आजकल बंगाल और खासकर कोलकाता कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के शताब्दी वर्ष के जलसे से जगमग है। 2021 में 2 मई को कविगुरु सौ साल के हो जाते, लेकिन कोविड-19 महामारी की लहरों की वजह से तब कोई जलसा नहीं हो पाया था। इसलिए इस मौके पर भारत-अर्जेंटीना के साझा उपक्रम के तहत बनी, 6 मई को रीलिज हुई फिल्म ‘ थिंकिंग ऑफ हिम’ और उसमें कविगुरु का किरदार निभाने वाले पद्म्भूषण विक्टर बनर्जी की विशेष अहमियत है। विक्टर देश के ऐसे जाने-माने अभिनेता हैं, जिन्होंने सत्यजीत राय से लेकर मृणाल सेन, रोमन पोलंस्की और डेविड लीन जैसे महान फिल्मकारों के साथ काम किया है। वे सिनेमाटोग्राफर, डॉक्यूमेंटरी मेकर और सपोर्टिंग एक्टर जैसी श्रेणियों में राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले देश की इकलौती शख्सियत हैं। खासकर वे अपनी फिल्म ए पैसेज टु इंडिया, जॉगर्स पार्क, घरे-बाइरे के लिए जाने जाते हैं। आउटलुक के लिए राजीव नयन चतुर्वेदी ने उनसे कई मुद्दों पर बेबाक बातचीत की। मुख्य अंश:
फिल्में साइन करने में आपका बहुत सेलेक्टिव रुख रहता है। आप किसी भी फिल्म में अभिनय से पहले क्या देखते हैं?
दरअसल मैं उतना भी सेलेक्टिव नहीं हूं, जितना लोग मानते हैं। ज्यादातर लोग मानते हैं कि मैं सेलेक्टिव हूं इसलिए निर्देशक और निर्माता मेरे पास कोई फिल्म लेकर आने से पहले दस बार सोचते हैं और फिर मेरे पास कोई विकल्प नहीं बचता। निर्माताओं के मन में मेरे लिए ऐसी छवि बन गई है कि मुझे गंभीर स्क्रिप्ट ही चाहिए। दूसरे लोग ही मेरी तरफ से खुद तय कर लेते हैं कि मैं किस फिल्म में काम करूंगा, किसमें नहीं।
थिंकिंग ऑफ हिम को आपने क्यों चुना और किन वजहों से आपने इसमें काम किया?
इसे मैंने नहीं चुना। मैं किसी फिल्म का चुनाव नहीं करता। थिंकिंग ऑफ हिम की बात करें तो पाब्लो (डायरेक्टर) ने मुझे शायद इसलिए रोल दिया क्योंकि मैं बंगाली हूं। वे मुझसे मिले, मेरी आंखों में देखा और बोले, बस मुझे यही लुक चाहिए। हालांकि व्यक्तिगत रूप से बताऊं तो इस फिल्म को साइन करने का सबसे पहला कारण यह था कि इसके निर्देशक की प्रतिष्ठा बहुत अधिक है। दूसरा यह कि मुझे अर्जेंटीना और दक्षिण अमेरिका से प्यार है।
आपने इस फिल्म में रवींद्रनाथ टैगोर का रोल किया है। आपके लिए यह लिजेंडरी किरदार निभाना कितना चुनौतिपूर्ण था?
किसी का लीजेंड हो जाना बहुत ही अमूर्त अवधारणा है। आप अपना लीजेंड खुद ही बनाते हैं और अपनी इच्छानुसार उस लीजेंड की व्याख्या करते हैं। ऐसे कोई भी पात्र का किरदार निभाना मुश्किल होता है, जो अभी भी जागृत स्मृति में हो। लोग पहले से ही एक अवधारणा बना कर रखते हैं कि मुझे क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए। रवींद्रनाथ टैगोर तो बंगालियों की मानसिकता में अभी भी बसे हुए हैं। लेकिन सामान्य रूप से कहूं तो किसी भी भूमिका को निभाना कठिन होता है क्योंकि यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आपके अवचेतन को प्रभावित करता है।
फिल्म का एक दृश्य
आपके हिसाब से दर्शकों को यह फिल्म क्यों देखनी चाहिए?
