यकीनन जनादेश में वह सब दिखा, जिसका आभास किसी भी सेमीफाइनल में दिखना चाहिए, बशर्ते इसे अगले साल 2019 के आम चुनावों के पहले जनता के मूड का आईना माना जाए। वे सभी मुद्दे भाजपा और एनडीए के सामने बड़े सिरदर्द की तरह लौट आए जिनका समाधान करने के वादे के साथ उसे 2013-2014 में लोगों ने बड़ी उम्मीद के साथ लगभग एकतरफा जनादेश सुना दिया था और कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। लेकिन, एनडीए या मोदी सरकार में कृषि संकट, अर्थव्यवस्था की खस्ताहाली, बेरोजगारी ऐसे चरम पर पहुंच गई कि लोग शायद उससे भी भन्ना उठे जो भाजपा और संघ परिवार अपने ढांचे के राष्ट्रवाद और हिंदुत्ववाद का ज्वार पैदा करके “कांग्रेस-मुक्त भारत” का ख्वाब देख रही थी। इसलिए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, यहां तक कि तेलंगाना और मिजोरम से भी जोरदार संदेश यही उभरा कि किसान और रोजगार की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं। शायद इसका इल्म तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट से भी जाहिर होता है, जो उन्होंने देर शाम जारी किया। जीतने वालों को बधाई देने के साथ उन्होंने कहा, “आज के नतीजों से लोगों की सेवा करने और देश के विकास के लिए और कड़ी मेहनत करने का हमारा संकल्प मजबूत होगा।”
किसान और रोजगार यानी जिंदगी के मूल मुद्दों की वापसी से राजस्थान और छत्तीसगढ़ में धमाकेदार और मध्य प्रदेश में अपेक्षाकृत कुछ हल्का जनादेश कांग्रेस की ओर मुड़ा तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की भी जैसे जय-जय हो गई। कांग्रेस अध्यक्ष बनने के ठीक साल भर बाद राहुल गांधी का कद अब राजनीति के दिग्गजों की कतार में खड़ा है। नतीजों की शाम राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, “मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण पल 2014 का चुनाव था जिससे मैंने बहुत कुछ सीखा। मेरे लिए सबसे बड़े शिक्षक इस देश के लोग हैं। उन्हीं के संदेश के अनुसार देश चलाया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी और मौजूदा सरकार के लोग यही भुला बैठे। मोदी से मैंने सीखा कि क्या नहीं करना है।”
अगर राहुल की बातें मानें तो उन्हें देश के सामने दो सबसे बड़े मसले बेरोजगारी और कृषि संकट की अहमियत और चुनौतियों का एहसास है। उन्होंने कहा, “हमारी सरकारें बनते ही अपने वादे के हिसाब से किसान कर्जमाफी की प्रक्रिया शुरू कर देंगी। लेकिन कर्जमाफी बस तात्कालिक कदम है। कृषि की समस्या पेचीदी है और उसके लिए देश के लोगों और आर्थिक तंत्र को मिलकर नई राह खोजनी होगी और हम यह खोजेंगे।”
मुद्दों की धड़कन भांपने की परिपक्वता के साथ राहुल की छवि का विस्तार इससे भी आंका जा सकता है कि नतीजों और संसद के शीतकालीन सत्र के प्रारंभ के एक दिन पहले तमाम विपक्षी दिग्गजों ने उन्हें ही प्रेस को संबोधित करने को आगे किया और वे सब उनके साथ खड़े रहे। इन दिग्गजों में चंद्रबाबू नायडु, शरद यादव, शरद पवार, पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा, डी. राजा, द्रमुक के स्तालिन जैसे तमाम लोग थे। मौजूदा जनादेश राहुल गांधी की राह यकीनन और प्रशस्त कर सकता है, बशर्ते आगे वे अपनी पार्टी को नए ढर्रे पर चलाने में कामयाब हो पाएं? यह भी जरूरी है कि उन्हें और उनकी पार्टी को जनता के संदेशों का इल्म भी करीने से हो, ताकि उन नीतियों की तरफ मुड़ा जाए, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आए और लोगों के जीवन में उसका फर्क दिखे। उन्हें अर्थव्यवस्था का वह रुख भी मोड़ना पड़ सकता है, जिसके बनिस्बत खासकर यूपीए-2 सरकार के दौरान आर्थिक स्थितियां डांवांडोल होने लगी थीं, भ्रष्टाचार की खबरें छाने लगी थीं और कांग्रेस को चुनावों में अपने इतिहास का सबसे बुरा दौर देखने को मजबूर होना पड़ा था। वह मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी प्रदेशों में तो जैसे अपना जनाधार ही गंवा बैठी थी और लोकसभा में 44 सीटों तक सिमट आई थी।
