बीते जून की एक सुबह और दिल्ली का अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स। जैसी कल्पना की जा सकती है, नजारा वैसा ही था। देश के कोने-कोने से आई अपार भीड़ और परची कटाने के लिए लगी एकाधिक बेसब्र कतारें। करीब पौन घंटा कतार में बिना हिले खड़े रहने के बाद सैकड़ों लोगों को अचानक अस्थायी रूप से बने एक हॉल में धकेल दिया जाता है। किसी को कुछ समझ नहीं आता कि कहां जाना है और क्या करना है। फिर वहां मौजूद निजी कंपनियों के सुरक्षाकर्मी घोषणा करते हैं, ‘‘अपने-अपने मोबाइल में ड्रीफकेस ऐप डाउनलोड कर के वहां से अपना टोकन ले लीजिए।’’
यहां दो सवाल स्वाभाविक रूप से बनते थे। अगर ऑनलाइन ऐप से ही परची कटानी थी तो लाइन में क्यों खड़ा किया गया; और दूसरा, कि निजी कंपनी के ऐप से सरकारी चिकित्सा का टोकन लेने को क्यों कहा जा रहा है। वहां किसी ने यह सवाल नहीं किया। उलटे, ऐप डाउनलोड कर के टोकन लेने की उन लोगों में होड़-सी लग गई जिनके पास मोबाइल फोन थे। बिना मोबाइल वाले या बेसिक मोबाइल वाले लोगों को एक नई कतार में ठेल दिया गया। दिल्ली के एम्स से लेकर लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज तक तमाम राजकीय चिकित्सालयों में ऐसी घटना रोज धड़ल्ले से हो रही है। हर दिन खरीदारी से लेकर सरकारी सेवाओं तक और कैब बुक कराने से लेकर बैंक से अपना ही पैसा निकालने तक औसतन आधा दर्जन बार हम लोग अपने मोबाइल फोन और आधार कार्ड की मार्फत बाकायदे सरकारी कानूनों के हवाले से अपनी निजी सूचना निजी कंपनियों को सौंपे दे रहे हैं।
एडवर्ड स्नोडेन ः अमेरिका की संघीय अदालत ने 2020 में इनके खुलासों को सही ठहराया था
ऑस्ट्रेलिया के एक शख्स जूलियन असांज ने इन्हीं चीजों पर सवाल उठाते हुए अपना बौद्धिक और पेशेवर सफर आज से तीन दशक पहले शुरू किया था। नतीजतन, उनके ऊपर फर्जी मुकदमा हुआ। उन्हें जेल हुई। चौदह साल बाद जब वे आजाद हुए हैं, तो हम पाते हैं कि उनके कहे, किए और चेताए का हमारे समाज और उसके रोजमर्रा के धंधों पर कोई असर नहीं पड़ा है। लोग पूरी आजादी से अपना डेटा अपनी ही चुनी हुई सरकारों के कहने पर निजी कंपनियों को बांट रहे हैं और उसके बदले मिलने वाली सेवाओं में अपनी आजादी महसूस कर रहे हैं। निजी डेटा के बदले माल और सेवा का दिया जाना ऐसी नई गुलामी है जो आजादी की शक्ल में हमारे सामने परोसी गई है।
कैद और रिहाई के बीच
‘‘मैं क्या जानता हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है? विकिलीक्स क्या जानता है इससे क्या फर्क पड़ता है? इन सब का कोई मतलब नहीं। असल बात यह है कि आप क्या जानते हैं। यह आपका मसला है’’- जूलियन असांज के ये शब्द हमें यह अहसास दिलाने के लिए हैं कि उनकी कैद और उनकी आजादी, दोनों के बीच असल सवाल दुनिया की उस आबादी से जुड़ा है जिसे अपने सूचना और निगरानी तंत्र के माध्यम से सरकारें और निजी कॉरपोरेशन मिलकर नियंत्रित करना चाह रहे हैं। असांज इस विशालकाय षडयंत्र-परिसर में प्रतिरोध का एक प्रतीक भर हैं, जो सौभाग्यशाली रहे कि चौदह साल बाद ही सही मुक्त हो पाए वरना उनके जैसे सैकड़ों लोग अब भी कैद हैं।
