दक्षिण के मशहूर अभिनेता रजनीकांत जब फिल्म में एंट्री लेते हैं तो उनके प्रशंसक जोर से ‘तलाइवा’ (नेता) कहकर चीख उठते हैं। इस सुपरस्टार के प्रशंसकों का यह हर्षोन्माद अब राजनीति के प्लेटफॉर्म पर भी दिखेगा। तमिलनाडु में होने वाले हर चुनाव में रजनीकांत के प्रशंसक और मतदाता उनसे बड़ी उम्मीदें लगाए रखते थे। अब जब प्रदेश की दो बड़ी राजनीतिक हस्तियां, करुणानिधि और जयललिता, नहीं रहीं तो उन्होंने 1 जनवरी 2021 से नया राजनीतिक मंच लांच करने की घोषणा की है। इससे दो पार्टियों वाले प्रदेश में एक तीसरा पक्ष भी नजर आएगा, जिसकी जरूरत अरसे से महसूस की जा रही थी।
अन्नाद्रमुक एक दशक से सत्ता में है। दूसरी तरफ, अप्रैल 2021 में होने वाले चुनाव में द्रमुक वापसी के लिए जोर लगा रही है। अभी तक तो इन दोनों पार्टियों के बीच लड़ाई पुराने जाने-पहचाने अंदाज में होती थी, लेकिन रजनीकांत के आने से एक नया अंजाना फैक्टर भी आ गया है। किडनी ट्रांसप्लांट करवाने वाले रजनी ज्यादा फिट नहीं हैं। इसलिए महामारी के कारण वे दुविधा में थे। तब द्रमुक और अन्नाद्रमुक ने काफी उम्मीदें पाल रखी थीं। लेकिन रजनीकांत की एंट्री के साथ सब कुछ बदल गया है।
लेखक और राजनीतिक विचारक मालन कहते हैं, “न तो पलानीस्वामी और न ही स्टालिन रजनीकांत के करिश्मे की बराबरी कर सकते हैं। रजनी मतदाताओं, खासकर युवाओं और महिलाओं, के साथ जो अनोखी केमिस्ट्री स्थापित कर सकते हैं उसके सामने इन दोनों पार्टियों का चुनावी गुणा-भाग काम नहीं करेगा। रजनी मे वह एक्स फैक्टर है जिसके कारण कमल हासन भी उनके साथ आ सकते हैं।”
द्रमुक को चिंता है कि विदुतलाइ चिरुतैगल काची (वीसीके) के साथ रहने के कारण जो दलित अभी तक उसके पक्ष में थे, वे रजनी के स्टार पावर के कारण दूर हो सकते हैं। ऐसा 2005 में भी हुआ था जब अभिनेता विजयकांत ने अपनी पार्टी लांच की थी। स्टालिन के बड़े भाई एम.के. अलगिरि अपनी पार्टी बना कर रजनी के साथ जा सकते हैं, जो द्रमुक के लिए बड़ा सर दर्द होगा। अगर लड़ाई स्टालिन और रजनी के बीच आकर ठहरती है तो द्रमुक के लिए सिर्फ प्रशांत किशोर की रणनीति काफी नहीं होगी।
अन्नाद्रमुक को डर है कि धार्मिक प्रवृत्ति वाले रजनीकांत उसके वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं, खासकर महिलाओं के बीच। रजनी ने स्वच्छ और पारदर्शी सरकार का वादा किया है जो इन दोनों द्रविड़ पार्टियों की कमजोर कड़ी है। इस मामले में दोनों का रिकॉर्ड खराब है। मुख्यमंत्री पलानीस्वामी को स्टालिन के खिलाफ भी लड़ाई का तरीका बदलना पड़ सकता है। एक अन्नाद्रमुक मंत्री ने कहा, “हम वंशानुगत राजनीति और सत्ता में रहने के दौरान उनकी विफलताओं को लेकर स्टालिन पर हमला कर सकते हैं, लेकिन रजनीकांत के खिलाफ बोलने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है, सिवाय इसके कि उनके पास कोई अनुभव नहीं है।” लेकिन सुपरस्टार के लिए सिर्फ उनका करिश्मा काफी नहीं होगा। उन्हें अपना वोट आधार बढ़ाने के लिए गठजोड़ की जरूरत होगी। कमल हासन की मक्कल निधि मैयम (एमएनएम) इस सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद जाति आधारित छोटी पार्टियां हैं। उन्हें दोनों पुरानी पार्टियों के बेदाग छवि वाले नेताओं को भी अपनी तरफ लाना होगा। खराब सेहत उनके लिए बड़ी समस्या है। 70 वर्षीय स्टार खुद कहते हैं कि उन्हें रोजाना 17 गोलियां खानी पड़ती हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है कि सेहत खराब होने पर उनके चुनाव अभियान और उनकी राजनीतिक योजनाओं में बाधा आ सकती है।
रजनीकांत के करीबी सूत्रों का कहना है कि उन्होंने यह सोचकर चुनावी समर में उतरने का फैसला किया कि महामारी के बावजूद अब इस लड़ाई से पीछे हटने को कायरता माना जाएगा। मार्च में उन्होंने कहा था कि वे सिर्फ पार्टी का नेतृत्व करेंगे, मुख्यमंत्री की कुर्सी पर किसी और को बिठाएंगे। लेकिन यह बात उनके प्रशंसकों को पसंद नहीं आई थी। ‘तुगलक’ पत्रिका से जुड़े और रजनीकांत के करीबी एस. रमेश कहते हैं, “लोग रजनीकांत के नाम पर तभी वोट देंगे जब वे किसी और को नहीं, बल्कि खुद को मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करेंगे।”
चेन्नै के पूर्व मेयर सैदाई एस. दुरइस्वामी कहते हैं, “अगर लक्ष्य द्रमुक को हराना है तो यह देखना पड़ेगा कि द्रमुक-विरोधी वोट न बंटे। यह तभी हो सकता है जब अन्नाद्रमुक और रजनीकांत साथ आ जाएं।” लेकिन पुराने अनुभव बताते हैं कि जब भी कोई पार्टी द्रमुक या अन्नाद्रमुक के साथ आई तो धीरे-धीरे उसका वजूद खत्म हो गया, इसलिए रजनीकांत ऐसा नहीं करेंगे। वे भाजपा से भी दूर रहेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि आगे चलकर हिंदू मतदाता उसी तरह उनके साथ आ जाएंगे, जिस तरह जयललिता के साथ आए थे।
अगले चुनाव में भाजपा भी गठजोड़ के लिए शायद ही प्रयास करे। वह जानती है कि रजनीकांत सिर्फ एक चुनाव की शख्सियत हैं। 2021 उनका पहला और आखिरी चुनाव होगा। इसलिए इस चुनाव में जो वोट रजनीकांत को मिलेंगे, उनके जाने के बाद वे वोट भाजपा को मिल सकते हैं। इसलिए अमित शाह की 2026 की योजना ज्यादा दमदार लगती है।