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नए राज्य/दो दशक: तीन राज्यों की वृहत्त विकास यात्रा

विकास के तर्क पर बने उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ बने परिवर्तन के साक्षी
नए गठिन तीन राज्यों में उत्तरांचल ने की खासी प्रगति

उत्तराखंड, झारखंड, छत्तीसगढ़ ये तीनों राज्य सन 2000 में एक साथ बने। इनके बनने के पीछे तर्क था कि ये तीनों ही राज्य क्रमशः उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के हिस्से थे। जिसके कारण इन क्षेत्रों का विकास नहीं हो पा रहा था। इनके लिए राजधानियां हाइकोर्ट तथा अन्य राज्य स्तरीय कार्यालय काफी दूर थे। राज्य और केंद्र द्वारा चलाई जा रही विकास परियोजनाएं भौगोलिक हाशिये पर होने के कारण उन तक ठीक से पहुंच नहीं पाती थीं। जिन क्षेत्रों को लेकर ये राज्य बनाए गए थे, उन क्षेत्रों में कुछ एक समानता रखने वाले सामाजिक समुदाय वास करते हैं। झारखंड और छत्तीसगढ़ के क्षेत्रों में जनजातीय समूहों की आबादी रहती है, वहीं उत्तरांचल में पहाड़ की ठंडी जलवायु में रहने के अभ्यस्त सामाजिक समुदाय रहते थे। इनको बनाते समय यह माना गया था कि छोटे राज्य होने के कारण इनमें विकास एवं सामाजिक परिवर्तन का प्रबंधन आसान होगा। राज्यों की वृहत्ता विकास में बाधा भी बनती है। यह तर्क भारतीय संविधान बनने के समय से चर्चा में रहा है। भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर स्वयं भी छोटे राज्यों के पक्ष में थे। वे उत्तर प्रदेश की वृहत्ता को उसकी अन्य समस्याओं का कारण मानते थे। इन्हीं तर्कों के आधार पर ये तीनों राज्य एक साथ बने थे। इन्हें बने बीस वर्ष या दो दशक हो गए।

इन दो दशकों में इन तीनों राज्यों की राजनीति, विकास एक सामाजिक परिवर्तन में क्या घटित हुआ। इस पर आज विचार किया ही जाना चाहिए। एक बात, तो हुई कि इन तीनों राज्यों की जनता की यह शिकायत दूर हो गई कि हमारा विकास इसलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि दूरस्थ होने के कारण हम सत्ता, सरकार और प्रशासन की चिंताओं के हाशिये पर हैं। अब एक तरह से इन्हीं के बीच से उभरा नेतृत्व और राजनीति के हाथ में इनके विकास का बागडोर है।

आइए सबसे पहले पिछले 20 वर्षों में उत्तरांचल के विकास राजनीति और सामाजिक परिवर्तन पर बातें करते हैं। उत्तर प्रदेश के 93 प्रतिशत पर्वतीय एवं 64 प्रतिशत पर्वतीय वन क्षेत्रों को मिलाकर नौ नवंबर, 2000 को उत्तराखंड राज्य बनाया गया। उत्तराखंड को बाद में चलकर उत्तरांचल का नाम दिया गया। उत्तरांचल ने अपनी स्थापना के 20 वर्षों में उल्लेखनीय प्रगति की है। इसने औसतन 10 प्रतिशत आर्थिक विकास दर प्राप्त किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, जन्म, मृत्यु दर जैसे अनेक मानको के आधार पर इसकी विकास की गति प्रभावी रही है। इसे नारायण दत्त तिवारी, वी.सी. खंडूरी, हरीश रावत, डॅा. रमेश पोखरियाल निशंक जैसे लोकप्रिय जन नेताओं का नेतृत्व प्राप्त हुआ। अभी भाजपा के त्रिवेन्द्र सिंह रावत के नेतृत्व में उत्तराखंड अपने विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने में लगा है। उत्तराखंड में राजनीति की बात करें, तो उसे अपनी स्थापना के समय ही नारायण दत्त तिवारी जैसे दूर दृष्टि वाला अनुभवी प्रशासक मिल गया था। फिर उसे लगातार ही विकास के आकांक्षी मुख्यमंत्री मिले जिन्होंने नए राज्य बनने की जो समस्याएं होती हैं, उनसे उसे निजात दिलाने में मदद की। उत्तराखंड बनने के बाद तीन बड़ी समस्याएं खड़ी थीं। पहली बिजली, दूसरी सड़क और तीसरी पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण इसे 'खाद्य' उत्पादों के लिए आत्मनिर्भर बनाना। डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जब मुख्यमंत्री बने तो 'खाद्य आत्मनिर्भरता’का प्रश्न उन्होंने महत्वपूर्ण ढंग से उठाया। उन्होंने उत्तर प्रदेश के तराई के हिस्से के एक भाग हरिद्वार तथा आस-पास के हिस्से को उत्तराखंड में शामिल कराया। जिससे उत्तराखंड के पास चावल, गेहूं, इत्यादि उपजाने वाला एक महत्वपूर्ण भू भाग मिल गया। बिजली, पानी, सड़क की समस्याओं के समाधान में अन्य मुख्यमंत्रियों की भूमिका क्रमशः महत्वपूर्ण रही है लेकिन उत्तराखंड के मानवीय संसाधनों के प्रबंधन और विकास में डॉ. रमेश पोखरियाल ने महत्वपूर्ण गति दी। वे चूंकि स्वयं उसी समाज एवं जमीन से जुड़े थे, अतः वहां के पारंपरिक ज्ञान, हस्त कौशल एवं देशज शक्ति का उन्हें बेहतर ज्ञान था। अतः उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तराखंड के लोक समाजों के देशज कला, कौशल एवं पारंपरिक ज्ञान का विकास एवं विस्तार कर उन्हें आधुनिक बाजार एवं आधुनिक जरूरतों से जोड़ा। वहां के शिक्षा संस्थानों की बेहतरी के प्रयास उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में किए। अब भारत के शिक्षामंत्री होने के बाद उन्होंने देश के अन्य भागों को शैक्षिक रूप से आगे बढ़ने के साथ उत्तरांचल के शैक्षिक विकास को भी गति दी है। यहां उन्हीं के प्रयासों से राष्ट्रीय स्तर के सूचना प्रौद्योगिकी के नए संस्थान खोले जा रहे हैं।