असांज के ऊपर दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं, उन्हें दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं और हजारों शोध परचों में उनका जिक्र है। उन्होंने सरकारों द्वारा बरती जाने वाली गोपनीयता के खिलाफ और आम लोगों की निजता के हक में जो काम किया है, वह उन्हें इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े नायकों के बीच जगह देता है। दुनिया ने असांज को 2010 में जाना जब अमेरिकी सुरक्षा प्रतिष्ठान का एक वीडियो उन्होंने अपनी कंपनी विकीलीक्स के माध्यम से सार्वजनिक किया और दिखाया कि इराक और अफगानिस्तान में कैसे अमेरिकी सेना ने मासूमों को मारा है। उसी साल एक मुकदमे में उन्हें स्वीडन की सरकार ने फंसाया और गिरफ्तारी का वारंट जारी किया ताकि स्वीडन के रास्ते उन्हें अमेरिका भेजा जा सके। जूलियन ने लंदन स्थित इक्वेडर दूतावास में राजनीतिक शरणार्थी की हैसियत से पनाह ली। नौ साल बाद यह मुकदमा फर्जी निकला और आरोप खत्म कर दिए गए।
एडवर्ड स्नोडेन को एनएसए में अपने काम की अनैतिकता का अहसास और मोहभंग हो गया था। उन्होंने हजारों गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक किए
इसके बाद ब्रिटेन का जमानत कानून तोड़ने के आरोप में उन्हें 50 हफ्ते की कैद हुई। तभी अमेरिकी सरकार ने उनके ऊपर 2010 के लीक के मामले में मुकदमा ठोंक दिया और अमेरिका में उनके प्रत्यर्पण का मुद्दा केंद्र में आ गया। ब्रिटेन की अदालत में पांच साल तक उनके प्रत्यर्पण का मुकदमा चला। अंतत: बीते जून में असांज और अमेरिकी कानून विभाग के बीच एक समझौता हुआ। इसके तहत उन्होंने खुद को अमेरिका के गोपनीय दस्ताजवेज लीक करने का दोषी मान लिया और बदले में अमेरिकी कानून विभाग ने उन्हें मुक्त कर दिया। अदालत ने उन्हें रिहा करते हुए आदेश दिया कि वे एक हलफनामा देकर विकिलीक्स के पास मौजूद तमाम अप्रकाशित दस्तावेज या तो लौटा दें या नष्ट कर दें। असांज अंतत: 26 जून, 2024 को अपने देश पहुंचे।
असांज की कैद और रिहाई के बीच यह दुनिया बहुत बदल चुकी है। असांज जब कैद हुए थे (2010) उस वक्त उनकी अपनी चिंता और मोटे तौर पर पत्रकारीय सरोकारों के दायरे में केंद्रीय लड़ाई सरकारों द्वारा सूचनाओं को छुपाए जाने और छुपाई गई सूचनाओं को सार्वजनिक किए जाने के बीच थी। महज पांच साल पहले (2005 में) ही भारत में सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून लागू हुआ था। यहां यह संघर्ष सड़कों पर लड़ा जा रहा था और आरटीआइ कार्यकर्ता मारे जा रहे थे। विकसित पश्चिम में यह लड़ाई इंटरनेट पर सूचनाओं की बाड़ेबंदी के खिलाफ लड़ी जा रही थी। आश्चर्य नहीं कि 2012 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साइफरपंक्स’ में जूलियन इंटरनेट को इंसानी सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा और क्रिप्टोग्राफी (गणितीय कूट-लेखन) को सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार मान रहे थे।
इस पुस्तक के दो साल पहले आई अपनी ‘अनधिकारिक’ आत्मकथा (2010) में उन्होंने लिखा है कि गणितीय सत्य (यानी क्रिप्टोग्राफी की भाषा) और नैतिक जरूरत के बीच वे एक रिश्ता देखते हैं। जूलियन लिखते हैं, ‘‘शुरुआती दिनों में भी मैं देख पा रहा था कि सत्ता की दीवारों में सेंध लगाना केवल मौज का काम नहीं था। सरकारें अपने लाभ के लिए गोपनीयता और मातहत नेटवर्कों पर निर्भर थीं, फिर भी यह संभव लगने लगा था कि विज्ञान के सहारे हम वह सब कुछ हासिल करने की शुरुआत कर सकते थे जिसके लिए आंदोलन, विरोधी समूह, मानवाधिकार के उस्ताद और चुनावी सुधार बरसों से संघर्ष करते रहे... न्याय अंतत: मनुष्य के हक में ही होता है, और हम देख पा रहे थे कि आधुनिक सत्ता का कैंसर किन-किन तरीकों से ऐसे फैलते जा रहा था जो सामान्य इंसानी अनुभव से अब तक अदृश्य था।’’