यह भी सही है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्जमाफी और छोटे उद्योग-धंधों को तरजीह देने का कांग्रेस का वादा ज्यादा कारगर साबित हुआ है। इसके बदले किसानों के लिए भाजपा के वादों पर भरोसा करना शायद इसलिए भी मुमकिन नहीं हो पाया कि उसके राज में किसान आंदोलन उग्र हुए और सरकारें कोई खास नतीजा नहीं दे पाईं। मध्य प्रदेश में मंदसौर गोलीकांड में छह किसानों की मौत और राजस्थान में कई बड़े-बड़े किसान आंदोलनों से लोगों में शायद एक तरह का अविश्वास पैदा हो गया। फिर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पंद्रह साल के भाजपा राज की एंटी-इंकंबेंसी तथा लंबे समय तक शासन में होने से नेताओं का अहंकार भी नकारात्मक असर ले आया।
वैसे, भाजपा के लिए तो ये चुनाव बस इतना ही संतोष लेकर आए हैं कि वह अपने सबसे पुराने और महत्वपूर्ण गढ़ मध्य प्रदेश में अपनी जमीन बहुत गंवाने से बच गई। उसका मत प्रतिशत कांग्रेस से लगभग बराबरी कर रहा है। इसका श्रेय मध्य प्रदेश में भाजपा और संघ परिवार की गहरी जड़ों के साथ शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को भी दिया जाना चाहिए। हालांकि दलित उत्पीड़न और कथित गोरक्षकों के उत्पात ने समाज के अलग-अलग वर्गों में खटास और नाराजगी पैदा की। केंद्र के खासकर नोटबंदी और जीएसटी के फैसलों से सबसे अधिक रोजगार देने वाले क्षेत्रों कृषि, छोटे उद्योग-धंधों और विशाल अनौपचारिक क्षेत्र में तबाही देखने को मिली। यह असर इतना बड़ा था कि शिवराज के किसानों और कमजोर वर्गों के लिए राहत कार्यों का खास असर नहीं दिखा।
छत्तीसगढ़ में 2013 के पिछले विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस और भाजपा की सीटों में महज एक-दो सीटों का ही अंतर था। लेकिन कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की विदाई के बाद पार्टी काफी कमजोर लग रही थी। जोगी ने जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ नाम से अपनी पार्टी बना ली। इस बार अजीत जोगी शायद पहले यह चाहते थे कि कांग्रेस के साथ किसी तरह की व्यवस्था हो जाए लेकिन कांग्रेस ने इसे सिरे से खारिज कर दिया। यही नहीं, चुनावों में टिकट बंटवारे के पहले तक कांग्रेस में रहीं जोगी की पत्नी रेणु जोगी ने टिकट न मिलने पर कांग्रेस छोड़ी और जोगी जनता कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ीं। उसके बाद जोगी ने बहुजन समाज पार्टी की मायावती से गठजोड़ करके तीसरा मोर्चा बनाना चाहा। लेकिन कांग्रेस यह धारणा बनाने में कामयाब रही कि यह गठबंधन भाजपा की मदद के लिए वोट कटवा का काम करेगा। रमन सिंह भी लगातार कहते रहे हैं कि जोगी फैक्टर से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन लोगों को शायद पिछले बार के घटानाक्रम शायद भूले नहीं थे। सो, इस बार ऐसा जनादेश सुनाया कि जोड़तोड़ की नौबत ही न आए। राजस्थान में यह परंपरा रही है कि बारी-बारी से सरकारें बदली जाएं। लेकिन संघ परिवार के कट्टर तत्वों के उत्पात की घटनाओं ने शायद लोगों को नाराज किया। फिर समाज के अलग-अलग वर्गों में कई वजहों से नाराजगी भी भाजपा को भारी पड़ी। झालावाड़ जिले में झालरपाटन क्षेत्र से वसुंधरा राजे के खिलाफ कांग्रेस में हाल ही में आए पूर्व भाजपा नेता जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह को मिले करीब 75,000 मत संकेत हैं कि खासकर राजपूतों की नाराजगी ने फर्क पैदा किया है। इसी तरह जाट तथा अन्य वर्गों में भी नाराजगी भाजपा को भारी पड़ी। लेकिन असली मुद्दे बेरोजगारी, नोटबंदी, पेट्रोल-डीजल की महंगाई और गहराते कृषि संकट ही थे, जिनका भाजपा कोई तोड़ नहीं निकाल पाई। कुछ समय पहले वसुंधरा राजे ने कहा भी था कि गोरक्षकों का उत्पात और मॉब लिंचिंग की घटनाएं बढ़ती बेरोजगारी की वजह से हो रही हैं।
