बिहार के व्यापक जाति सर्वेक्षण के प्रारंभिक आंकड़ों के जारी होने के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन के तहत लामबंद पार्टियां देशव्यापी जाति जनगणना की मांग जोरशोर से उठा रही हैं। उन्हें शायद उम्मीद है कि करीब नौ साल से केंद्र में सत्तासीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को अगले साल के लोकसभा चुनावों में चुनौती दी जा सकेगी।
बिहार जाति जनगणना कराने वाला पहला राज्य बन गया है। जाति सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक पिछड़ा और अतिपिछड़ा वर्ग की आबादी 63 फीसदी है जिसमें 27.12 फीसदी पिछड़ा वर्ग और 36.01 फीसदी अतिपिछड़ा वर्ग है। दलितों की संख्या 19.65 फीसदी, सामान्य वर्ग 15.52 फीसदी और आदिवासी 1.68 फीसदी हैं। इन आंकड़ों में खासकर पिछड़े वर्ग की आबादी मोटे तौर पर वही है, जो विभिन्न चुनाव सर्वेक्षणों में परिलक्षित होती रही है। बेशक, इसके राजनैतिक असर दिख सकते हैं, खासकर बिहार के मामले में यह बात सही हो सकती है। शायद इसी लिए बिहार के भाजपा नेता भी इसका हल्का-फुल्का विरोध करते हुए कहते हैं कि यह फैसला उनकी गठबंधन सरकार के दौरान ही किया गया था।
क्या इसका असर समूचे देश के स्तर पर देखा जा सकता है? विपक्ष और खासकर कांग्रेस इसे बड़ा मुद्दा बनाने की दिशा में बढ़ चुकी है। वह 2011 में यूपीए सरकार के दौरान सामाजिक-आर्थिक और जाति सर्वेक्षण के नतीजे जाहिर करने की मांग कर रही है जिसे तकनीकी कारण बताकर अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। जाहिर मकसद है कि अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण का लाभ मुहैया कराया जाए।
राहुल गांधी ने महिला आरक्षण बिल पर लोकसभा में बहस के दौरान ओबीसी की भागीदारी वाले मुद्दे को रेखांकित करते हुए बताया था कि केंद्र सरकार के कुल 90 सचिवों में सिर्फ तीन ही ओबीसी हैं, जो दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। जवाब में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था, देश को सचिव नहीं, सरकार चलाती है और उसके बाद गिनवाया था कि भाजपा के 88 सांसद ओबीसी हैं और उनकी सरकार में 27 मंत्री ओबीसी हैं। उन्होंने यह भी बताया कि भाजपा के 1358 विधायक में 365 यानी 27 फीसदी ओबीसी के हैं।
इन तमाम दलीलों के बावजूद जाति जनगणना पर भाजपा की दुविधा स्पष्ट झलकती है। 2011 के सामाजिक, आर्थिक और जाति सर्वेक्षण के नतीजे अव्यावहारिक बताकर सार्वजनिक नहीं किए गए और 2021 में तय जनगणना भी कोरोना महामारी की वजह से नहीं हो पाई। महामारी खत्म होने के दो साल बाद भी यह प्रक्रिया शुरू नहीं की गई। दरअसल, जातिवार जनगणना की वजह से भाजपा को सवर्ण वोटरों के छिटकने का खतरा नजर आता है। यह बात अलग है कि 2014 और 2019 के लोकसभा के चुनावों में उसे ओबीसी का अच्छा-खासा वोट मिला था। कई चुनाव बाद जनमत सर्वेक्षणों में यह जाहिर हुआ है। कुछ सर्वेक्षण 2019 में 44 फीसदी तो कुछ 58 फीसद तक भाजपा को ओबीसी वोट मिलने का अनुमान लगाते हैं। कुछेक सर्वेक्षणों में भाजपा को करीब 10 फीसदी मुसलमान वोट मिलने का भी अनुमान है। यानी नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा ने बड़े पैमाने पर छोटी ओबीसी जातियों और दलित जातियों को अपने साथ जोड़ा है। यह इससे भी समझ में आता है कि 2019 में भाजपा को 37.75 फीसदी जो वोट मिले, उसके सवर्ण जातियों के मूल आधार के अलावा सभी समुदायों का वोट मिला हुआ है।
लेकिन इसके बावजूद भाजपा को जाति जनगणना पर सवर्ण वोटरों की नाराजगी का अंदेशा है। भाजपा शायद यह गणित भी लगा रही है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के बाद वीपी सिंह सत्ता में नहीं लौटे थे और 1991 के चुनाव में भाजपा को बिहार में एक भी सीट नहीं मिली थी जबकि उत्तर प्रदेश में 46 सीटें मिल गई थीं।
यही नहीं, 1991 में मंडल की राजनीति से तेजी से उभरे लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की पार्टियां एक जाति विशेष और एक परिवार की बनकर रह गई हैं। सवाल है कि क्या राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी फिर से समूची पिछड़ा और अतिपिछड़ा बिरादरी को अपने झंडे तले ला पाएंगी? फिर, नीतीश कुमार ने जिस अतिपिछड़ा और महादलित जातियों की राजनीति को परवान चढ़ाया, उसमें भी भाजपा सेंध लगा चुकी है।
इसलिए यह स्पष्ट नहीं है कि जाति जनगणना देश के स्तर पर कितना बड़ा मुद्दा बन पाएगी या लोकसभा चुनाव में किसे इसका फायदा होगा। विपक्ष इस रणनीति को और धार दे पाएगा या भाजपा सोशल इंजीनियरिंग से उसकी काट ढूंढ लेगी?
(चुनाव आंकड़ा विश्लेषक और ब्रांड मोदी का तिलिस्म किताब के लेखक)