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स्मृति: मानवी सभ्यता का सिद्धांतकार

सच्चिदानंद जी के विचार बहुत बाद में वैश्विक चर्चाओं का विषय बने
सच्चिदानंद सिन्हा (30 अगस्त 1928-19 नवंबर 2025)

अपने मौलिक विचारों से समाजवादी चिंतन को नया फलक देने वाले सच्चिदानंद सिन्‍हा का 97 साल की उम्र में निधन उस वैचारिक परंपरा का अंत जैसा है, जो कम से कम पिछली दो सदियों से शोषण-मुक्‍त समाज निर्माण के विविध आयामों को विस्‍तार दे रही थी, जिसने 20वीं सदी में अनेक नए विचारों के प्रस्‍फुटन की उर्वर जमीन तैयार की। उसके विविध आयाम और विस्‍तार औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की हमारी आजादी की लड़ाई में हर क्षेत्र में व्‍यापक दिखते हैं। सच्चिदा जी के विचारों के बीज उसी दौरान पड़े थे। वे मजदूर आंदोलन और समाजवादी आंदोलन से पूरी सक्रियता से जुड़े, लेकिन उनकी दुनिया विचारों की ही रही। उनकी दो दर्जन से ज्‍यादा किताबें अंग्रेजी और हिंदी में हैं। कला से लेकर सामाजिक, राजनैतिक, अर्थव्‍यवस्‍था जैसे विविध विषयों पर उनकी किताबें उनके रचना आकाश की गवाही देती हैं। उन्‍होंने पंछियों पर भी लिखा और बाल साहित्‍य भी। लेख तो अनगिनत हैं। छपने और प्रचार-प्रसार के प्रति उनके अपरिग्रह के बावजूद उनकी किताबें आज अनुपलब्‍ध हैं। इधर अरविंद मोहन की कठिन मेहनत से ‘सच्चिदानंद सिन्‍हा रचनावली’ आठ खंडों से प्रकाशित हुई। हालांकि अभी भी उनके बहुत सारे काम किसी जिल्‍द में नहीं आ सके हैं। 

उनके विचार बहुत बाद में वैश्विक चर्चाओं का विषय बने, अलबत्ता उनका न जिक्र है, न कभी उन्‍होंने इसकी परवाह की। ’80 के दशक में ही उन्‍होंने अपनी किताब ‘इंटर्नल कॉलोनी’ या आंतरिक उपनिवेश में इसे पूंजीवाद की अनिवार्यता बताया था। बाद में ‘डिपेंडेंसी’ का सिद्धांत आया। पूंजीवाद बाह्य उपनिवेश उपलब्‍ध न हो, तो आंतरिक उपनिवेश तैयार करता है और उसी पर फलता-फूलता है। आज उसके नजारे देश में कई राज्‍यों में बेहद कुरूप ढंग से दिखते हैं, जो कुछेक समृद्धि के द्वीपों के लिए प्राकृतिक संसाधन और मजदूर मुहैया कराने के साधन बनकर रह गए हैं। हाल के बिहार चुनावों में रोजी-रोटी के लिए पलायन पहली बार बड़ा मुद्दा बना तो आंतरिक उपनिवेश राजनीति के विमर्श में आ गया है।

उससे पहले उन्‍होंने जाति व्‍यवस्‍था पर अपनी चर्चित किताब ‘कास्‍ट सिस्‍टम: मिथ, रियल्‍टी ऐंड चैलेंज’ में अपने गहन अध्‍ययन से जाति को लेकर कई धारणाओं को तोड़ा। उन्‍होंने बताया कि जातियों के पदानुक्रम तो एक जैसे रहे हैं, मगर स्‍थान और हैसियत के मुताबिक उनमें बदलाव होता रहा है। मसलन, एक ही कुल परंपरा के लोग किसी इलाके में हैसियत के मुताबिक ऊंची जाति में और दूसरे इलाके में मध्‍य या निचली जातियों में स्‍थापित होते रहे हैं। वे उदाहरणों के साथ बताते हैं कि 17वीं शताब्‍दी तक इसके स्‍पष्‍ट संकेत मिलते हैं। उसी संदर्भ में वे आरक्षण को भी देखते हैं। उन्‍होंने इन सवालों पर तब विस्‍तृत अध्‍ययन और विचार पेश किया, जब अकादमिक दुनिया इससे विरत थी।

