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तिब्बत नीति का राज

वाजपेयी ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था, मोदी के पास उस फैसले की समीक्षा का मौका
पी.एन. मेनन 1959 में दलाई लामा को बोमडिला लेकर आए

निरुपमा मेनन राव 2008 में बीजिंग में भारत की राजदूत थीं। एक रात उन्हें चीन के विदेश मंत्रालय से बुलावा आया। किसी राजनयिक के लिए रात के दो बजे कड़ी फटकार मिलना सामान्य नहीं होता। यहां भी इसके पीछे कुछ अहम कारण थे। उस वर्ष ओलंपिक खेल बीजिंग में होने थे और तिब्बती शरणार्थी भारत के शहरों में ओलंपिक मशाल ले जाने का विरोध कर रहे थे। उनके विरोध पर नाराजगी जताने के लिए ही चीन ने देर रात भारत के राजदूत को बुलाया था। वह तिब्बत से दलाई लामा के निर्वासन का 50वां साल भी था। जैसा 2006 में राष्ट्रपति हू जिंताओ की भारत यात्रा से पहले हुआ था, इस बार भी तिब्बत और पड़ोसी राज्यों में हिंसा भड़क उठी थी, भारत के विभिन्न इलाकों में तिब्बती शरणार्थी विरोध प्रदर्शन और आत्मदाह कर रहे थे। चीन को अप्रसन्न करने के लिए यह काफी था।

चीन का मानना था कि तिब्बती शरणार्थियों के विरोध के पीछे भारत की मिलीभगत है। निरुपमा राव, जो अगले साल भारत की विदेश सचिव बनीं, ने उन्हें समझाया कि भारत जैसे लोकतंत्र में इस तरह का विरोध प्रदर्शन सामान्य है। यहां तक कि भारत सरकार के विरोध में भी प्रदर्शन होते हैं। दोनों पक्षों के बीच जो भी बात हुई, उससे इतर एक और कहानी छपी थी। अभी की तरह उस समय भी चीन इस बात से भलीभांति वाकिफ था कि भारत ने भले ही तिब्बत कार्ड कभी खुलकर नहीं खेला, लेकिन 1962 से यह कार्ड किसी न किसी रूप में खेला जा रहा है।

तिब्बती शरणार्थियों को प्रत्यक्ष समर्थन से भारत हमेशा इनकार करता रहा है। लालबहादुर शास्त्री और अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक सबने ऐसा किया है। वाजपेयी ने तो 2003 में  औपचारिक तौर पर तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था और मोदी 2018 में दलाई लामा के 50वें जन्मदिन पर उन्हें शुभकामना तक नहीं दे सके थे। दरअसल, तिब्बत का नाम न लेने के पीछे भारत की ख्वाहिश थी कि सीमा पर शांति बनी रहे।

रणनीतिक रूप से देखें तो इस तरह खामोशी बनाए रखना अदूरदर्शी साबित हुआ। लेकिन यह खामोशी खुफिया और रणनीतिक समुदाय में नहीं थी। उन तिब्बतियों में तो बिल्कुल नहीं जो 1955 में माओ जे-दोंग की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की क्रूरता के कारण पलायन के लिए मजबूर हुए थे। तब चीन ने जबरन तिब्बत का विलय कर लिया था और उसके सैनिक ल्हासा तक पहुंच गए थे। वहां दलाई लामा के नोरबूलिंगका महल और अनेक मठों को नष्ट कर दिया, लूटपाट की, स्थानीय पशुपालकों को खदेड़ दिया, भू-स्वामियों पर अतिरिक्त टैक्स लगा दिया और ‘लोगों के खिलाफ अपराध करने’ के आरोप में उन्हें प्रताड़ित किया।

चीन की इस कार्रवाई के कारण पलायन करने वाले तिब्बती बदले की भावना से भरे हुए हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि पलायन करने वाले सैकड़ों लोग ‘अखिल तिब्बती प्रतिरोध बल’ के सदस्य बने। इनमें तिब्बत के खाम और आमदो इलाकों के लोग थे। खुद दलाई लामा चीनी सेना से बचने के लिए 14 दिनों तक खतरनाक पहाड़ी इलाकों में थे। उन्हें ल्हासा में भारत के प्रतिनिधि पी.एन. मेनन बोमडिला (अरुणाचल प्रदेश) लेकर आए थे। पीएन मेनन डॉ. मनमोहन सिंह सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे शिवशंकर मेनन के पिता हैं।