जूलियन और उनके जैसे गणितज्ञों की यह लड़ाई राजनीतिक, वैचारिक और आदर्शवादी थी। जैसा कि हारवर्ड की मानवविज्ञानी और हैकिंग की राजनीति-संस्कृति की अध्येता गैब्रिएला कोलमैन (एमआइटी टेक्नोलॉजी रिव्यू, 2013) लिखती हैं, ‘‘हैकरों और समानधर्मा तकनीकविदों के बीच अपने दशक भर के नृशास्त्रीय काम ने मुझे इस दृढ़ नतीजे पर पहुंचाया है कि ये लोग अब तक का सबसे तीव्र नागरिक अधिकार आंदोलन खड़ा कर रहे हैं, जैसा हमने आज तक नहीं देखा।’’
इसमें एक बुनियादी नुक्ता यह था कि जूलियन या उनके जैसों का काम और कोलमैन की उनके बारे में मान्यता अभिव्यक्ति की आजादी और न्याय के लिए प्रतिरोध की पश्चिमी परंपरा के साथ राजनीतिक और नैतिक रूप से सुसंगत थी। यह ‘परंपरा’ पूंजीवाद के बुनियादी दार्शनिक आधारों- मनुष्य की स्वतंत्रता और न्याय- से ताल्लुक रखती थी, जो यूरोपीय पुनर्जागरण (रेनेसां) की कुछ नेमतों में से हैं। यानी, जूलियन असांज आधुनिक राष्ट्र-राज्य के ‘सैन्य-औद्योगिक परिसर’ से नागरिकों की मुक्ति और न्याय के लिए जिस समाधान की ओर देख रहे थे, वह उसी राज्य को निर्मित करने वाले रेनेसां से निकले आदर्शों पर अनिवार्यत: टिका था। 2010 में जब वे कैद हुए, उस समय तक भी यह समझदारी आंशिक रूप से ठीक हो सकती थी, लेकिन 2020 में लागू कोरोना आपातकाल के बाद न सिर्फ आधुनिक राज्य का चरित्र बदल गया बल्कि पूंजीवाद भी अपने बुनियादी आदर्शों से पलट गया। इस रूपांतरण की शुरुआत 2008 में आई वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद ही हो चुकी थी।
इस बात को ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री और अर्थशास्त्री यानिस वारुफाकिस (टेक्नो फ्यूडलिज्म, 2023) बहुत शानदार ढंग से समझाते हैं, ‘‘जिस चीज ने पूंजीवाद की हत्या की, वह खुद पूंजीवाद ही है। पूंजी, जैसा कि हम उसे औद्योगिक क्रांति के दौर से जानते आए हैं, उसने म्यूटेशन कर के अपना स्वरूप बदला है और पिछले दो दशक में एक नए किस्म की पूंजी पैदा हुई है जो अपने पूर्ववर्ती के मुकाबले इतनी ज्यादा ताकतवर है कि जैसे एक खुराफाती और बेहद जलनखोर वायरस, जो अपने ही होस्ट को निगल जाए।’’
दो दशक में बुनियादी रूप से बदल चुकी इस दुनिया में जूलियन अब अपनी लड़ाई कैसे लड़ेंगे, यह उनका सवाल है लेकिन लोगों के लिए केंद्रीय सवाल अब भी वही है जो जूलियन ने तब पूछा था, ‘‘असल बात यह है कि आप क्या जानते हैं?’’ इस सवाल के बरअक्स एक सच यह भी है कि भारत जैसे देशों में, जहां- पांच किलो सरकारी राशन पाने से लेकर बच्चे का दाखिला स्कूल में करवाने तक- हर पल लोगों को अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए पहचान संख्या, उंगली के निशान, आंख की पुतली, वोटर आइडी, फोन नंबर और पता निजी एजेंसियों और सरकार को जमा करवाने की विवशता वैधानिक बना दी गई है, सब कुछ जानकर भी कुछ नहीं किया जा सकता जबकि सच जानकर हस्तक्षेप करने वाले को राष्ट्रद्रोही की संज्ञा देने में यहां देरी नहीं की जाती।
झूठे सच
इसके बावजूद, सच को जानने, कहने और बरतने का कोई विकल्प नहीं होता। जूलियन कहते हैं, ‘‘आपको शुरुआत सच से करनी होगी। सच ही कहीं पहुंचने का इकलौता रास्ता है क्योंकि झूठ या अज्ञानता के आधार पर लिया गया कोई भी निर्णय आपको अच्छे नतीजे तक नहीं पहुंचा सकता।’’ आज दिक्कत यह है कि सच की शक्ल में हमें जो हर पल झूठ परोसा जा रहा है, उसे हम कैसे पहचानें और समझें।
