्मे मुकेश को जब तक राजनीति के कीड़े ने नहीं काट खाया था, वे कई वर्ष बॉलीवुड में प्रॉप सप्लायर (शूट के लिए इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री) के तौर पर अपनी तकदीर आजमा चुके थे। लेकिन पांच साल बाद लोकसभा चुनावों से पहले उनका असर दिखने लगा। राज्य की सबसे बड़ी पार्टी राजद को अपने सहयोगियों के बीच टिकट वितरण को लेकर कभी उदार नहीं माना गया। लेकिन सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) राजद की अगुआई वाले महागठबंधन के हिस्से के रूप में तीन लोकसभा सीटों से चुनाव लड़ रही है। चुनावी राजनीति में पहली बार कदम रख रही इस नई पार्टी के लिए यह मोलभाव बुरा नहीं है। इस चुनाव में 40 वर्षीय इस ‘सन ऑफ मल्लाह’ की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने 2009 के संसदीय चुनाव में कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी के लिए भी तीन से ज्यादा सीटें नहीं छोड़ी थीं। लेकिन इस बार राजद ने बिना कोई विवाद के बिहार में कुल 40 लोकसभा सीटों में से 11 अपने छोटे सहयोगियों को दे दिए। वीआइपी की तीन सीटों के अलावा, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) पांच और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा-सेकुलर (हम-एस) तीन सीटों पर चुनाव लड़ रही है।

लालू या उनके बेटे तेजस्वी यादव ने अत्यंत पिछड़ी जातियों (सहनी), ओबीसी (कुशवाहा) और महादलित (मांझी) के क्षत्रपों को अपने साथ रखा। साफ है कि यह भाजपा विरोधी वोटों के विभाजन को रोकने के लिए किया गया होगा, लेकिन 23 मई को त्रिशंकु संसद के नतीजे आने की स्थिति में क्या राजद अपने महागठबंधन के सहयोगियों को साथ रख पाएगा? पार्टियों के चुने हुए प्रतिनिधि तो दलबदल कानून से बंधे होते हैं, लेकिन सहयोगी पार्टियों के लिए पाला बदलने में ऐसी कोई बाधा नहीं है। तो, क्या खंडित जनादेश आने की स्थिति में बड़े राज्यों खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में छोटे दलों के लिए यह बिना किसी वैचारिक बाधा के पक्ष बदलने का सुनहरा मौका होगा? आखिरकार, ये दल ही ऐसे होंगे, जो चुनाव-पूर्व अपनी निष्ठाओं की परवाह किए बिना सत्ता के लिए बेताब खेमे के लिए सबसे संवेदनशील और सुलभ होंगे।

जहां तक राजद के सहयोगी दलों की बात है, तो पार्टी के उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी को फिलहाल ऐसा नहीं लगता है। उन्होंने आउटलुक से कहा, “महागठबंधन बिहार में एक मजबूत सामाजिक गठजोड़ का प्रतिनिधित्व करता है।” वे कहते हैं, “यह सही है कि सहनी, मांझी और कुशवाहा पहले एनडीए के साथ थे, लेकिन उन्हें उनका हक नहीं मिला तो हमारे साथ आ गए। मुझे नहीं लगता कि चुनाव के बाद वे एनडीए के साथ होकर अपने दुख, नाराजगी और निराशा को भूलने जा रहे हैं।”

साथ-साथः यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ के साथ अपना दल की अनुप्रिया पटेल

हालांकि, राजनैतिक पंडितों का मानना है कि छोटे संगठनों के नेताओं की निष्ठा की गारंटी नहीं दी जा सकती है। मसलन, सहनी ने अपनी सियासी पारी की शुरुआत 2014 के चुनावों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के साथ मंच साझा करके की और महागठबंधन में शामिल होने के लिए अपनी पार्टी बनाने से पहले 2015 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार से हाथ मिला चुके थे। कुशवाहा और मांझी जैसे अन्य लोग भी हाल के वर्षों में पाला बदलते रहे हैं। 17वीं लोकसभा के अनिश्चित नतीजों के मद्देनजर जब हर एक संख्या मायने रखेगी, तो ऐसी स्थिति में दो-तीन सांसदों का समर्थन भी महत्वपूर्ण होगा।