मुझे नहीं लगता कि दर्शक इसे देखेंगे। लेकिन अगर कोई इसे देखता भी है तो उसे यह पता रहना चाहिए कि यह स्पेनिश और अर्जेंटीनियाई फिल्म है, जिसमें भारतीय प्रोड्यूसरों ने पैसे लगाए हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत में लोग इसे देखना चाहेंगे। यह फिल्म टैगोर के बारे में नहीं, बल्कि विक्टोरिया के बारे में है। मैं बता दूं कि अर्जेंटीना में लोग टैगोर को इसलिए पसंद नहीं करते हैं क्योंकि वे महान कवि थे। बल्कि वहां टैगोर के प्रति मुख्य आकर्षण का कारण उनका समाज सुधारक होना था। सबसे मुख्य कारण यह कि कैसे उन्होंने घने पेड़ों के साए में बैठाकर शिक्षा देने की पहल शुरू की, जहां विद्यार्थी पेड़-पौधों, नदी और प्रकृति से संवाद करते हुए अद्भुत शिक्षा ग्रहण करते हैं।
जिन लोगों ने यह फिल्म नहीं देखी है, वे मान रहे हैं कि यह टैगोर और विक्टोरिया के प्रेम संबंधों पर आधारित है। आपने इस फिल्म में टैगोर की भूमिका निभाई है, तो यह फिल्म किस बारे में है?
इस फिल्म में उस टैगोर की कहानी है जो पेरू जा रहे हैं लेकिन उनकी तबीयत बिगड़ गई तो उन्हें अपनी यात्रा बीच में ही रोक कर, एक होटल में ठहरना पड़ा। उस वक्त यह बात विक्टोरिया को पता चली, जो अर्जेंटीना की महान कवियत्री थीं। वे टैगोर की महान कृति गीतांजलि की बड़ी प्रसंशक थीं, इसलिए वे उनसे मिलने जाती हैं। उस होटल को देखकर जहां टैगोर ठहरे थे, वे लोगों से कहती हैं कि इन्हें यहां क्यों रखा जा रहा है? वे उन्हें अपने यहां ले जाती हैं और उनकी देखभाल करने लगती हैं। यहीं से उनके संबंध बढ़ते हैं, जो पूरी तरह प्लेटॉनिक था। इस फिल्म में यही दिखाया गया है।
यह कहानी टैगोर और अर्जेंटीना की महान कवयित्री विक्टोरिया की दोस्ती के बारे में है। विक्टोरिया टैगोर की कृति गीतांजलि की बड़ी प्रशंसक थीं
आपने सत्यजीत राय से लेकर मृणाल सेन, रोमन पोलंस्की, डेविड लीन जैसे महान फिल्मकारों के साथ काम किया है। किसके साथ काम करने में सबसे ज्यादा मजा आया?
मैं दो लोगों का नाम लूंगा, जिनके साथ मुझे काम करने में सबसे ज्यादा आनंद आया, एक हैं सत्यजीत राय और दूसरे, डेविड लीन। दोनों अपने काम के प्रति प्रतिबद्ध थे। लीन हर स्क्रिप्ट को लिखने में कम से कम तीन साल का समय लेते थे। जो भी उनकी स्क्रिप्ट लिखता था, वे उसके साथ बैठकर हर बारीकी पर ध्यान देते थे। यही नहीं, जब स्क्रिप्ट पूरी हो जाती थी तो वे अपनी टीम को भेजते थे, यह देखने के लिए कि क्या कोई उपयुक्त जगह उपलब्ध है। जगह मिल जाती थी तब ही कोई फिल्म बनाते थे।
आपने डेविड लीन के साथ ए पैसेज टू इंडिया’में काम किया है, कोई ऐसी घटना पाठको के साथ साझा करना चाहेंगे जो बता सके कि डेविड कितने समर्पित निर्देशक थे?
