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जनादेश ’23 मिजोरमः जातीयता की नई सियासत

नई प्रशासन प्रणाली का वादा करके बहुमत पाया जेडपीएम को कई चुनौतियों का सामना
जेडपीएम के ललदुनहोम (बीच में) अपने साथियों के साथ

तकरीबन सैंतीस साल बाद मिजोरम में जातीय पहचान की नई इबारत इन चुनावों में लिखी गई। 1986 में मिजो बागियों के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने समझौता किया और उसी से मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) का भी जन्म हुआ। तब से मिजोरम की सत्ता हर दशक में कांग्रेस और एमएनएफ के बीच बंटती रही है। पहली बार एक तीसरे पक्ष, स्‍थानीय छह पार्टियों के छतरी संगठन जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) को लोगों ने सत्ता सौंप दी है। इसकी वजहें, बेशक, पिछले छह महीने से जारी मणिपुर में हिंसक घटनाओं और अस्थिरता है, जहां भाजपा सरकार के खिलाफ कुकी लोगों में भारी नाराजगी है। मैतेई-कुकी संघर्ष में भाजपा मैतेई के पक्ष में मानी जाती है। कुकी-जो-मिजो जनजातियां सहोदर कही जाती हैं। इसलिए एमएनएफ की सरकार ने मणिपुर से आए कुकी लोगों को शरण दी, बल्कि निवर्तमान मुख्यमंत्री जोरमथंगा ने केंद्र में एनडीए की घटक होने के बावजूद इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से मना दिया था। लेकिन लोगों ने शायद उन पर भरोसा नहीं किया और जोरमथंगा खुद ऐजवाल पूर्व-1 सीट से चुनाव हार गए। ऐसे ही माहौल में कांग्रेस को भी सत्ता में वापसी की संभावना दिख रही थी। लेकिन लोगों ने स्थानीय पहचान के नए गुट जेडपीएम को मौका देना बेहतर समझा।

पहली दफा 2018 में बतौर निर्दलीय चुनाव में उतरे जेडपीएम को चुनाव आयोग से मान्यता भी 2020 में मिली। उसने 2018 में 40 सदस्यीय विधानसभा में 8 सीटें जीतकर मुख्य विपक्षी दल का ओहदा पा लिया था। इस बार 27 सीटों के साथ उसे स्पष्ट बहुमत मिला और एमएनएफ 10 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस 1 सीट ही जीत पाई, लेकिन भाजपा काफी कम वोट प्रतिशत के बावजूद दो सीटें चकमा और दूसरे आदिवासी समुदाय बहुल इलाकों में पा गई। जेडपीएम के ललदुहोमा के हाथ राज्य की कमान है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सुरक्षा में तैनात रहे पूर्व आइपीएस अधिकारी अपने नारे 'कलफुंग थार' यानी प्रशासन की नई विधि पर अमल करने पर अपना संकल्प दोहराते हैं।

चुनावी सीटें

मोटे तौर पर सिविल सोसायटी संगठनों और कुछ स्‍थानीय समूहों का मिलाजुला छतरी संगठन जेडपीएम का वादा साफ-सुथरा प्रशासन देना और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है। इसमें पूर्व प्रशासनिक अधिकारियों का जुटाव है, जो खासकर युवा आबादी में खासा लोकप्रिय है। इस तरह जेडपीएम मिजो पहचान को भी नया रंग दे रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री जोरमथंगा और एमएनएफ को यह एहसास था, इसलिए उसने मिजो जनजातीय समूह के एकीकरण का वादा भी किया था। मतलब यह है कि ग्रेटर मिजोरम की मांग नए सिरे से उठाई जाए, जिसमें मणिपुर, नगालैंड और यहां तक कि म्यांमार के संबंधित इलाकों की एक प्रशासनिक इकाई बनाने का वादा था। लेकिन, लगता है कि मिजोरम के लोगों ने उसे अव्यावहारिक मानकर खारिज कर दिया। जेडपीएम के ललदुहोमा ने नतीजों के बाद कहा, हमारी जीत दरअसल लोगों की उस आकांक्षा का प्रतिबिंब है कि राजकाज की एक नई विधि का प्रयोग किया जाए।

हालांकि कांग्रेस भी अपनी गारंटियों के साथ ऐसा ही कुछ वादा कर रही थी, लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री लल थनहवला के संन्यास लेने के बाद उसमें नेतृत्व का अभाव है। राहुल गांधी की अक्टूबर में तीन दिवसीय यात्रा से युवाओं में यही जोश जगाने की कोशिश हुई थी, लेकिन विश्वसनीय नेतृत्व के अभाव में वह जोश नहीं जग पाया। अलबत्ता, कांग्रेस को वोट ‌ठीकठाक मिला लेकिन सीट 2018 के पांच से भी घटकर 1 रह गई। जेडपीएम पर ही युवा वोटरों ने भरोसा किया। मिजोरम में युवा वोटरों की तादाद सबसे ज्यादा है।

जेडपीएम स्‍थानीय अर्थव्यवस्‍था को मजबूत करने के लिए चार तरह के कृषि उत्पादों अदरख, मिर्च, हल्दी, ब्रुम स्टेम खरीदने को अपनी पहली प्राथमिकता बता रहा है। लेकिन कई चुनौतियां उसके सामने होंगी। मसलन, म्यांमार से आ रहे शरणार्थियों के बसने की व्यवस्‍था करनी होगी। बेरोजगारी और राज्य का खाली खजाना भी उसे केंद्रीय मदद लेने को मजबूर करेगा। फिर, मणिपुर के हालात भी उसके लिए चुनौती होंगे।

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