लेकिन तेलंगाना में मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने कृषि पर ज्यादा ध्यान दिया। राज्य में सिंचित भूमि का दायरा बढ़ाया है। किसानों को कर्जमाफी और तरह-तरह की रियायतें दीं। इससे शायद लोगों ने अपने परिवार को लाभ देने वाले उनके तौर-तरीकों को तवज्जो नहीं दी। हालांकि कांग्रेस ने तेलुगुदेशम, भाकपा और एक क्षेत्रीय दल को मिलाकर महाकुटमी (महागठबंधन) बनाकर तगड़ी चुनौती पेश की थी। लेकिन हो सकता है, तेदेपा नेता, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु को मिलती शह ने महागठबंधन के प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा कर दिया है। शायद उन्हें तेलंगाना और आंध्र के बीच तकरार की याद आ गई हो। लेकिन बड़ा मसला यह भी हो सकता है कि नायडु की छवि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण पर जोर देने वाले नेता की रही है। अविभाजित आंध्र प्रदेश के बतौर मुख्यमंत्री नायडु के राज में हैदराबाद तो सिलिकन वैली का पर्याय बना था मगर कृषि पर ज्यादा फोकस नहीं रहा था। हालांकि महाकुटमी के नेता ईवीएम में छेड़छाड़ और सरकारी मशीनरी के भारी दुरुपयोग का आरोप लगा रहे हैं।मिजोरम में दस साल बाद मिजो नेशनल फ्रंट की ओर जनादेश मुड़ा। कांग्रेस के मुख्यमंत्री ललथनहवला के खिलाफ नाराजगी इतनी जबरदस्त थी कि वे दो सीटों से चुनाव हार गए। वहां भाजपा का एक सीट पर खाता जरूर खुला। लेकिन मिजोरम और तेलंगाना में गैर-कांग्रेस पार्टियों की जीत से भाजपा को फायदा नहीं मिलने वाला है। मिजो नेशनल फ्रंट पहले ही भाजपा से किसी तरह के संबंध से इनकार कर चुका है। तेलंगाना राष्ट्र समिति भी भाजपा को टका-सा जवाब दे चुकी है। एआइएमआइएम के ओवैसी केसीआर को बधाई दे चुके हैं। हालांकि प्रधानमंत्री ने शायद लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखकर अपने ट्वीट में “केसीआर गारु (बड़े भाई) और मिजो नेशनल फ्रंट की जीत के लिए बधाई” दी।
दरअसल, इस समूचे जनादेश का संकेत यही है कि बेहिसाब शहरीकरण और औद्योगिकीकरण और बड़े उद्योग तथा कारोबारी घरानों की ओर झुकी नीतियां कारगर नहीं हैं। यह पहली बार नहीं है कि जनता ने ऐसा जनादेश सुनाया है। 2014 के आम चुनावों में भी मोदी के वादे किसानों को दोगुना दाम देने, साल में दो करोड़ रोजगार देने, भ्रष्टाचार मिटाने, काला धन वापस लाने (यानी क्रोनी कैपटलिज्म या याराना पूंजीवाद खत्म करने) और सबसे बढ़कर 'अच्छे दिन' लाने से संबंधित थे। मोदी सरकार ने योजनाओं-कार्यक्रमों की तो झड़ी लगा दी, लेकिन उसका कोई खास फल नहीं मिला। उलटे नोटबंदी और जीएसटी जैसे उसके फैसलों से रोजगार पर काफी बुरा असर पड़ा।
इन सबसे भाजपा सरकारों के खिलाफ माहौल पैदा हुआ। फिर कट्टर हिंदुत्ववादियों ने देश भर में मॉब लिंचिंग वगैरह का जो माहौल बनाया, उसने लोगों को और खफा किया। लेकिन इस जनादेश का सबसे बड़ा संदेश तो यही है कि अब कृषि और किसान फिर केंद्र में आ गए हैं। विकास की वह राह जो औद्योगिकीकरण और खासकर भारी उद्योगों के पक्ष में है, उसे लोगों ने खारिज कर दिया है। क्या यह संदेश जीती कांग्रेस और हारी भाजपा को समझ में आएगा?
बहरहाल, इन नतीजों ने भाजपा ही नहीं, विपक्ष के एजेंडे को भी तय कर दिया है। भाजपा को शायद अपने सहयोगी दलों को ज्यादा तरजीह देनी पड़े, क्योंकि ये चुनाव यह भी साबित कर गए कि न मोदी अब चुनाव जिताऊ जादू दिखा पा रहे हैं, न भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की 'चाणक्य नीति' और बूथ मैनेजमेंट कारगर रह गया है। यह भी बेमानी हो गया है कि संघ अपने कार्यकर्ताओं के जरिए बाजी पलट सकता है।
इन चुनावों का कोई गणित लोकसभा चुनावों के मद में बनता है तो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में करीब 40 सीटें भाजपा को गंवानी पड़ सकती हैं। उधर, किसी भी संभावित विपक्षी गठबंधन या महागठबंधन में कांग्रेस और राहुल गांधी की मोलतोल की स्थिति मजबूत हो जाएगी। जो भी हो, यह वाकई सेमीफाइनल साबित हुआ जिससे आम चुनावों के सूत्र खुल सकते हैं।