ए पैसेज टू इंडिया में एक्टिंग करते वक्त अगर मुझे स्क्रिप्ट में प्रयोग किए गए किसी शब्द से दिक्कत होती थी तो मैं उनसे पूछता था कि इसका प्रयोग आपने क्यों किया है? वे मुझे अपने ऑफिस में ले जाते थे। उनके पास एक पूरी रिसर्च बुक थी, जिसके जरिए वे प्रामाणिक तौर पर बताते थे कि उन्होंने उस शब्द का प्रयोग क्यों किया है। कोई सीन जो भले ही खास मायने न रखता है, उसे भी शूट करने के लिए वे पूरा दिन लगा देते थे।
भारतीय फिल्म निर्माताओं और पश्चिमी फिल्म निर्माताओं के बीच आप किस तरह का अंतर देखते हैं? विशेष रूप से सत्यजीत राय की फिल्मोग्राफी डेविड लीन से कैसे अलग है?
वे अलग नहीं हैं। दोनों मेहनती और बहुत प्रतिबद्ध लोग थे। सत्यजीत राय के बारे में कहूं तो उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे पटकथा लेखक और संगीत निर्देशक भी थे, मगर लीन के साथ ऐसा नहीं था। हालांकि दोनों का अपने काम के प्रति अनुशासन बिल्कुल एक जैसा था। सत्यजीत राय के पास एक बंगाली सौंदर्य दृष्टि थी, जिसके केंद्र में शांति निकेतन था। उनकी सिनेमेटोग्राफी बिल्कुल पोएटीक थी। फिर भी कहूंगा कि लीन के पास जो रेंज थी, वह किसी के पास नहीं थीं। मेरे हिसाब से लीन अब तक के सबसे महान निर्देशक हैं।
आप तीन अलग-अलग श्रेणियों में राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले देश में इकलौते एक्टर हैं। आपने सिनेमाटोग्राफी, डॉक्यूमेंट्री मेकिंग और एक्टिंग में भी हाथ आजमाए हैं। इन तीनों में से आपका पहला प्यार कौन-सा है और क्यों?
मुझे सिनेमाटोग्राफी पसंद है क्योंकि मुझे लगता है कि एक निर्देशक के बाद सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति वह होता है, जो निर्देशक के दृष्टिकोण को इंटरप्रेट करता है। सिनेमेटोग्राफी एक कला है। डॉ. झिवागो में अधिकतर बर्फ दिखाया गया है जिसे डेविड लीन ने बनाया है, लेकिन उसकी शूटिंग किसी ऐसी जगह नहीं हुई थी, जहां आस-पास बर्फ हो। ऐसा कोई शानदार सिनेमेटोग्राफर ही कर सकता है, जिसे आर्ट की सेन्स हो। वहीं, बिमल रॉय के सफल होने में फोटोग्राफी ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। दूसरी तरफ, अगर सत्यजीत राय के बारे में कहूं तो सुब्रतो मित्र ने उनके साथ चारुलाता तक काम किया। फिर सुब्रतो ने सत्यजीत राय का साथ छोड़ दिया और उसके बाद वे एक भी अच्छी फिल्म नहीं बना सके।
सुब्रतो मित्र ने उनका साथ क्यों छोड़ा?
क्योंकि सत्यजीत राय सोचने लगे कि उनको सुब्रतो से बेहतर फोटोग्राफी आती है।
ओटीटी को कैसे देखते हैं? क्या हम आपको निकट भविष्य में ओटीटी पर देख सकते हैं?