मसलन बायोमीट्रिक्स का उदाहरण लें, जो लोगों की पहचान करने के लिए उनके जैविक डेटा के गणितीय विश्लेषण और गणना का विज्ञान और प्रौद्योगिकी है। यह मानकर चलता है कि जैविक डेटा अद्वितीय (यूनीक) होता है (जैसे उंगलियों के निशान, आयरिस का स्कैन, आवाज का मुद्रण, इत्यादि)। बायोमीट्रिक प्रौद्योगिकी पर आस्था इस प्रस्थापना पर टिकी है कि शरीर के कुछ अंग ऐसे होते हैं जो समय गुजरने के साथ न तो बूढ़े होते हैं, न ही उनका क्षरण होता है या उनमें कोई बदलाव आता है। अमेरिका की नेशनल रिसर्च काउंसिल ने 24 सितम्बर, 2010 को प्रकाशित एक रिपोर्ट ''बायोमीट्रिक रिकग्नीशन: चैलेंजेज एंड अपॉर्चुनिटीज'' में निष्कर्ष दिया था कि बायोमीट्रिक्स की वर्तमान स्थिति में ''दोष अंतर्निहित'' है। सीआइए, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्योरिटी और डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (डार्पा) के संयुक्त अध्ययन में भी यही सामने आया था।
द इकनॉमिस्ट के 1 अक्टूबर, 2010 के अंक में छपी एक रिपोर्ट ''बायोमीट्रिक्स: द डिफरेंस इंजन: डूबियस सिक्योरिटी'' कहती है कि बायोमीट्रिक पहचान हिंसा को न्योता दे सकती है। ऐसे अप्रत्याशित परिणामों से हालांकि सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता और बायोमीट्रिक्स के विज्ञान में उनकी आस्था अक्षुण्ण बनी हुई है। पहचान तकनीकों के जानकार अधिवक्ता डॉ. गोपाल कृष्ण कहते हैं, ''बायोमीट्रिक को सच्चाई का पता लगाने वाली प्रौद्योगिकी बताकर लोगों के गले से नीचे उतारा जा रहा है। वास्तव में, नागरिक अधिकारों को पाने के अधिकार का ही इससे हनन हो रहा है। ऐसा लगता है कि इस आस्था के पीछे सच्चाई के बजाय कुछ और ही मामला है।''
निष्पक्षता या जासूसी?
यह 'कुछ और मामला' दरअसल पहचान, निगरानी और नियंत्रण का है। प्रौद्योगिकी को लेकर पहचान और नियंत्रण संबंधी ये चिंताएं अभी नहीं उभरी हैं, बहुत पुरानी हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक हाइडेगर ने अपने निबंध ‘द क्वेश्चन कनसर्निंग टेक्नोलॉजी’ में 1977 में ही चेताया था कि ‘‘प्रौद्योगिकी की यांत्रिक समझदारी उसके सार को समझने में हमारी दिमागी सीमा का मसला है’’। वे कहते हैं, ‘‘सबसे बुरा तब होता है जब हमें उसके अधीन यह बताकर कर दिया जाता है कि वह न्यूट्रल है। यह समझदारी हमें उसके सत्व के प्रति अंधा बना देती है।’’
हाइडेगर के यह सवाल उठाने से काफी पहले इसकी जमीन बन चुकी थी। अमेरिका में 1970-71 के दौरान एक घोटाला हुआ था जिसे ‘‘आर्मी फाइल्स’’ या ''कोनस'' घोटाला कहते हैं। इसमें पता चला कि वहां की सेना सत्तर लाख अमेरिकी नागरिकों की निगरानी कर रही थी। इसकी जांच में यह बात सामने आई कि सेना ने जिन फाइलों के नष्ट हो जाने की बात कही थी, उन्हें ‘आर्पानेट’ के माध्यम से चुपके से नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) को भेज दिया गया था। यह इंटरनेट के पहले संस्करण ‘आर्पानेट’ का पहला कथित उपयोग था जिसमें निगरानी से जुड़ी फाइलों को स्थानांतरित किया गया। वहां की जनता ने तब पहली बार जाना कि ऐसी कोई चीज अमेरिका में बनी है। अप्रैल 1975 में सीनेटर सैम एर्विन (सीनेट वाटरगेट कमेटी के अध्यक्ष) ने एमआइटी में एक भाषण देते हुए शायद पहली बार कहा था कि कंप्यूटरों के कारण हमारी निजता को खतरा बढ़ गया है।
