सच्चिदानंद सिन्हा 19 नवंबर को इस दुनिया को अलविदा कह गए। 30 अगस्त 1928 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के परसौनी गांव में एक जमींदार परिवार में जन्मे सच्चिदानंद सिन्हा के मानस की रचना शुरू हुई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दृश्यों, घटनाओं से, आजादी के संघर्ष से। उनके परिवार में राजनीति रची-बसी थी, लेकिन विचारों की स्वतंत्रता प्रखर थी। स्वतंत्रता-संग्राम में सक्रिय पिता और नाना के संस्कारों ने बचपन से ही उनके भीतर राष्ट्रीय चेतना की लौ जगा दी। वे मुजफ्फरपुर कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही आंदोलन की गतिविधियों से जुड़ गए। 1946 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान वे पटना साइंस कॉलेज के छात्र थे, उन्होंने दंगा-प्रभावित बस्तियों में पहुंचकर राहत और सेवा का काम किया। उन्होंने हजारीबाग में कोयला खदान मजदूरों के यूनियन में काम किया। फिर मुंबई चले गए। वहां सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े। शुरुआत में वे मिल मजदूर सभा में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। मुंबई में सोशलिस्ट ग्रुप के स्टडी सर्किल/अध्ययन केंद्र में उन्हें समाजवाद पर विश्वभर में लिखी महान पुस्तकों का अध्ययन करने का अवसर मिला। उसी अवधि में उनकी पहली पुस्तक ‘समाजवाद के बढ़ते चरण’ की नींव पड़ी, जिसे उन्होंने मुंबई से लौटने के बाद लिखा।
सच्चिदा जी की यात्रा मुजफ्फरपुर, पटना, हजारीबाग, मुंबई होते हुए मुजफ्फरपुर के गांव मणिका पहुंची। वहां खेती करने और करवाने का जिम्मा करीब बारह वर्ष निभाने के बाद उन्होंने दिल्ली प्रस्थान किया। दिल्ली में वे मूल रूप से समाजवादी आंदोलन के लिए कार्यरत रहते हुए नए उभरते युवाओं का मार्गदर्शन करते रहे। इसी प्रवास के दौर में उन्होंने ज्यादा किताबें लिखीं और अंग्रेजी तथा हिंदी में गंभीर वैचारिक सिद्घांतों को कलमबद्घ किया।
18 वर्षों के दिल्ली प्रवास के बाद मुजफ्फरपुर के मणिका गांव लौटने के बाद भी वे निरंतर लिखते-पढ़ते रहे। गांव के वंचित जन के लिए सदैव खड़े रहे। समाजवादी आंदोलन के भी एक सजग कार्यकर्ता बने रहे, जिसकी पैनी नजर समाजवादी आंदोलन की गतिविधियों के साथ साथ वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों पर भी रही। वह सदैव सत्य के साथ खड़े रहे। उन्होंने जो लिखा, जो कहा वह जिया भी। कभी अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया।
सादगी उनके व्यक्तित्व ऐसी थी, जिसे देखकर लोग चकित रह जाते। वे जितने निम्न संसाधनों में जीते रहे, वह अकल्पनीय है। उन्होंने कभी किसी भी प्रकार का कोई पद ग्रहण नहीं किया। न ही कोई पुरस्कार या सम्मान स्वीकारा। उनके भीतर कभी किसी तरह का आग्रह नहीं देखा गया।
(शेफाली उनकी जीवनी पर काम कर रही हैं)