एक विज्ञापन की टैग लाइन थी, ‘डर के आगे जीत है।’ संदर्भ यह था कि हमें कोई बड़ा लक्ष्य हासिल करने के लिए जोखिम लेने से डरना नहीं चाहिए। लेकिन इस समय देश और समाज में मानो डर के कई मोर्चे खुल गए हैं। मसलन, छह-सात साल का एक बच्चा रात में डरकर इसलिए जाग जाता है क्योंकि उसे दिन में स्कूल में बच्चों के बीच बच्चा चोरी की अफवाहें याद आ जाती हैं। यह कोरा गप्प नहीं, बल्कि सहारनपुर जिले के एक परिवार की आपबीती है। देश भर में और खासतौर से उत्तर और पूर्वी भारत के राज्यों में आजकल बच्चा चोर गिरोहों को लेकर अफवाहें जोरों पर हैं, जबकि इनमें कोई सच्चाई नहीं पाई गई। अलबत्ता कई लोगों की जान भीड़ के हमलों में जरूर चली गई। आए दिन समाचार माध्यमों में किसी व्यक्ति के भीड़ के हत्थे चढ़ जाने, या विक्षिप्त महिला के भीड़ के शिकार होने की खबरें बढ़ती जा रही हैं। दिल्ली के एक परिवार ने मुंबई जाते समय रास्ते के बारे में पूछ लिया तो भीड़ ने कई किलोमीटर तक पीछा किया और हमले किए जबकि इस परिवार के साथ महिलाएं भी थीं।
ये घटनाएं उत्तर प्रदेश ही नहीं दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र तक में हो रही हैं। ये घटनाएं भय का माहौल पैदा कर रही हैं। ये अफवाहें अमूमन व्हॉट्सऐप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफार्मों से फैलती हैं। सवाल यह भी है कि टेक्नोलॉजी के विस्तार के इस जमाने में इन पर अंकुश लगाने और फौरन कार्रवाई करने के तरीके क्यों नहीं निकाले जा रहे हैं? पुलिस प्रशासन इन मामलों में कार्रवाई करता भी है तो कई बार वह खानापूर्ति जैसा ही लगता है। इससे पुलिस प्रशासन पर भरोसा भी कम हो गया है। भीड़ हत्या के मामलों में सख्त कार्रवाई न होना भी इस तरह के तत्वों का हौसला बढ़ाता है, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए घातक संकेत है।
भीड़ हत्याओं के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को सख्त कदम उठाने और हर जिले में नोडल अधिकारी नियुक्त करने का आदेश दिया था। अब तक सिर्फ पश्चिम बंगाल सरकार ने ही इसके लिए सख्त कानून बनाया है और राजस्थान सरकार ने भी कानून बना दिया है। लेकिन भीड़ हत्याओं की सबसे अधिक वारदातों वाले झारखंड में अभी ऐसी कोई पहल नहीं है। शुरू में ये मामले गौ-रक्षकों द्वारा मारपीट और हत्या के रूप में सामने आए थे और एक समुदाय विशेष के लोगों पर अधिक हमले हुए। लेकिन अब जो माहौल है, उसमें तो कोई भी इसका शिकार बन रहा है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में अगर सरकारें लोगों को बिना किसी भय और आशंका के देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने का भरोसा नहीं दे सकतीं, तो यह बेहद चिंता का विषय है।
गौरतलब है, डर का माहौल सिर्फ ये अफवाहें ही नहीं बना रही हैं, कुछ टीवी चैनल तथा उनके एंकरों और सरकारों तथा पुलिस का रवैया भी लोगों को खौफजदा कर रहा है। आजकल टीवी चैनल चीख-चीखकर एटमी युद्ध का हौवा खड़ा कर रहे हैं, जो देश में एक तनाव का माहौल पैदा कर रहा है, जबकि हमेशा ऐसे मामलों में संयम बरतने की सलाह दी जाती है। अब देखिए सरकारों और प्रशासन का रवैया। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में एक पत्रकार पर मिड डे मील में रोटी-नमक परोसते दिखाने और खबर लिखने के लिए एफआइआर दर्ज कर दी गई। तमिलनाडु में एक लेखक पर सरकार की आलोचना करने पर एफआइआर दर्ज हो गई। याद करेंगे तो ऐसी खौफ पैदा करने वाली खबरों की लंबी फेहरिस्त निकल आएगी।
कानून-व्यवस्था की चिंता के अलावा आर्थिक सुरक्षा को लेकर भी एक नया डर लोगों के अंदर समाता जा रहा है। वह है उनकी आर्थिक स्थिति की अनिश्चितता का। जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्था नीचे की ओर जा रही है और लोग बेरोजगार हो रहे हैं, वह एक नए तरह का डर लोगों के बीच पैदा कर रहा है। अब तो वित्तीय सलाह के स्तंभों में यह बताया जा रहा है कि इस माहौल में किस तरह की रणनीति अपनाए। इन स्तंभों में गैर-जरूरी खर्चों पर अंकुश लगाने के साथ आने वाले दिनों की आर्थिक सुरक्षा के लिए रणनीति सुझाई जा रही है, जो देश की अर्थव्यवस्था के लिए काफी नुकसानदेह हो सकती है क्योंकि इसका सीधा असर मांग पर पड़ेगा और यह आर्थिक विकास पर प्रतिकूल असर डालेगा।
इस अंक में हमारी आवरण कथा में मौजूदा आर्थिक हालात और आने वाले दिनों की स्थिति का आकलन किया गया है। कई बड़े अर्थशािस्त्रयों की राय भी ली गई है। बेहतर होगा कि दोनों मोर्चों पर डर को दूर किया जाए। यह काम केवल सरकार या प्रशासन नहीं कर सकता, इसके लिए नागरिकों को भी पहल करनी होगी, लेकिन जनभागीदारी का माहौल तो सरकार को ही सुनिश्चित करना होगा। खौफ का माहौल न लोकतंत्र के लिए अच्छा है, न अर्थव्यवस्था के लिए। जब आर्थिकी डगमगाने लगे तो भरोसे और स्थायित्व का भाव ही निवेश और मांग में इजाफा करता है। खौफजदा देश तो सामाजिक अस्थिरता की ओर ही बढ़ता है, जिसका खामियाजा एक नहीं, कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है।