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स्मृति: जेंटलमैन से हीमैन तक का सफर

रोमांटिक हीरो से लेकर ढिशुम-ढिशुम वाली भूमिकाओं तक, धर्मेंद्र ने बॉलीवुड में, मर्दानगी और भाषा को अलग ही आकार और मुकाम दिया
धर्मेंद्र (8 दिसंबर 1935 - 24 नवंबर 2025)

धर्मेंद्र, जिस नाम से कभी हम उन्हें जानते थे, इस फानी दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। वे कैफी आजमी के लिखे, खैय्याम के संगीतबद्ध और उन पर फिल्माए, शोला और शबनम (1962) के गीत, ‘जाने क्या ढूंढती रहती है ये आंखें मुझ में, राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है’ की तरह हो गए हैं। बॉलीवुड में धर्मेंद्र आए, तो धीमी फुसफुसाहट की तरह थे लेकिन जल्द ही वे हिंदी सिनेमा जगत की ऊंची आवाज बन गए। उस समय, बॉलीवुड दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद और राजेंद्र कुमार की गहरी परछाईं से बाहर निकलने की कोशिश में था। फिर धर्मेंद्र आए, एकदम नए तरह के नायक की तरह। कोमल होते हुए भी प्रखर, संवेदनशील होते हुए भी बेहद खूबसूरत। एकतरफा प्यार के प्रतीक। उनके शुरुआती अभिनय में दिलीप कुमार जैसी दबी हुई शालीनता झलकती थी, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली। धर्मेंद्र ने मुख्य नायक की अवधारणा को नया रूप दिया, उसे नाजुक से विद्रोही, रोमांटिक स्वप्नद्रष्टा से अपरिष्कृत पुरुषत्व के अवतार में बदल दिया।

आम धारणा में, धर्मेंद्र की सिनेमाई उपस्थिति को भारतीय जनता पर तीन स्थायी प्रभावों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें से पहली और शायद सबसे प्रतिष्ठित शोले (1975) में वीरू की उनकी यादगार भूमिका है। याद कीजिए, शोले का वह खास दृश्य, जब वीरू पानी की टंकी पर चढ़ कर धमकी देता है कि अगर बसंती ने उसका प्यार स्वीकार नहीं किया तो वह खुदकुशी कर लेगा। वह दृश्य बॉलीवुड की पहचान बन गया। उस दृश्य ने हिंदी सिनेमा की भावनात्मक शब्दावली को बदल दिया। इस दृश्य की नाटकीय अतिश्योक्ति और हास्य ने निराशा को इतना नाटकीय बना दिया, जिससे नए सिनेमाई पैटर्न का जन्म हुआ। एकतरफा प्यार भावनात्मक दिखावे को सही ठहराया सकता था। नायक जुनून के तौर पर अतिवादी हाव-भाव दिखा सकता था। 

1980 के शुरुआती दशक तक, एक नया धर्मेंद्र जन्म ले चुका था, जो अपने पहले गाने ‘राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है’ को नकारता था। यह पुनर्जन्म लिया धर्मेंद्र अब कोमलता का प्रतीक नहीं रहा, बल्कि वह एक शेक्सपियरियन चरित्र बन गया, जो गुस्से और रोष से भरा था। जिसका फिल्म विद्वान कैरेन गैब्रियल ने बॉलीवुड की ‘यौन अर्थव्यवस्था’ के रूप में सटीक वर्णन किया है। इस दौर की उनकी कई फिल्मों की पंचलाइन अक्सर एक ही होता थी, ‘‘कुत्ते, कमीने, मैं तेरा खून पी जाऊंगा!’’ यह संवाद से ज्यादा, उत्तर भारत की लोकप्रिय कल्पना में पुरुषवादी अवज्ञा का रणघोष था। इस प्रबल आक्रोश के जरिए, ‘आम आदमी’ ने अपनी दबी हुई इच्छा को बाहर निकाला। वे कई ऐसी फिल्मों में मुख्य भूमिका में थे, जहां महिलाओं की इज्जत केंद्र में रहती थी। इन भूमिकाओं में धर्मेंद्र अपनी, गुस्से में चीखती ऊंची आवाज में दिखाई पड़ते थे। उत्तर भारत में शराब के नशे में होने वाली बातचीत में कभी-कभी दो छवियां, धर्मेंद्र और ‘कुत्ते खाने वाले’ छवि एक साथ मिल जाती थी। एक नस्लवादी चुटकुला हुआ करता था, ‘‘उत्तर-पूर्व के लोग और धर्मेंद्र के बीच क्या समानता है? क्योंकि दोनों कुत्तों का खून पीते हैं।’’

‘कुत्ता’ शब्द में नस्लीय भावनाएं छिपी थीं, जिन्हें जल्द ही भारत के उत्तर-पूर्व के समुदायों की ओर मोड़ दिया गया। इस हास्य की सहज क्रूरता गहरी सांस्कृतिक दरार को उजागर करती है, जो मुख्यधारा के भारत और परिधीय उत्तर-पूर्व के बीच विभाजन के रूप में आज भी बनी हुई है।

धर्मेंद्र के व्यक्तित्व का तीसरा आकर्षण, ताकत से नहीं, बल्कि भाषा से उभरा। मजाकिया ढंग से अंग्रेजी में हाथ तंग और उर्दू पर महारत। चुपके चुपके (1975) में, हिंदी और अंग्रेजी को लेकर ओम प्रकाश के साथ उनकी बहस औपनिवेशिक भारत के बाद की शिकायत थी। इस बातचीत में, अंग्रेजी भाषा को उसकी औपनिवेशिकता के लिए आड़े हाथों लिया गया और अवैज्ञानिक व्याकरण के लिए उस भाषा का मजाक उड़ाया गया। मजाकिया अंदाज में धर्मेंद्र ने इसे इतने अच्छे ढंग से बताया कि भारत के हिंदी भाषी अपनी भाषाई गरिमा पर गर्व कर सके।

लेकिन धर्मेंद्र के व्यक्तित्व की इससे भी ज्यादा बारीक बात उर्दू से उनका रिश्ता था। वे सहजता से उर्दू बोलते थे। उनकी आवाज में लयात्मक कोमलता के साथ अलग अंदाज था। उनके तलफ्फुज और बिना अटके उर्दू बोलने के अंदाज से कई लोगों को लगता था वे मुसलमान हैं। गहरे विभाजित समाज में, भाषाई दुनिया के बीच इस तरह का निर्बाध आवागमन अलग था। पंजाब से आए एक सिख, भारत के उस पुराने, धुंधले होते दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करने लगे, जिसमें पहचान अभी भी एक पुल थी, सीमा नहीं।

कहते हैं, बहुभाषी होना कई जीवन जीने के समान है। धर्मेंद्र की भाषायी बहुलता ने उन्हें वह शक्ति प्रदान की। फिर भी, इतिहास की विडंबना यह रही कि 1990 के दशक में वे भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए, जो इस संकरता से चिंतित थी, जिसके वे प्रतीक थे। वह व्यक्ति जिसने कभी उर्दू को उसकी सबसे रोमांटिक प्रतिध्वनि दी थी, अब उस राजनीति के बीच खड़ा था, जो इस भाषा को विदेशी मानती थी। आज उस सांस्कृतिक समन्वयवाद का शोला और चिंगारी स्मृति की राख में कहीं दबी पड़ी है, जब वह लिप-सिंक करते हुए कहते थे, ‘राख के ढेर में शोला है न चिंगारी है।’

(लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में मीडिया अध्ययन पढ़ाते हैं।)

 

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