लेकिन क्या नतीजों के बाद भाजपा को भी अपने मौजूदा दो सहयोगियों नीतीश कुमार की जद-यू और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी से ऐसे ही जोखिम का सामना करना पड़ सकता है? पासवान की पार्टी बिहार में छह सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उनकी पार्टी हाल तक नरेंद्र मोदी के पीछे मजबूती से खड़ी रही है। लेकिन उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए लालू अभी भी उन्हें मौसम विज्ञानी कहते हैं, जो अपनी सुविधा के हिसाब से पाला बदल सकते हैं। जहां तक नीतीश की बात है, तो इस चुनाव में अभी तक उनकी पार्टी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर वोट मांग रही है, लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षक उनकी पार्टी के भीतर कुछ हालिया घटनाक्रमों पर नजर रख रहे हैं। जद-यू के अल्पसंख्यक नेता गुलाम रसूल वलियाबी ने भाजपा से नीतीश को एनडीए का नेता घोषित करने की ‘व्यक्तिगत’ मांग की। इस मांग के आधार पर जद-यू ने बिहार के लिए विशेष दर्जे की पुरानी बहस को फिर से छेड़ दिया है।

इसने अटकलों को हवा दी है कि त्रिशंकु संसद की स्थिति के लिए क्या जद-यू भी खुद को तैयार कर रहा है। हालांकि, तिवारी का कहना है कि नीतीश के पक्ष में इस तरह की रणनीति नहीं चलेगी। उन्होंने कहा, “नतीजों के बाद सहयोगी दलों के दबाव के कारण अगर आरएसएस और भाजपा को किसी और को चुनना पड़े, तो वे नितिन गडकरी जैसे किसी को पसंद करेंगे। वे नीतीश जैसे को क्यों चुनेंगे, जिन्होंने अपनी सारी विश्वसनीयता खो दी है?” हालांकि, जद-यू नेता नीरज कुमार आउटलुक से कहते हैं, “हम प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर जनादेश मांग रहे हैं। हम प्रधानमंत्री की दौड़ में कहीं भी नहीं हैं।”

गठबंधन पर दांवः चुनाव प्रचार के दौरान झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन

पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 2014 में 80 में से 71 सीटें जीतीं और उसके सहयोगी अपना दल (सोनेलाल) को दो सीटें मिलीं। इसने विधानसभा चुनाव 2017 में भी अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा, जहां जातिगत रणनीति हावी रहती है। इस चुनाव में सबसे अहम सवाल यह है कि क्या छोटे दलों- जिनमें से कुछ बड़े दलों के साथ चुनाव- पूर्व गठबंधन कर चुके हैं, वे चुनाव के बाद 23 मई को शक्ति संतुलन को बदलेंगे। हालांकि, इन आम चुनावों में राज्य में तीन खिलाड़ियों भाजपा, कांग्रेस और सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के साथ छोटी पार्टियां भी अपनी ताकत दिखा रही हैं। 2014 और 2017 के चुनावों ने कुछ छोटे दलों की उभार को प्रमुखता से सामने लाया, क्योंकि उन्होंने आश्चर्यजनक ढंग से छलांग लगाई और इन बड़े खिलाड़ियों को भी इन दलों के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन के लिए मजबूर होना पड़ा। भाजपा के मुख्य सहयोगियों में एक अपना दल (सोनेलाल) है, जिसके पास कुर्मियों का अच्छा-खासा वोटबैंक है और वह इस बार दो सीटों पर चुनाव लड़ रहा है। पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनावों में 0.99 प्रतिशत वोटशेयर के साथ 9 सीटें जीती थीं। पार्टी का गठबंधन में मजबूत असर है और इसकी नेता अनुप्रिया पटेल एनडीए सरकार में केंद्रीय मंत्री हैं।

