श्रीनगर के बाबा डेम का नया बाजार। पुरानी खिड़कियां, दरवाजे, लकड़ी की नक्काशी वाले बेहतरीन नमूने और ईंट-रोड़े खरीदारों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह उन मकानों का सामान या मलबा है जिन्हें कश्मीरी पंडित दशकों पहले छोड़ गए। इनमें से कुछ मकान अभी बाकी हैं लेकिन उन्हें भी अछूता नहीं छोड़ा गया है। इन सूने पड़े मकानों में घास उग आई है और ये किसी डरावनी फिल्म के सेट की तरह दिखने लगे हैं। ये इमारतें 1990 के दशक के उग्रवाद के भयानक दौर और पंडितों के सामूहिक पलायन और हत्या की याद दिलाती हैं।
जब घाटी में आतंकवाद ने पांव नहीं पसारे थे यानी 1989 में 1,242 स्थानों पर 77,254 परिवार रहते थे। आज इस पूरे अशांत राज्य के 242 कस्बों और गांवों में कुल 808 परिवार रह गए हैं। 59 वर्षीय राम कृष्ण धर कहते हैं, “जब स्थानीय मस्जिद के लाउडस्पीकर से पंडितों और भारत के खिलाफ नारे लगते थे तो हमें पता था कि छोड़ने का वक्त आ गया है।” श्रीमती धर कहती हैं, “यहां तक कि जो मुस्लिम पड़ोसी पीढ़ियों से साथ रह रहे थे, वे भी डरते थे। वे इस स्थिति में या मनःस्थिति में नहीं थे कि मदद कर सकें। लेकिन सब ऐसे नहीं थे।” वे आगे कहती हैं, “मेरे पति ने मुझे याद दिलाया कि सिर्फ 0.5 फीसदी ही (कश्मीरी मुस्लिम) ऐसे हैं। बाकी सब बहुत दोस्ताना रखते है और बहुत आदर देते हैं।”
वंधामा जहां जनवरी 1998 में 23 लोगों को मार दिया गया था
शबीर (बदला हुआ नाम) याद करते हैं कि कैसे उन्होंने उस भयानक दौर में हिंदू भाइयों की मदद की थी। उन्हें आज भी वो मंजर याद है जब दो आतंकवादी आए और उनके पंडित पड़ोसियों के बारे में पूछा था। शबीर ने जब पूछा तो उनका जवाब था, उन्हें मारना है। शबीर ने सोचा कि उनसे कहे कि वे लोग अच्छे पड़ोसी हैं, सज्जन हैं। पर उन्होंने नहीं कहा क्योंकि वे डर गए थे। उन्हें लगा कि ‘मदद’ करने से मना करेंगे तो वे उन्हें गद्दार समझेंगे। आतंकवादियों ने रुखाई से शबीर से कहा कि अगली सुबह पंडित को रोकना। उन लोगों ने शबीर से कहा कि पंडित जब कार से दफ्तर के लिए निकले तो लिफ्ट मांगना या किसी बहाने रोक लेना, “बाकी काम हम कर लेंगे।” शबीर ने हां में सिर हिला दिया और भागा-भागा अपनी मां के पास गया। मां ने जैसे आसन्न खतरे के बारे में सुना तो छाती पीटने लगीं। वे चुपचाप उठीं और पड़ोसियों को चेतावनी देने के लिए उनके घर चली गईं। पंडित और उनका परिवार उसी रात भाग कर जम्मू चला गया। उनके एक मुस्लिम सहकर्मी ने उन्हें भागने में मदद की।
वे चले गए, और शबीर भी। क्योंकि परिवार को डर था कि आतंकवादी अब शबीर के पास आएंगे। उसे दूसरे क्षेत्र में रहने वाले रिश्तेदार के यहां भेज दिया गया, जहां वह एक महीने रहा और उसके बाद वाराणसी चला गया। आत्मनिर्वासित यह व्यक्ति अब हर साल अपनी पत्नी और बच्चों के साथ माता-पिता से मिलने आता है। उसका कहना है, “इस बात को करीबन 28 साल हो गए, लेकिन यह घटना मुझे हमेशा कचोटती है।”
श्रीनगर के बाबा डेम के न्यू मार्केट में बिकने के लिए रखे सूने पड़े पंडितों के मकानों से निकले लकड़ी के खिड़की-दरवाजे
दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के भुतहा बन गए नंदीमार्ग गांव की कहानी भी ऐसी है, जहां 2003 में 24 पंडितों की हत्या हुई थी। लेकिन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) का पूर्व आतंकी जावेद जरगर कहता है कि पंडित उनका लक्ष्य नहीं थे और वे लोग नहीं चाहते थे कि यह समुदाय कश्मीर छोड़े। वह कहता है, “उस अराजक माहौल में किसी को पता नहीं था कि प्रतिक्रिया कैसे दें। लोग डरे हुए थे और कुछ दुष्टों ने पंडितों के विरोध में नारे लगाए। जो भी हुआ वह खराब संवाद, सरकारी साजिश, व्यक्तिगत लाभ, प्रतिद्वंद्विता...” वह इसके लिए तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन और सरकार को दोषी ठहराता है। वह कहता है, “सरकार हमारे आंदोलन को सांप्रदायिक रंग देना चाहती थी। हां, कुछ पंडितों को मुखबिर होने के चलते मारा गया लेकिन इनमें मुस्लिम भी थे। कई हत्याएं निजी दुश्मनी के चलते हुईं जैसे दूसरी जगहों पर होती हैं।”
झेलम के साथ मंदिरों की कतार (ऊपर) श्रीनगर में टूटे घर
दशकों बाद करीब 90 फीसदी पंडितों के मकान दूसरों ने ले लिए और उन्हें थोड़ा सुधारकर सस्ते दामों पर मुस्लिम परिवारों को बेच दिया। रहीम डार ऐसे ही नए मकान मालिक हैं। उन्होंने चनापोरा में 2.5 लाख रुपये की बिलकुल मामूली रकम पर घर खरीदा है। वह कहते हैं, “यदि यही घर किसी मुस्लिम परिवार का होता तो मुझे इसके लिए आठ लाख रुपये देने पड़ते।” डूबी हुई प्रॉपर्टी का व्यापार इतना बढ़ गया है कि 1989 तक चनापोरा में मामूली दुकानदार रहे गुलाम मोहम्मद रईस प्रॉपर्टी डीलर बन गए हैं।
दीवार पर लगा शिव का चित्र और दर्दनाक अतीत की याद दिलाते फटे हुए पत्रों के टुकड़े
वे पंडित घर मालिकों के साथ सौदे करते हैं। इस तरह के 50 से ज्यादा मकान बेचने वाले मोहम्मद दार्शनिक अंदाज में कहते हैं, “यह तकलीफदेह अनुभव है। पर यदि मैं यह नहीं करता तो कोई और करता...और इतनी ईमानदारी से नहीं।”