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2012 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘साइफरपंक्स’ में जूलियन इंटरनेट को इंसानी सभ्यता के लिए सबसे बड़ा खतरा और क्रिप्टोग्राफी को सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का सबसे बड़ा हथियार मान रहे थे
अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर और ट्रूमैन के प्रशासन में सैकड़ों रक्षा एजेंसियां बनाई गईं लेकिन अकेले आर्पा ऐसी थी जिसे तेजी से विकसित होते सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान की शीर्ष वैज्ञानिक-प्रौद्योगिकीय एजेंसी का दर्जा दिया गया। आर्पानेट को 1989 में खत्म कर दिया गया और उसकी जगह नब्बे के दशक में वर्ल्ड वाइड वेब (डब्लूडब्लूडब्लू) ने ले ली। जूलियन असांज अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि उनकी पहली मुठभेड़ इसी आर्पानेट से हुई थी। ऑस्ट्रेलिया में केवल विश्वविद्यालय में पंजीकृत नागरिक ही आर्पानेट का प्रयोग कर सकते थे। इसके बावजूद जूलियन (कूट नाम मेंडेक्स) और उनके मित्र फीनिक्स, प्राइम सस्पेक्ट और ट्रैक्स आर्पानेट में ताक-झांक कर के कनाडा की टेलिकॉम कंपनी से लेकर नासा और पेंटागन के सिस्टम तक सेंध लगा चुके थे। 1988 में जूलियन इस चक्कर में ऑस्ट्रेलियाई पुलिस के निशाने पर आ गए। इसके बावजूद उनके दोस्तों का समूह ‘इंटरनेशनल सबवर्सिव्स’ कायम रहा।
आधुनिक इंटरनेट के औपचारिक रूप से आने के बाद ‘इंटरनेशनल सबवर्सिव्स’ का मूल काम सैन्य प्रतिष्ठानों के तंत्र में सेंध लगाने पर केंद्रित हो गया, जिसके लिए जूलियन से ‘साइकोफैंट’ नाम का एक प्रोग्राम बनाया था। उस वक्त वे और उनके दोस्त बमुश्किल बीस पार थे, लेकिन उन्हें भीतर से विश्वास था कि सत्ता को चुनौती देकर वे भ्रष्टाचार को उजागर कर सकते हैं और लोगों को न्याय दिलवा सकते हैं। वे अपनी आंखों के सामने लोगों की सरकारों द्वारा की जा रही जासूसी को देख पा रहे थे और समझ चुके थे कि तकनीक का निष्पक्ष होना सबसे बड़ा भ्रम और झूठ है। आज स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि एनएसए के पास 80 फीसदी से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय टेलीफोन कॉल्स तक पहुंच है जिसके लिए वह अमेरिकी दूरसंचार निगमों को करोड़ों डॉलर सालाना का भुगतान करता है। इसके अलावा माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, याहू और फेसबुक हर छह माह पर दसियों हजार लोगों के आंकड़े एनएसए और अन्य गुप्तचर एजेंसियों को मुहैया करवा रहे हैं जिनमें अहम राष्ट्राध्यक्ष भी शामिल हैं, जैसा कि एडवर्ड स्नोडेन ने उजागर किया था।
अघोषित इमरजेंसी
जूलियन असांज से उम्र में बारह साल छोटे एडवर्ड स्नोडेन के ऊपर भी अमेरिका के 1917 के जासूसी कानून के तहत मुकदमा चला था। वे इस मामले में खास निकले कि पहले वे खुद सीआइए में काम कर चुके थे और एनएसए में रहते हुए उन्होंने हजारों गोपनीय दस्तावेज पत्रकारों को सार्वजनिक किए- केवल इसलिए क्योंकि उन्हें एनएसए में काम करने के दौरान अपने काम की अनैतिकता का अहसास हो गया था और उससे मोहभंग हो गया था। उन्होंने संगठन के भीतर अपनी नैतिक चिंताएं जाहिर की थीं। जब उनकी नहीं सुनी गई, तो वे छुट्टी पर चले गए और अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान के नागरिक निगरानी प्रोजेक्ट को सार्वजनिक कर डाला।