अपना दल के अरविंद शर्मा कहते हैं, “जब कई सारी जातियों का गणित होता है, तो छोटी पार्टियां ही लोकतंत्र में जनादेश का फैसला करती हैं।”

राजनीतिक टिप्पणीकारों का कहना है कि इस बार छोटे दलों में सरकार या गठबंधन बनाने या बिगाड़ने की क्षमता है। समाजशास्‍त्री और जेएनयू के प्रोफेसर सुरिंदर एस. जोधका का कहना है कि नतीजों के बाद छोटी पार्टियों का समूह महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। जोधका कहते हैं, “छोटे दल एक राजनीतिक बाजार की पेशकश करते हैं, उनके पास वोट हैं और ऐसे लोग भी हैं, जो उन्हें खरीदते हैं। 23 मई के बाद वे निश्चित रूप से एक अहम भूमिका निभाएंगे। ये पार्टियां बहुत व्यावहारिक हैं और आमतौर पर वे किसी भी वैचारिक स्थिति को नहीं अपनाती हैं। पहचान की राजनीति ही उनके लिए प्रतिनिधित्व है।”

अब निषाद पार्टी की बात करें, तो यह पहले सपा-बसपा गठबंधन के साथ थी, लेकिन चुनावों से ऐन पहले इसके भाजपा खेमे में जाने से पता चलता है कि अत्यधिक प्रतिस्पर्धी राजनीतिक खेल में छोटे दल कैसे गेमचेंजर बनने की कोशिश करते हैं। पार्टी प्रमुख संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद ने उप-चुनाव में सपा के टिकट पर चुनाव लड़कर गोरखपुर सीट भाजपा से छीन ली। इस बार वह संत कबीर नगर से भाजपा के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं।

मछुआरा समुदाय का वोट बैंक काफी बड़ा है, जो कई सीटों पर बिखरा है। इसी के सहारे भाजपा राज्य में अपनी बढ़त बनाने की उम्मीद कर रही है। हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक गाइल्स वर्नियर्स का मानना है कि करीबी मुकाबले की स्थिति में छोटी पार्टियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वर्नियर्स कहते हैं, “ये छोटी पार्टियां किसी ओर पलड़ा नहीं झुका सकतीं, लेकिन इनको एकमात्र उम्मीद बेहद करीबी मुकाबले में अहम भूमिका निभाने की है। आप इन पार्टियों को देखें, तो वे एक या दो सीटें जीतने का दावा कर सकती हैं, जो उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है।”

अहम भूमिकाः एनसीपी सांसद सुप्रिया सुले

सपा-बसपा गठबंधन का मुकाबला करने के लिए भाजपा कुछ जातिगत दलों के समर्थन हासिल करने में सफल रही, लेकिन इसने ओमप्रकाश राजभर की अगुआई वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) जैसे मजबूत सहयोगियों को नाराज भी कर दिया। राजभर समुदाय के बीच काफी प्रभाव रखने वाली एसबीएसपी ने भाजपा से नाता तोड़ लिया, क्योंकि उसने पार्टी को सीटें देने से इनकार कर दिया था। एसबीएसपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में चार सीटें जीतीं और राजभर का कहना है कि उनकी पार्टी कई सीटों पर भाजपा को मुश्किल में डाल सकती है। राजभर कहते हैं कि उनकी पार्टी चुनाव के बाद भविष्य का फैसला करेगी। वे कहते हैं, “हमारे पास कई निर्वाचन क्षेत्रों में 50 हजार से 1 लाख तक वोट हैं। नुकसान भाजपा का होगा। हमारा कुल वोट शेयर 18 फीसदी है।” उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में 44 फीसदी ओबीसी, दलित 23 फीसदी और लगभग 18 फीसदी मुसलमान हैं। प्रोफेसर जोधका का कहना है कि उत्तर प्रदेश में जातिगत दलों की संख्या में उछाल पहचान की अभिव्यक्ति के बढ़ने और देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की गिरावट की ओर इशारा करता है।  सपा-बसपा के साथ राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) का समर्थन है और कांग्रेस ने भी कृष्णा पटेल की अगुआई वाली अपना दल, महान दल और जन अधिकार पार्टी के साथ मिलकर खुद को पुनर्जीवित करने की रणनीति बनाई है। कांग्रेस उनके साथ साझेदारी करके राज्य में कुर्मी, कुशवाहा, मौर्य और शाक्यों के प्रभावशाली ओबीसी समुदायों से समर्थन हासिल करने की उम्मीद कर रही है।

