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जनादेश 2022/उत्तराखंड: क्या टूटेगा मिथकों का सिलसिला

राज्य में चुनावी चर्चा के बीच कुछ ऐसे मिथक हैं, जो टूटने के बजाय और पुख्ता होते जाते हैं
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर धामी

उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के लिए कई बातें मिथक बन गई हैं। जैसे, राज्य गठन के बाद से अब तक यहां हुए चार चुनावों का इतिहास रहा है कि किसी भी दल की सरकार दोबारा सत्ता में नहीं आती, सूबे के गठन के बाद से अब तक शिक्षा मंत्री रहे सभी नेताओं को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा है और चुनाव में तो सिटिंग मुख्यमंत्री विधायक तक नहीं बन सके। दो सीट ऐसी हैं, जिन पर जिस दल का प्रत्याशी जीता उसी दल की सरकार बनी।

नवंबर 2000 में राज्य बनाने वाली भाजपा को दो साल बाद 2002 में सत्ता से हाथ धोना पड़ा। 2007 में कांग्रेस-भाजपा दोनों में से किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। लेकिन निर्दलीय विधायकों के सहयोग से भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई और कांग्रेस को सत्ता से बाहर रहना पड़ा। 2012 में भी सत्तारूढ़ भाजपा केवल एक सीट से पिछड़ी और कांग्रेस ने सरकार बना ली। 2017 में भाजपा ने 70 में 57 सीटें लेकर प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई। इसलिए अब सबकी नजरें 2022 के परिणाम पर टिकी हुई हैं।

पिछले तीन चुनावों में सिटिंग मुख्यमंत्री के विधायक भी न बन पाने का मिथक इतना तगड़ा है कि इस बार धामी का परिणाम देखने की उत्सुकता चरम पर है। वे खटीमा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। सिटिंग सीएम या तो चुनाव नहीं लड़े और लड़े भी तो पराजय का सामना करना पड़ा। 2007 के चुनावों में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने चुनाव नहीं लड़ा था। जबकि 2012 के चुनाव में तत्कालीन सीएम बीसी खंडूड़ी को कोटद्वार सीट से हार का सामना करना पड़ा था। इन सबमें दिलचस्प तो हरीश रावत का वाकया रहा। 2017 में मुख्यमंत्री रहते रावत ने हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा दो सीट से चुनाव लड़ा और दोनों पर ही उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। हार का सामना करने के मामले में केवल भगत सिंह कोश्यारी अपवाद रहे हैं। 2002 में वे भाजपा के टिकट पर राज्य की पहली निर्वाचित विधानसभा के सदस्य चुने गए। लेकिन सरकार बनाने का मौका कांग्रेस को मिला था।

सूबे के शिक्षा मंत्री के हारने का मिथक 2002 से चल रहा है। भाजपा की अंतरिम सरकार के शिक्षा मंत्री तीरथ सिंह रावत, कांग्रेस की एनडी तिवारी सरकार में शिक्षा मंत्री नरेंद्र सिंह भंडारी विधानसभा नहीं पहुंच सके थे। 2007 में खंडूड़ी सरकार के शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह बिष्ट भी 2012 में चुनाव हार गए। कांग्रेस सरकार में शिक्षा मंत्री रहे मंत्री प्रसाद नैथानी को भी 2017 में हार का सामना करना पड़ा। इस बार धामी सरकार में शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय गदरपुर सीट से चुनाव लड़ रहे हैं।

यहां तीन सीटें ऐसी हैं, जो सत्ता सुख के समीकरण बनाती रही हैं। ऐसी ही एक सीट गंगोत्री विधानसभा है। लोगों का मानना है कि जो भी सियासी दल इस सीट को जीतता है, सरकार उसी की बनती है। 2002 में कांग्रेस के विजयपाल सजवाण, 2007 में भाजपा के गोपाल रावत, 2012 में कांग्रेस के विजयपाल सजवाण, 2017 में फिर भाजपा के गोपाल सिंह रावत यहां से जीते थे और सरकार इनकी पार्टी की बनी थी।

कोटद्वार भी इस तरह के मिथक से अलग नहीं है। इस सीट से जिस दल का विधायक जीता सरकार उसी दल की सरकार बनी। 2002 में कोटद्वार से कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी विजयी रहे, तो कांग्रेस के एनडी तिवारी ने सरकार बनाई। 2007 में भाजपा के शैलेन्द्र रावत जीते, तो पार्टी ने खंडूड़ी के नेतृत्व में सरकार बनाई। 2012 में एक बार फिर कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी विजयी रहे और कांग्रेस की सरकार बनी। इसी तरह 2017 में कांग्रेस से बगावत करके भाजपा में आए हरक सिंह रावत विधायक चुने गए, तो सरकार भी भाजपा की बनी। इस बार इस सीट से कांग्रेस की ओर से एक बार फिर सुरेंद्र सिंह नेगी और भाजपा से बीसी खंडूड़ी की पुत्री रितु खंडूड़ी मैदान में हैं।

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में सिर्फ सत्ता से जुड़ा ही मिथक है। अल्मोड़ा जिले की रानीखेत सीट इन सारे मिथकों में एकदम अलग है। इस क्षेत्र की जनता जिसे जिता दे, समझ लीजिए उसकी पार्टी विपक्ष में रहेगी। 2002 में भाजपा के अजय भट्ट रानीखेत के विधायक बने तो सरकार कांग्रेस की बनी। 2007 में कांग्रेस के करन माहरा जीते तो सरकार भाजपा ने बनाई। इसी तरह 2012 में फिर भाजपा के अजय भट्ट जीते तो सरकार कांग्रेस की बन गई। वर्ष 2017 में तो गजब हुआ। मोदी लहर के दम पर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आने वाली भाजपा के दिग्गज प्रत्याशी अजय भट्ट यहां से चुनाव हार गए और कांग्रेस के करन महरा सदन में पहुंचे। 

इस बार भी 10 मार्च का बेसब्री से इंतजार है, ताकि पता चले कि उत्तराखंड चुनाव में बीस सालों से चले आ रहे मिथकों में से कोई टूटता है या फिर लोगों के विश्वास को और पुख्ता बना जाता है।

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