आखिरकार पूर्वोत्तर परदे पर पहुंचने में कामयाब हो ही गया। यह अलग बात है कि अभी इस पर संदेह का साया है। हाल ही में आई एक वेबसीरीज देख कर यही लगता है। शुरुआत होती है, दिल्ली के एक गेस्ट हाउस में नगा नेता के कटे हुए सिर मिलने के साथ। जांच की कड़ी नगालैंड पहुंचती है। दूसरी सीरीज है जिसमें तस्करों का एक गिरोह, ‘पूर्व के इलाकों’ से राजधानी आता है। यह गिरोह महिलाओं की खरीद फरोख्त करता है। फिल्मों या सीरीज में धमाके कहीं भी हों, खुफिया अधिकारी नगालैंड और अरुणाचल में इधर-उधर भागते नजर आते हैं ताकि ऐसे किसी भी षड्यंत्र को रोका जा सकें, जिस पर चीन समर्थित होने का अंदेशा हो।
लोकेशन भले ही दीमापुर, कोहिमा, या किसी अनजान सीमा पर बसे किसी शहर में बदलती रहे, लेकिन माहौल वही रहता है। कहानी में बड़ी गड़बड़ी के बाद ही पूर्वोत्तर दिखाई पड़ता है। तीन प्रसिद्ध ओटीटी फ्रेंचाइज सीरीज पर नजर डालिए। पाताल लोक (2020), दिल्ली क्राइम (2019) और द फैमिली मैन (2019)। सबमें पूर्वोत्तर ऐसे ही दिखाई पड़ा है। फौरी तौर पर संतोष किया जा सकता है कि देर से ही सही कम से कम ये प्रदेश मुख्यधारा में दिखाई पड़ रहे हैं, क्योंकि दशकों तक हिंदी सिनेमा ने इस क्षेत्र को या तो खूबसूरत नजारे वाले प्रदेश माना या सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में देखा। यहां तक कि जब मैरी कॉम जैसी शख्सियत पर बायोपिक बनी, तो भी उनकी भूमिका बॉलीवुड की ही प्रसिद्ध नायिका ने निभाई। बल्कि उनकी आवाज तक स्टूडियो में दोबारा गढ़ी गई।

दिल्ली क्राइम में शेफाली शाह
इनमें देखा जाए, तो स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म ने इस जड़ता को थोड़ा सा तोड़ा। पाताल लोक 2 में ऐसे पात्र हैं, जो नगा और असमिया बोलते हैं। किसी बॉलीवुड फिल्म के मुकाबले इसमें स्थानीय कलाकार हैं और इसके कई एपिसोड दिल्ली और ग्रामीण नगालैंड में फिल्माए गए हैं। दिल्ली क्राइम 3 में अंतरराज्यीय तस्करी नेटवर्क दिखाया गया है, जो पूर्वोत्तर से हरियाणा तक फैला हुआ है। फैमिली मैन 3, नगालैंड के उग्रवादी गुटों को दिखाता है। सीरीज के प्रमोशन के दौरान कलाकार कहते थे, वे भारत के उस हिस्से के लिए “न्याय” चाहते हैं, जिसे मुख्यधारा सिनेमा ने गलत ढंग से दिखाया।
यहां के दर्शकों के लिए यही संतोष है कि कम से कम अब वे दिखाई तो पड़ रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई लोगों को यह भी अजीब लगता है कि बाहर के लोगों के लिए उनकी पहचान एक ही है। इस कारण उनका मातृभाषा सुनने का रोमांच भी जाता रहता है। पूर्वोत्तर राज्य दिखाने का तरीका एक जैसा है। यह राज्य देश के किसी आम हिस्से की तरह नहीं दिखाया जाता। जहां, रोजमर्रा के काम हो, ऊब हो, रोमांस हो या छोटे-शहर की नोकझोंक या खुशी हों। बल्कि यह एक खतरे के रूप में दिखाई देता है। जहां, उग्रवाद, तस्करी, स्मगलिंग और जासूसी है। भले ही अब यह क्षेत्र फिल्मों या सीरीज से गायब न हो लेकिन अभी भी यह निगरानी के दायरे में ही दिखाई पड़ रहा है।