इसी तरह ‘बिटर हार्वेस्‍ट’ में उन्‍होंने हरित क्रांति के दुष्‍परिणामों और पर्यावरण के मुद्दों को तब उठाया जब उसकी कहीं चर्चा नहीं थी। फिर, ‘कोआलिएशन इन पॉलिटिक्‍स’ में उन्‍होंने राजनीति में गठबंधनों की अनिवार्यता की बात की, जो ’90 के दशक के बाद राजनीति में प्रचलित हुआ। उनकी किताब ‘सोशलिज्‍म ऐंड पावर’ समाजवाद और सत्‍ता के संबंधों पर विस्‍तार से चर्चा करती है और उसकी विकृतियों-विकारों से आगाह करती है। ‘इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव’ और ‘परमानेंट क्राइसिस ऑफ इंडिया’ में देश के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्‍कृतिक पहलुओं और गंभीर समस्‍याओं पर नई दृष्टि है।

हिंदी में ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’, ‘जिंदगी सभ्यता के हाशिए पर,’  ‘संस्कृति और समाजवाद’, ‘विकास, विनाश और विकल्प' जैसी कृतियां आधुनिकता, पूंजीवाद, उपभोक्‍तावाद और राष्ट्र-राज्य से पैदा संकटों और उसके समाधान की ओर इंगित करती है, जो भारतीय अनुभवों और सांस्कृतिक धरातल से गहराई से जुड़ा है। भारत के संबंध में राष्‍ट्र की व्‍याख्‍या वे एकदम नए ढंग से करते हैं। वे तमाम उदहरणों और साक्ष्‍यों से बताते हैं कि यह पश्चिम के देशों जैसा राष्‍ट्र-राज्‍य नहीं है और बनाया भी नहीं जा सकता। यहां सांस्‍कृतिक एकता और सामासिक समाज है। इसकी यह विविधता इसे एक डोर में भी बांधती है।

उनकी किताब ‘केऑस ऐंड क्रिएशन’ कला और सृजन की विशद विवेचना है, जो कला के छात्रों से लेकर गंभीर अध्‍येताओं के लिए भी बेहद उपयोगी है। कला, साहित्‍य, विचारों में गहरी रुचि से उन्‍होंने जर्मन और फ्रेंच में भी महारत हासिल की और अल्‍यबेर कामू के नाटक का हिंदी में अनुवाद किया।

इस तमाम गंभीर अध्‍ययन, रचना-कर्म और नई वैचारिक दृष्टि के बावजूद सच्चिदा जी का अकादमिक जगत से कोई नाता नहीं था, न उन्‍होंने कभी इसकी परवाह की। उन्‍हें एकाध बार किसी विश्‍वविद्यालय और उच्‍च शिक्षा संस्‍थान में आने की पेशकश भी हुई तो विनम्रता से ठुकरा दिया। वे हमेशा लेखक, राजनैतिक कार्यकर्ता ही बने रहे, कोई पद या पदवी कभी नहीं ली। वे पर्चे, पोस्‍टर भी लिखते रहे। शुरू में झारखंड और मुंबई में मजदूर संगठनों के लिए काम करने के दौरान उन्‍होंने कुली और खलासी के काम भी किए। बाद में समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया के कहने से पार्टी के अंग्रेजी मुखपत्र ‘मैनकाइंड’ के संपादक मंडल से भी जुड़े।

वे ऐसे मनीषी थे, जो सोचा, जो लिखा, वैसा ही जीवन जिया। आखिर तक अपना सब काम खुद करते रहे। शायद वे कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़कर (बीएससी प्रथम वर्ष) समाज-निर्माण के लिए राजनीति में उतरने वाले वैचारिक क्षेत्र के भी आखिरी आदमी थे। निपट सादगी में जीने वाले सिद्धांतकार भी। उनके साथ मानो वह दौर भी अलविदा कह गया।

 

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