अब जब चार महीने से भारत और चीन के बीच जारी गतिरोध सीधे टकराव तक पहुंच गया है, 31 अगस्त को लद्दाख के चुशूल में ब्लैक टॉप को भारतीय सेना ने अपने नियंत्रण में ले लिया। इस ऑपरेशन की बागडोर स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) के पास थी। यह एक खुफिया तिब्बती बल है। चुशूल घाटी, जहां 1962 में भारतीय सेना ने चर्चित ‘अंतिम व्यक्ति, अंतिम राउंड’ लड़ाई लड़ी थी, में जीत ने इस यूनिट को रातों-रात मशहूर बना दिया।

इस यूनिट में कौन लोग हैं? एसएफएफ के मूल अवतार ‘एस्टैबलिशमेंट 22’ में प्रतिरोध बल से तिब्बती लिए गए थे। 50 के दशक के मध्य में उन्होंने कम्युनिस्ट चीन का विरोध किया था। अमेरिका के राष्ट्रपति डी. आइजनहॉवर और सीआइए डायरेक्टर के रूप में उन्हें दो मेंटॉर मिले थे। इन दोनों ने तिब्बतियों के विद्रोह का समर्थन किया था। तिब्बतियों को यह समर्थन नेहरू से नहीं मिल सका था। दलाई लामा को भारत में शरण देने के बाद उनके साथ एक बैठक में नेहरू ने कहा था, “आप कहते हैं कि आप को आजादी चाहिए और इसके साथ आप खून खराबा भी नहीं चाहते। यह असंभव है!”

पीएलए ने तिब्बतियों के धार्मिक प्रतीक तहस-नहस कर दिए थे। बाद में उन पर हान संस्कृति भी थोपी गई। नतीजा यह हुआ कि आमतौर पर शांत रहने वाले तिब्बती संन्यासियों ने भी हथियार उठा लिया। इसके बाद खांपा विद्रोह हुआ। खांपा को ‘बुद्ध के योद्धा’ भी कहा जाता है। माना जाता है कि गुरिल्ला लड़ाई में दक्षता के कारण चीन की सेना भी उनसे डरती थी। चर्चित लेथांग मठ के प्रमुख गोम्पो ताशी आंद्रग्सांग की अगुवाई वाले खांपा की यादें आज भी चीन को परेशान करती हैं।

गोम्पो ताशी के आंदोलन को दलाई लामा के भाइयों ग्यालो थोंडुप और थुब्तेन नोर्बु ने आगे बढ़ाया। वे कालिम्पोंग से ऑपरेट करते थे। उनके संपर्क वाशिंगटन तक थे। ग्यालो पहली बार 1952 में सीआइए के संपर्क में आए और उन्हें 27 खांपा की सेवाएं देने का प्रस्ताव दिया। तिब्बतियों के इस छोटे से समूह, जिसने बंगालियों का वेष धरा था, को पहले पूर्वी पाकिस्तान ले जाया गया। उसके बाद ढाका के पास एक खुफिया एयरफील्ड से उन्हें साइपान स्थित अमेरिकी एयरबेस ले जाया गया। मरियाना आईलैंड्स स्थित यह एयरबेस सीआइए का भी केंद्र है। वहां उन तिब्बतियों ने रेडियो संचार, मोर्स कोड से संदेश भेजने और पैराशूट के इस्तेमाल का तरीका सीखा। तिब्बत में रहकर उन्हें गोपनीय तरीके से जिन कार्यों को अंजाम देना था, उन सबका प्रशिक्षण उन्हें दिया गया। बाद के वर्षों में सैकड़ों खांपा दूसरे अमेरिकी बेस में प्रशिक्षित किए गए और उन्हें तिब्बत भेजा गया। वहां वे स्थानीय लोगों में खुद को बंजारा बताकर घुल-मिल गए और चीन का विरोध करने वाले स्थानीय समूहों को हथियार, नकदी और संचार उपकरण मुहैया कराने लगे। इन सब में भारत की कोई भूमिका नहीं थी।