पूर्वोत्तर के साथ हिंदी सिनेमा का रिश्ता हमेशा से दूरी और असहजता के बीच झूलता रहा है। कई साल पूर्वोत्तर सिनेमा में हाशिए पर ही रहा। लेकिन ओटीटी को हर दिन कुछ नया चाहिए था। नई लोकेशन, नई भाषा, नया परिवेश। ऐसे में लेखक जब मुंबई-दिल्ली की घिसी-पिटी गलियों से निकलकर अपराध और राजनीतिक थ्रिलर्स के लिए अनजानी जमीन की खोज में निकले, तो भारतीय अन्य राज्यों के साथ लंबे और कठिन इतिहास वाले पूर्वोत्तर पर उनकी नजर पड़ी। ये राज्य हर दृष्टि से उनके लिए अनुकूल थे। यहां की राजनीति जटिल थी, पहचान में स्पष्टता नहीं थी इसके अलावा यहां कई तरह की असीम संभावनाएं थीं।
पाताल लोक 2 पहला बड़ा शो था जिसने पूरी कहानी इस राज्य आधारित की। सीजन की शुरुआत ही एक बिजनेस समिट में दिल्ली आए एक नागा राजनेता, जोनाथन थॉम (कगुइरोंग गोंमेई) की हत्या से होती है, जिसका क्रूर ढंग से सिर काट दिया गया है। फिर धीरे-धीरे जांच कहानी को नगालैंड के गांवों, संघर्षविराम शिविरों और कॉरपोरेट बोर्डरूम तक ले जाती है। इसके लेखन में चतुराई भरा कौशल है। एक लाश दिल्ली के आत्मसंतुष्ट केंद्र को उस परिधि से जोड़ता है, जिसे शायद ही कभी समझने की कोशिश की गई है।
इसमें पुरानी गलतियों से बचने का प्रयास भी साफ दिखता है। पात्र सामान्य प्रचलित पूर्वोत्तर शैली में हिंदी बोलने के बजाय स्थानीय भाषाएं बोलते हैं। यह सीजन लेखकों को ऐसा फ्रेम देता है, जिसे आसानी से दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। नगालैंड पुराने जख्मों और हथियारबंद गुटों के परिदृश्य सरीखा लगता है। लेकिन कहानी कहने के लिए वाकये वही होते हैं, जिन्हें मुंबई-दिल्ली के दर्शक पहले से जानते हैं, पुलिस फाइल, इंटरेरोगेशन रूम, कॉर्पोरेट मेमो, विकास की बातें। संघर्ष का मूल यह नहीं है कि नागालैंड को अपना भविष्य खुद तय करना चाहिए या नहीं, बल्कि यह है कि उसका असंतोष व्यावसायिक शिखर सम्मेलनों और शांति समझौतों में बदल पाएगा या देश की स्थिरता को खत्म करने वाली ‘बेवकूफी भरी’ हिंसा में बदल जाएगा।

फैमिली मैन में मनोज वाजपेयी
पूर्वोत्तर राज्य आ जाने से कहानी कहने में सुविधा होती है। जैसे-जैसे नक्शा पूर्व की ओर बढ़ता है, क्राइम थ्रिलर, लाशें, जांच और साजिश का परिचित ढांचा जस का तस रखा जा सकता है लेकिन नए परिवेश में। यही वजह है कि पाताल लोक 2 ब्लूप्रिंट बन जाता है, जो बाकी क्रिएटर्स को संकेत देता है कि वे भी पूर्वोत्तर का रुख कर सकते हैं, बशर्ते उनके पास एक केस फाइल हो। यह पैटर्न यही नहीं रुकता। दिल्ली क्राइम 3 और द फैमिली मैन 3, पाताल लोक 3 की हूबहू नकल तो नहीं है, लेकिन दोनों का ढांचा बहुत कुछ इसकी तरह ही है।
दिल्ली क्राइम 3 में, वर्तिका चतुर्वेदी (शेफाली शाह) की टीम पूर्वोत्तर से दिल्ली होते हुए हरियाणा तक फैली मानव तस्करी की कड़ी का पर्दाफाश करती है। द फैमिली मैन 3 इससे भी आगे जाता है। पूर्वोत्तर में हुए विस्फोट प्रधानमंत्री के शांति एजेंडे के लिए खतरा बन गया है। श्रीकांत तिवारी (मनोज बाजपेयी) एक अनुभवी विद्रोही नेता को समझौते को बनाए रखने के लिए मनाने नगालैंड जाता है, जबकि एक युवा कमांडर सब कुछ बर्बाद करने की तैयारी कर रहा है। पीछे के रास्तों से चीनी धन आ रहा है। यह शो विद्रोही समूहों के भीतर की दरारों पर ध्यान देता है और दिखावा नहीं करता कि दिल्ली के हाथ साफ हैं। फिर भी, कहानी कहने का ढंग वही बना रहता है कि पूर्वोत्तर वह क्षेत्र है, जहां बाहरी ताकतें दखल दे सकती हैं, जहां राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थानीय राजनीति एक-दूसरे में घुल जाते हैं।