फिलहाल वे रूस में प्रवासी जीवन जी रहे हैं। उनके किए खुलासों को सितंबर 2020 में अमेरिका की संघीय अदालत ने सही ठहराते हुए अमेरिकी खुफिया विभाग की नागरिकों की जासूसी को असंवैधानिक और अवैध ठहरा दिया था। 2019 में आई उनकी किताब ‘परमानेंट रिकॉर्ड’ में उनका संघर्ष दर्ज है।
असांज और स्नोडेन की तरह दुनिया भर में सैकड़ों पत्रकार और तकनीकविद सरकारों को जवाबदेह ठहराने और नागरिकों के हक में आवाज उठाने के आरोप में जेल में बंद किए गए हैं या गिरफ्तारी के डर से अपना देश छोड़कर भाग चुके हैं। दूसरे देशों में निर्वासित पत्रकारों की संख्या 2020 के बाद इतनी बढ़ी है कि कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) के सहयोग से निर्वासन में जी रहे पत्रकारों की संख्या 227 प्रतिशत बढ़ गई है। इधर भारत में, बीते कुछ वर्षों के दौरान 16 पत्रकारों के ऊपर यूएपीए का खतरनाक कानून लगाया जा चुका है और फिलहाल पांच जेल में बंद हैं। इस साल की शुरुआत में पूरी दुनिया में 320 पत्रकार जेल में कैद थे (सीपीजे)। हाल ही में दस साल पुराने एक मामले में लेखिका अरुंधती राय के ऊपर यूएपीए के अंतर्गत दिल्ली में मुकदमा चलाने की मंजूरी दी गई है और दो दशक पुराने एक प्रकरण में नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री मेधा पाटकर को पांच महीने की सजा सुनाई गई है।
भारत में तीन साल पहले भाजपा सरकार के लाए नए आइटी कानून के बाद निगरानी और नियंत्रण के दायरे में औपचारिक रूप से सभी नागरिक आ गए थे। यह सिलसिला सरकार की एजेंसी पीआइबी में फैक्ट चेक इकाई के गठन से होते हुए अब 1 जुलाई से बाकायदा नए पुलिस कानूनों तक आ पहुंचा है। पेगासस जैसे जासूसी के खतरनाक इजरायली सॉफ्टवेयर का सरकारी इस्तेमाल सार्वजनिक हो ही चुका है। लोकतंत्र को पुलिस स्टेट बनाए जाने के आरोप रोजाना लग रहे हैं।
जूलियन का सुख
इसीलिए असांज जिन सवालों को उठाने के लिए बरसों पहले कैद किए गए थे, वे अब और जटिल हो गए हैं। अब न्याय और आजादी का मामला उतना सीधा नहीं रह गया है। नियंत्रण के औजार महीन हो गए हैं। जूलियन अपने समय में इसलिए लड़ पाए क्योंकि उन्होंने सामयिक जटिलताओं को अतीत के आईने में समझा, जैसा जॉर्ज ऑरवेल ने कहा था, ‘‘जो वर्तमान को नियंत्रित करता है उसका अतीत पर भी नियंत्रण होता है और जिसका अतीत पर नियंत्रण होता है वही भविष्य को नियंत्रित करता है।’’ जूलियन इसी वाक्य से प्रेरित होते रहे थे।
इसके बावजूद उनके मन में अपने रास्ते को लेकर एक शंका भी थी। उस आशंका का वे खुद को जो जवाब देते हैं, वह आज किसी भी पत्रकार या प्रकाशक के लिए आदर्श हो सकता है। जूलियन पहले खुद से पूछते हैं, ‘‘अगर मैं गलत हुआ तो? अगर न्याय वाकई सबसे अहम लक्ष्य न हो और मैंने ही उसे पूरी तरह हासिल करने की संभावनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर देख लिया हो, तब?” जूलियन का जवाब गौरतलब है, ‘‘तब हमारे मन में एक सुख होगा, भले छोटा सा सही, कि हमने हफ्ते दर हफ्ते न्याय की दिशा में मामूली लक्ष्य हासिल करने में कुछ सहयोग तो किया ही है। हम लोग न तो किसी विचारधारा से हैं, न ही किसी ऐतिहासिक बाध्यता से बंधे हुए हैं। हम लोग प्रकाशक हैं जिन्होंने अपने समय में घट रही चीजों पर बस ईमानदारी से प्रतिक्रिया देने की कोशिश की थी।’’
जूूलियन असांज की रिहाई अगर पत्रकारों और प्रकाशकों को कोई एक संदेश देती है, तो वह अपने समय के प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं में ईमानदार और साहसी बने रहना है।