मुझे यह कॉन्सेप्ट समझ में नहीं आता है। मैं जानता हूं कि ओटीटी अंग्रेजी में एक बहुत अच्छा शब्द है जिसे ओवर द टॉप कहा जाता है, तो क्या आप सच में सबसे ऊपर हैं? ओटीटी बस प्रदर्शनी का एक नया रूप है और कुछ नहीं।
क्या आपको ओटीटी पर काम करने का कोई ऑफर मिला है?
मुझे ओटीटी पर अभिनय करने के ऑफर नहीं आते हैं। सच बताऊं तो अगर ऑफर आते भी होंगे तो मुझे पता नहीं चलता है और यह मैं बढ़ा-चढ़ा कर नहीं बोल रहा हूं
बॉलीवुड में आप बहुत कम दिखते हैं, इसका क्या कारण है?
सच कहूं तो मुझे कोई ऑफर नहीं आता है। मैं तो चाहता हूं काम करूं।
बॉलीवुड में जिस तरह की फिल्में बनती हैं, उसको लेकर आपका क्या ख्याल है?
हमारे युवाओं के नैतिक मूल्यों को बर्बाद करने के लिए बॉलीवुड ने काफी कुछ किया है। वह कई तरह से हमारे समाज के प्रति जवाबदेह है। इसलिए अगर नई पीढ़ी हिंसा और सेक्स पर फिल्में बनाना बंद कर सकती है, तो यह भारतीय सिनेमा के लिए एक बहुत बड़ा योगदान होगा। आज हमारे नैतिक मूल्यों का पतन हरेक गाने के साथ हो रहा है। ये लोग गानों के जरिये सॉफ्ट पोर्न दिखाते हैं। हमारे समाज में अश्लीलता फैलाने में बॉलीवुड का सबसे बड़ा योगदान है। यह सब हमारी संस्कृति नहीं है। हमारे पास कला और संस्कृति का जीवंत इतिहास रहा है, अगर हम कुछ नया नहीं जोड़ सकते हैं तो कम-से-कम उसे संरक्षित करने की कोशिश कर सकते हैं।
महामारी के बाद से बॉलीवुड की जितनी भी फिल्में रिलीज हुई हैं, वे खास कमाई नहीं कर पा रही हैं लेकिन इसके उलट दक्षिण की फिल्में लगातार रिकॉर्ड तोड़ रही हैं। इस ट्रेंड को आप कैसे देखते हैं?
वे (दक्षिण वाले) जान गए हैं कि इधर क्या बिकता है। जो इधर बिकता है, वही वे बेच रहे हैं। इधर बस भद्दा सिनेमा बिकता है, जिसमें कोई कला नहीं होती है। सिनेमा टाइमपास नहीं है, यह एक आर्ट है। रही बात कमाई की तो मुझे यह कांसेप्ट ही समझ में नहीं आता है। कला पैसे से बहुत ऊपर है।
जिस तरह से लॉकडाउन के बाद ओटीटी का चलन बढ़ा है। क्या आपको लगता है कि थिएटर का दौर अब खत्म हो गया है?
ओटीटी के आने-जाने से थिएटर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ओटीटी के दर्शक अलग हैं और थिएटर के अलग। थिएटर हमेशा जिंदा रहेगा। रंगमंच मानव जाति को कभी नहीं छोड़ेगा। आप थिएटर से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। यह था, है और आगे भी रहेगा।
आप दशकों से सिनेमा में काम कर रहे हैं। नई पीढ़ी जो इसमें खुद को स्थापित करना चाह रही है, उनको आप क्या संदेश देना चाहेंगे?
मैं नई पीढ़ी को क्या ही कहूं? बस इतना कहना चाहूंगा कि जीवन का भरपूर आनंद लें लेकिन उसकी गंभीरता को न भूलें। अगर आप किसी फिल्म में कोई किरदार निभा रहे हैं तो उसके लिए हर तरह से प्रतिबद्ध रहें। चाहे जैसी भी फिल्म आप कर रहे हों, अपनी तरफ से कमिटेड रहें।