अलग-अलग देखने पर, ये सीरीज सूक्ष्म और कभी-कभी गहरी सहानुभूतिपूर्ण लगती है। साथ देखें, तो वे एक शांत, लेकिन चुभती हुई प्रक्रिया पूरी करती हैं। ये दर्शकों को पूर्वोत्तर की घटनाओं को आपात स्थिति से जोड़ना सिखाती हैं। अपराध, उग्रवाद और षड्यंत्र स्वाभाविक प्रवेश बिंदु बन जाते हैं। रोजमर्रा की जिंदगी इस दायरे से बाहर हो जाती है।
एक बार जब इसकी आदत पड़ जाती है, तो यह कल्पना को संकुचित कर देती है जैसे कोहिमा की कोई प्रेम कहानी, जो सेना या किसी भूमिगत गुट के इर्द-गिर्द न घूमती हो, आइजोल की पृष्ठभूमि में कोई पारिवारिक नाटक, जो निगरानी के बजाय प्रवास या आस्था से जुड़ा हो। गुवाहाटी का कोई दफ्तर, जहां करिअर की बातें हों, दोस्ती हो या स्थानीय राजनीति पर चर्चा हो। लेकिन इन्हें पेश करना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि इसमें कोई रोमांच ही नहीं है, कोई खतरा ही नहीं है। ये साधारण कहानियां हैं। ‘साधारण’ ऐसा शब्द है, जिसे इस क्षेत्र से जोड़कर शायद ही पर्दे पर कभी दिखाया गया हो।
इन शो के बारे में यहां के स्थानीय लोगों से बात कीजिए। उनमें दो भावनाएं एक साथ चलती हैं। एक तरफ उन्हें राहत है कि उनका क्षेत्र दिखाया जा रहा है, दूसरी तरफ उनके सीने में कभी न खत्म होने वाली कसक है।
दूरदर्शन और मुख्यधारा के बॉलीवुड में पली-बढ़ी पुरानी पीढ़ी के लिए, यह राहत वास्तविक है। किसी बड़े धारावाहिक में किसी नगा या मिजो अभिनेता को देखना, जिसमें उनकी जानी पहचानी भाषा की खिल्ली न उड़ाई गई हो या किसी ऐसे गांव को पहचानना जो किसी पिक्चर पोस्टकार्ड जैसा न लगे। आइजोल के एक सेवानिवृत्त शिक्षक, मुआना कहते हैं, ‘‘कम से कम अब उन्हें पता है कि हमारा अस्तित्व है। वर्षों तक, हम पृष्ठभूमि में बस एक ‘‘पहाड़ी की तरह थे।’’ उनके मुकाबले आज की पीढ़ी ज्यादा स्पष्टवादी है। नागालैंड के शिलांग में कॉलेज के छात्र सोबोइएनला ने मजाक में कहा कि पहली बार है कि पूर्वोत्तर के पात्र ‘‘बॉम्बे’ के एक छात्रावास में अजीबोगरीब लहजे वाले रूममेट होने के अलावा भी कुछ और कर रहे हैं।’’
नाम न बताने की शर्त पर कोहिमा की एक शोध छात्रा बताती हैं, ‘‘हम कहानी में तभी क्यों आते हैं जब मेज पर बंदूक रखी होती है?’’ जबकि चिंता यह है कि यहां कभी न आने वाले या आए उनके सहपाठी या सहकर्मी, ये शो देख कर उन्हें समझने का शॉर्टकट मान लेते हैं। अगर नगालैंड को दिखाने के बारे में पहला ही दृश्य सिर कलम की हुई लाश, बम विस्फोट और विद्रोहियों और विदेशी आकाओं के बीच गुप्त बैठक का होगा है, तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि बाद में कभी इन राज्यों को आप पुस्तकालयों, फुटबॉल टूर्नामेंटों, शादियों और वृद्धाश्रमों की जगह के रूप में देखेंगे। बातचीत में सोबोइएनला मार्के की बात कहती हैं, ‘‘यहां सब पाताल लोक जैसा तो नहीं है, समझे?’’