एक अन्य पार्टी, जो परिदृश्य पर उभरी है और उसकी उपेक्षा करना भी मुश्किल है। वह है, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया), जिसकी स्थापना सपा के बागी और मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव ने की है। पीएसपी (एल) ने पहले ही पीस पार्टी और अपना दल (के) के साथ साझेदारी कर ली है। पीस पार्टी के संस्थापक मोहम्मद अयूब कहते हैं, “यह चुनाव छोटी पार्टियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और मुझे लगता है कि यह एक करीबी मुकाबला होगा। हम त्रिशंकु संसद की अपेक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि 50 हजार-1 लाख वोट पूरे दृश्य को बदल सकते हैं और हम भाजपा के अलावा किसी भी अन्य राजनीतिक गठबंधन का समर्थन करेंगे।” 2008 में स्थापित पीस पार्टी ने पसमांदा मुसलमानो और अन्य पिछड़े समुदायों के लिए बहुत बड़ा वादा किया था।

महाराष्ट्र में, चुनावी मौसम की शुरुआत में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लिए सबसे अच्छी बात 56 संगठनों के एक साथ आने की घोषणा थी। इनमें राजनीतिक और सामाजिक संगठन भी थे, जो बताते हैं कि इनकी चुप्पी या छोटे राजनीतिक दलों का खुला समर्थन कितना महत्वपूर्ण है। कांग्रेस और एनसीपी ने बहुजन विकास अघाड़ी, द पीजंट्स ऐंड वर्कर्स पार्टी और स्वाभिमानी शेतकारी संघटना जैसे क्षेत्रीय और स्थानीय दलों को अपने पाले में लाने के लिए बहुत कोशिश की। शिवसेना-भाजपा गठबंधन राधाकृष्ण विखे पाटिल जैसे अपने सदस्यों को अन्य दलों के पाले में जाने से बचाने में जुटी रही।

पीजेंट्स ऐंड वर्कर्स पार्टी के महासचिव जयंत पाटिल कहते हैं, “पिछले दो बार से हम चुनाव लड़ रहे हैं, हमने महसूस किया कि हमारे और कांग्रेस या राकांपा के बीच वोटों के बंटवारे से दक्षिणपंथी ताकतों को फायदा हुआ। हम पिछले कुछ वर्षों के सत्तावादी शासन का विरोध करते हैं और उसे हराना चाहते थे और इसलिए बिना किसी शर्त के गठबंधन का समर्थन करने का फैसला किया। परभणी और सोलापुर जैसी जगहों पर हमारा मतदाता एक लाख से अधिक है और यह निश्चित रूप से नतीजों में मदद करेगा।”

उनके अनुसार, कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को इस कदम से बहुत लाभ होगा और उसे 48 में 28 सीटें मिल सकती हैं। समान विचारधारा वाले छोटे दल एक जगह पर फंस गए हैं और आरपीआइ (ए) ने भाजपा-शिवसेना के साथ गठबंधन जारी रखा है। लेकिन, राज ठाकरे की एमएनएस ने ट्विस्ट पैदा किया है। 2014 में नरेंद्र मोदी को समर्थन देने से लेकर 2019 में उनके खिलाफ प्रचार करने तक, ठाकरे कांग्रेस-एनसीपी के सबसे प्रभावी और भीड़ खींचने वाले वक्ताओं में से एक रहे हैं।

 (साथ में मुंबई से प्राची पिंगले प्लंबर)

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