जैसे-जैसे अमेरिका का सबसे बड़ा शत्रु सोवियत संघ बनता गया और वियतनाम में उसे मुंह की खानी पड़ी, तो अमेरिका ने 1964 में तिब्बत आंदोलन से अपने हाथ खींच लिए और बीजिंग के साथ बातचीत का रास्ता जोड़ लिया। भारत को 1962 के युद्ध में चीन के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था। इसके बाद भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख बीएन मल्लिक ने तिब्बत में खुफिया कार्रवाई के महत्व को समझते हुए उसे जारी रखा। तिब्बती काउंटर-इंटेलिजेंस इकाई का विचार उन्होंने ही दिया था। मल्लिक ने इसकी जिम्मेदारी मेजर जनरल सुजान सिंह उबान (जो उस समय ब्रिगेडियर थे) और उनके नए रंगरूट एम.के. नारायणन को सौंपी। दोनों एक छोटे से कमरे से ऑपरेट करते थे जहां सिर्फ एक टेबल और दो कुर्सियां रखने की जगह थी। महज 14 महीने में ब्रिगेडियर उबान आर नारायणन (जो बाद में इंटेलिजेंस ब्यूरो के प्रमुख और डॉ. मनमोहन सिंह के समय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने) ने एविएशन रिसर्च सेंटर का गठन किया। यह सेंटर भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो और अमेरिका के सीआइए के साथ संपर्क में था और इसे तोड़फोड़ करने तथा खुफिया कार्य करने में महारत हासिल थी। एविएशन रिसर्च सेंटर भारतीय सेना की एक गोरिल्ला इकाई थी जिसमें तिब्बत से निर्वासित लोग शामिल किए गए थे। इस इकाई ने पूर्वी पाकिस्तान के अलावा ऑपरेशन ब्लू स्टार में, श्रीलंका में, कारगिल युद्ध में और यहां तक कि अफगानिस्तान में भी अपने कार्यों को अंजाम दिया है।

तिब्बत से निर्वासित लोगों की नई पीढ़ी, जो उत्तर में धर्मशाला और दक्षिण में बायलाकुप्पे (कर्नाटक) के आसपास पली-बढ़ी, भारत के प्रति पूरी तरह वफादार है। यह पीढ़ी चीन के साथ अपना हिसाब बराबर करने (मातृभूमि पर चीन का जबरन कब्जा और मार्च 1959 में उनके धर्म गुरु का पलायन) की बात नहीं भूली है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पीएलए की पश्चिमी कमान के लिए यह बड़े शर्म की बात है कि सामरिक और प्रौद्योगिकी मामले में उसकी बढ़त के बावजूद पर्वतीय इलाकों में युद्ध के लिए बनी भारतीय सैनिकों की एक नई ब्रीड ने चीन को पैर वापस खींचने के लिए मजबूर कर दिया, भले ही चीन ने अस्थायी तौर पर ऐसा किया हो।

कुछ सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिनपिंग के कॉल पर बात करने से इनकार कर दिया। हो सकता है मोदी खुलकर तिब्बत कार्ड न खेलना चाहते हों। हालांकि उनके विदेश नीति सलाहकारों में प्रमुख राम माधव ने एसएफएफ के तिब्बती सैनिक नायिमा तेनजिन की अंत्येष्टि में हिस्सा लिया था। तेनजिन की मौत 31 अगस्त को हुई मुठभेड़ में हुई थी।

जो भी हो, भारत के कदम ने चीन को परेशान कर दिया है। इसने प्रधानमंत्री मोदी को भी वाजपेयी के उस फैसले की समीक्षा का मौका दिया है जिसके तहत उन्होंने चीन को खुश करने के लिए तिब्बत को ‘वन चाइना’ का हिस्सा मान लिया था। एक तरीका यह हो सकता है कि भारत उइगुर और तिब्बत में चीन के मानवाधिकार उल्लंघन का मुद्दा उठाए- ठीक उसी तरह जिस तरह चीन पाकिस्तान के जरिए कश्मीर का मुद्दा बार-बार उठाता रहा है। सूत्रों का कहना है कि भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात मोदी-जिनपिंग वार्ता की तैयारी हो सकती है। तिब्बती निश्चित रूप से सोच रहे हैं कि चीन ने उन्हें जो दिया था, अब वह लौटाने का समय आ गया है।

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और द असैसिनेशन ऑफ राजीव गांधी पुस्तक की लेखिका हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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