इन कहानियों के निर्माण में शामिल लोग भी इस बात से वाकिफ हैं कि इनकी धार कितनी तीखी है। पाताल लोक 2 में मेघना बरुआ का किरदार निभाने वाली शोम को चिंता थी कि भाषा या हाव-भाव का गलत चुनाव उसी गलत बयानी को और पुख्ता कर सकता है जिसका वह विरोध करती हैं। इस तरह की चिंता परवाह बताती है। यह इस बात की भी स्वीकारोक्ति है कि जिस ढांचे में ये कहानियां कही जा रही हैं, वह पहले से ही एकतरफा हैं और व्यक्तिगत प्रयास केवल एक हद तक ही इसके विपरीत जा सकते हैं।
फिलहाल, कोई अभिनेता लय सही करने की कोशिश कर रहा है, कोई लेखक संदर्भ के लिए संघर्ष कर रहा है, कोई दर्शक धैर्यपूर्वक दोस्तों को समझा रहा है कि उसका घर वैसा नहीं है, जैसा सीरीज में दिखाया जा रहा है। कल्पना कीजिए, अगर कैमरा बिना केस फाइल के वहां पहुंच जाए। इसके लिए न थ्रिलर पर प्रतिबंध चाहिए, न ही खुशहाल कहानियों की कोई अनिवार्यता। इसे जो चाहिए वह कठिन है, पूर्वोत्तर को ऐसी जगह के रूप में देखना, जिसका अपना केंद्र हो न कि एक ऐसा मंच जहां दिल्ली की घबराहट परखी जाती है।
शुरुआतें मौजूद हैं, छोटी फिल्मों और सीरीज में। जहां दोस्ती, प्रवासन, भोजन, संगीत और स्मृति पर ठहरने की कोशिश होती है। ये आम दर्शकों तक कम ही पहुंचती हैं। ये दूसरा क्षितिज बनाती हैं, जहां कोहिमा या इम्फाल का कोई किरदार साधारण हो सके, नाराज हो सके, प्यार कर सके, नौकरी में असफल हो सके बिना किसी संघर्ष का भार ढोए।
मुख्यधारा के ओटीटी के लिए असली परीक्षा, साहस की नहीं कल्पना की है। क्या यह नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम या मेघालय को ऐसे ढंग से चित्रित कर सकता है, जो तुरंत खतरे या त्रासदी के रूप में समझ में न आए? क्या यह उग्रवाद और रोजमर्रा की जिंदगी को एक ही ढांचे में रख सकता है, बिना एक को पृष्ठभूमि और दूसरे को तमाशा बनाए? क्या यह उस क्षेत्र के लोगों को न केवल स्रोत, संदिग्ध या मार्गदर्शक के रूप के बजाय ऐसे लोगों के रूप में पेश कर सकता है जिनके डर और इच्छाएं पहले से ही किसी और की सुरक्षा ब्रीफिंग में शामिल न हों? ये सवाल किसी एक शीर्षक से कहीं आगे तक गए हुए हैं। पाताल लोक 2, दिल्ली क्राइम 3 और द फैमिली मैन 3 इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि ये विलेन नहीं, बल्कि वह मोड़ है जहां पूर्वोत्तर को स्ट्रीमिंग के नक्शे से और बाहर नहीं रखा जा सकता था। उन्होंने दशकों से बंद पड़े एक दरवाजे को खोल दिया। खतरा केवल यह है कि यह दरवाजा सिर्फ पूछताछ कक्ष में खुलता है। आगे और भी दिलचस्प काम बाकी है। ऐसी कहानियां कहना, जिनमें पूर्वोत्तर सिर्फ देखा न जाए, बल्कि वह देख भी सके।