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बांग्लादेश: दिल्ली हसीना को सौंपेगी?

पूर्व प्रधानमंत्री को मौत की सजा के बाद उनके प्रत्यर्पण की मांग भारत शायद ही माने, इससे दोनों देशों के रिश्तों में खटास बढ़ने की आशंका
बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना

ढाका कोर्ट के बाहर 17 नवंबर को सुबह भीड़ जमा थी। हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ फैसला पहले से तय था। फिर भी, बांग्लादेश के अंतरराष्‍ट्रीय अपराध न्‍यायाधिकरण (आइसीटी) ने मौत की सजा का ऐलान किया, तो तालियां गूंज उठी। पिछले साल विरोध प्रदर्शनों की अगुआई करने वाले नौजवानों ने मिठाइयां बांटीं, एक-दूसरे को गले लगाया और फैसले को हसीना के खिलाफ लंबित इंसाफ बताया, जिन पर आरोप है कि उन्होंने देशवासियों के कत्‍लेआम का आदेश दिया था।

बांग्लादेश के संस्‍थापक बंगबंधु मुजीबुर्रहमान की 78 साल की बेटी हसीना को उनकी गैर-मौजूदगी में इंसानियत के खिलाफ जुर्म का दोषी ठहराया गया। तब के गृह मंत्री रहे असदुज्जमां खान को भी मौत की सजा सुनाई गई। फैसला सुनकर कोर्ट के अंदर वकीलों और पीड़ित परिवार के लोगों ने खुशियां मनाई। यह विडंबना ही है कि हसीना ने आइसीटी का गठन उन लोगों पर केस चलाने के लिए किया था, जिन्होंने 1971 की आजादी की लड़ाई के दौरान पाकिस्तान का साथ दिया था। उस समय के विपक्ष ने उसे कंगारू कोर्ट कहा था। अब अवामी लीग के समर्थक आइसीटी के बारे में वही कहने लगे हैं।

फैसले पर हसीना की प्रतिक्रिया तीखी थी। उन्होंने इसे “पूर्वाग्रह ग्रस्त और राजनीति से प्रेरित” और “बिना किसी लोकतांत्रिक जनादेश वाली अनिर्वाचित सरकार की धांधली” कहा। फैसले के बाद बांग्लादेश ने एक बार फिर भारत से हसीना को सौंपने की मांग की है। दलील दी गई कि 2013 की प्रत्‍यर्पण संधि के तहत भारत प्रत्‍यर्पण करने को बाध्‍य है। लेकिन नई दिल्ली शायद ही ऐसा करे।

अदालत के बाहर भीड़

अदालत के बाहर भीड़

रिटायर राजनयिक अशोक सज्जनहार कहते हैं, “भू-राजनैतिक संदर्भ में ऐसी कोई बाध्‍यता नहीं है कि भारत हसीना का प्रत्‍यर्पण करे। बांग्लादेश की मौजूदा सरकार में पाकिस्तान के समर्थक हैं और उन्होंने 1971 में बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के खिलाफ काम किया था। भारत कभी भी उनकी मांगों के आगे नहीं झुक सकता।”

सज्जनहार कहते हैं, “कानूनी तौर पर भारत के पास प्रत्‍यर्पण की मांग ठुकराने के लिए कई शर्तें और छूट हैं। प्रक्रिया के तहत प्रत्‍यर्पण का मामला बहुत मुश्किल, पेचीदा और वक्‍त लेने वाला है। जो देश प्रत्‍यर्पण की मांग करता है, उसको बहुत सारे अदालती दस्तावेज देने होंगे, ताकि अधिकारी सोच-समझकर फैसला ले सकें।” यह वर्षों तक खिंच सकता है। ढाका में भारत के पूर्व राजदूत पिनाक रंजन चक्रवर्ती कहते हैं, “मौत की सजा बांग्लादेश के हक में नहीं है।” इससे मौजूदा दरारें और चौड़ी होंगी। बांग्लादेश में माहौल भारत के खिलाफ है क्योंकि लोग नई दिल्ली को हसीना का मददगार मानते हैं। हसीना मानती हैं कि 2014, 2018 और 2024 के चुनाव सही थे, जबकि लोगों का मानना है कि उनमें धांधली हुई थी।

बांग्लादेश में ध्रुवीकरण तीखा है। शुरुआत से ही वहां की सियासत पाकिस्तान से आजादी के लिए लड़ने वालों और उसका विरोध करने वाली जमात-ए-इस्लामी जैसे गुटों के बीच बंटी रही है। 1975 में हसीना के पिता मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के 14 सदस्यों की हत्या, बांग्लादेश स्‍थापना के खिलाफ भारी रंजिश की वजह से हुई थी।

वे जख्म कभी नहीं भर पाए। कोई सुलह नहीं हुई। जब हसीना सत्ता में आईं, तो उन्होंने इंसाफ की मांग करने वाले परिवारों को राहत देने के लिए जमात नेताओं को फांसी पर चढ़ा दिया। यह ध्रुवीकरण हसीना के 2009 से 2024 तक के लंबे कार्यकाल में बना रहा। उन्होंने जमात पर प्रतिबंध लगा दिया, हजारों राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया और विरोध को दबाया गया। उनकी सरकार आजादी के आंदोलन से जुड़े परिवारों को खास फायदे देने पर फोकस कर रही थी। आखिरी हद तब हुई जब हसीना ने उनके लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण लाने की कोशिश की। उस फैसले से गुस्सा खुलकर सामने आ गया और छात्रों ने सरकारी कार्रवाई के खिलाफ आवाज उठाई। उसके बाद जो हुआ, वह अब इतिहास है।