ये तीनों ही राज्य देशज कौशल एवं लोक उद्यमों के विकास के लिए अत्यंत संभावनाशील क्षेत्र माने जाते हैं। झारखंड में जहां लगभग 28 प्रतिशत के आसपास जनजातीय आबादी है। खनिज संपदा के लिए अत्यंत धनी माना जाने वाला यह क्षेत्र अब तक झारखंड मुक्ति मोर्चा एवं भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में विकास की चुनौतियों के समाधान में लगा है। विकास की गति, शिक्षा एवं अन्य मानवीय सूचकांकों के दृष्टिकोण से आगे बढ़ते जाने के बावजूद यह राज्य अभी भी अपनी अनेक समस्याओं के समाधान में लगा है। राजनीतिक भ्रष्टाचार का इसका नासूर अब लगभग ठीक हो चला है। हेमंत सोरेन जैसा युवा नेतृत्व यहां के देशज उत्पादों, कला और कौशल एवं खनिज शक्ति के बेहतर प्रबंधन की कोशिश में लगा हुआ है। महिलाओं के बेहतर जीवन और शिक्षा के लिए झारखंड लगातार प्रयासरत है। महुआ माझी जैसी संवेदनशल महिला उपन्यासकार के नेतृत्व और सघन हस्तक्षेप से अंधविश्वास के कारण महिलाओं पर होने वाले अत्याचार कम हुए हैं। रांची से विकास एवं प्रशासन के प्रबंधन के कारण नक्सल समस्या पर भी इधर अंकुश लगा है।

छत्तीसगढ़ भी सघन जनजातीय आबादी वाला क्षेत्र है। यहां लगभग 30  प्रतिशत के आसपास जनजातीय जनसंस्था वास करती है। राज्य बनने के बाद यहां भी विकास की गति तेज हुई है। लेकिन छत्तीसगढ़ के विकास में जनजातीय सक्रियता बढ़ानी ही होगी। वहां के विकास की दृष्टि में केंद्रीय योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करने के साथ ही स्थानीयता केंद्रित विकास की दृष्टि को और ज्यादा मजबूत करना होगा। रमन सिंह के समय में वहां, जो विकास के कार्य हुए हैं, उन्हें अग्रसारित करते हुए भूपेश बघेल सरकार को छत्तीसगढ़ के विकास के स्थानीय स्वरूप को खोजना ही होगा। 'जनजातीय कौशल’ज्ञान को वहां के विकास क्षमता के केंद्र में लाना होगा। नक्सलवादी समस्या वहां अभी भी गहरी है। नक्सलपंथी हिंसा समय-समय पर अपना रूप दिखा ही रही है। वहां के राजनीतिक नेतृत्व ने हालांकि इसके समाधान के लिए अनेक रचनात्मक प्रयास भी किए है, लेकिन उन्हें अभी भी विकास जनित असंतुलन को कम करना ही होगा। अजीत जोगी हालांकि स्वयं भी हाशिये के समुदाय से जुड़े थे। उनसे अपेक्षा भी कि वो इन समूहों के विकास की आधारशिला रखेंगे। उन्होंने प्रयास भी किए लेकिन छत्तीसगढ़ के विकास के संदर्भ में अभी बहुत कुछ होना बाकी है।

अविकास के असंतुलन को कम करने के लिए बने ये तीनों राज्यों में तुलनात्मक रूप से देखें तो उत्तराखंड में विकास का प्रबंधन ज्यादा सुव्यवस्थित प्रतीत होता है। छत्तीसगढ़ और झारखंड लगभग एक जैसी समस्याओं एवं संभावनाओं से गुजर रहे है। छोटे राज्य से विकास संबंधी समस्याओं के समाधान में कहीं गति मिली है, तो कहीं कहीं अभी गति मिलना बाकी है। अगर हम इन तीनों राज्यों के विकास का इतिहास का तुलनात्मक अध्ययन करें, तो यह कहा जा सकता है कि छोटे राज्य का निर्माण कोई ताबीज नहीं है, जिसमें समस्याएं छूमंतर हो जाए। विकास की चुनौतियों से जद्दोजहद, तो हमें करना ही होगा।

 

(लेखक जी.बी.पंत समाज विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं)

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