हालांकि, हसीना का शासन उपलब्धियों से भरा रहा। उन्‍होंने अर्थव्‍यवस्‍था पर अच्छा काम किया। विश्‍व बैंक ने 2023 की रिपोर्ट में बांग्‍लादेश को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्‍यवस्‍थाओं में रखा था। 2015 तक सबसे गरीब देशों में शामिल रहा बांग्‍लादेश निम्‍न मध्‍य आमदनी वाला देश बन गया। लेकिन इस खुशहाली के बावजूद भ्रष्‍टाचार और तानाशाही के हालात बने रहे।

फैसले के बाद खुशी

फैसले के बाद खुशी

भारत की बांग्लादेश के साथ 4,000 किमी सीमा लगी हुई है, जो उसके संवेदनशील पूर्वोत्तर इलाके से सटा है। बदलती भू-राजनीति की वजह से शक्तियों का नया समीकरण तैयार हुआ है, जिसमें बांग्लादेश पाकिस्तान के साथ हो गया है। अवामी लीग ने अपने इतिहास के मद्देनजर इस्लामाबाद को दूर रखा था। लेकिन जो नया सियासी निजाम उभरा है, उसने पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने में तेजी दिखाई है।

दिल्ली के थिंक-टैंक, मनोहर पर्रीकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस (एमपी-आइडीएसए) की स्मृति एस. पटनायक कहती हैं, “जबसे नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार बनी है, पाकिस्तानी फौज और खुफिया अधिकारियों के दौरे बढ़ गए हैं।” वे आगे कहती हैं, “बांग्लादेश में कट्टरपंथ बढ़ रहा है, इसलिए भारत को निशाना बनाने वाले इस्लामिक आतंकी नेटवर्क का डर असली हो गया है।”

सच है कि हसीना के तख्‍तापलट के बाद इस्लामिक सियासी गुट नए जोश के साथ उभरे हैं और उन्हें पहचान मिली है। इनमें कई गुट अगले साल चुनाव लड़ने और संसद में जाने की तैयारी कर रहे हैं। जमात-ए-इस्लामी के अलावा, हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश (एचआइबी) जैसे और भी कट्टरपंथी संगठन उभरे हैं, जिसमें कौमी मदरसा टीचर और छात्र हैं। एचआइबी ने 3 मई को ढाका में एक बड़ी रैली की, जिससे उनके बढ़ते असर और लोगों की गोलबंदी करने की ताकत का पता चला। भारतीय उपमहाद्वीप में अल-कायदा और आइएस खोरासान चैप्‍टर जैसे गुट भी देश में मौजूद हैं।

भारत में सत्ता में जो भी सरकार हो, इन गुटों के खिलाफ ही रुख अपनाना पड़ता है। हसीना को मौत की सजा पर केंद्रीय विदेश मंत्रालय चुप है। भारत ढाका के साथ गंभीर बातचीत शुरू करने के लिए चुनावों के बाद का इंतजार कर रहा है। यूनुस के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार के साथ भारत के रिश्ते ठंडे हैं। पहली बार, देश के राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) खलीलुर रहमान, भारत के एनएसए अजीत डोभाल द्वारा आयोजित कोलंबो सिक्योरिटी कॉन्क्लेव में शामिल होने के लिए दिल्ली पहुंचे।

बांग्लादेश में अगले साल फरवरी में आम चुनाव होने हैं। फिलहाल, खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) जीतने के लिए सबसे संगठित पार्टी लगती है। जमात-ए-इस्लामी को भी अच्छी संख्या में वोट मिलने की संभावना है। हसीना कार्यकाल में जमात पर चुनाव लड़ने से बंदिश थी। अब चुनाव आयोग ने अवामी लीग का पंजीकरण मुल्‍तवी कर दिया है। सरकार ने पहले-पहल हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद से आतंक रोधी कानून के तहत अवामी लीग की सभी गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था।

अवामी लीग के भविष्य को लेकर कोई स्‍पष्‍टता नहीं है। पहले प्रोटेस्ट कोऑर्डिनेटर तथा अब इन्फॉर्मेशन ऐंड ब्रॉडकास्टिंग के एडवाइजर महफूज आलम ने द डेली स्टार को बताया, “अवामी लीग को अब बांग्लादेश में सियासी तौर पर जमने की इजाजत नहीं दी जाएगी।” वे पुख्ता इंतजाम करेंगे कि पार्टी पर प्रतिबंध बना रहे। हालांकि, कई लोगों का मानना है कि अवामी लीग कुछ साल बाद अलग रूप में फिर खड़ी हो सकती है।

ढाका के एक राजनैतिक जानकार नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “मुझे शक है कि अवामी लीग अगले साल चुनाव लड़ पाएगी। लेकिन जिस पार्टी के पास अभी भी 20-25 प्रतिशत आबादी का सपोर्ट है, उसे लंबे समय तक बाहर नहीं रखा जा सकता। अवामी लीग हसीना या उनके परिवार के किसी भी सदस्य के बिना भी चल सकती है।”

उनके मुकाबले में दूसरी बनी नई पार्टी नेशनल सिटिजन पार्टी (एनसीपी) है, जिसे छात्र आंदोलन के नेताओं ने शुरू किया था। एनसीपी लोकप्रिय है, लेकिन उसके पास बीएनपी जैसा संगठन नहीं है। देखना है कि फरवरी के चुनाव नई सरकार को देश की सियासत को ठीक करने का मौका देंगे या सब वैसा ही चलता रहेगा, क्योंकि बांग्लादेश में 1971 के साए लंबे हैं और हसीना को मौत की सजा से इन सायों को लंबा ही किया है। देश प्रतिशोध के चक्र से बाहर निकल पाएगा या लंबे समय तक अस्थिरता के नए दौर में चला जाएगा। यह सब बांग्लादेश के राजनैतिक वर्ग पर निर्भर करेगा।

 

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