तब से लेकर आज तक, जापान के हिबाकुशा लोगों ने पूरी दुनिया में परमाणु निरस्त्रीकरण और शान्ति की आवाज हर स्तर पर बुलंद की। उनके लगातार दबाव में जहां 1967 में जापान ने अणुबम न बनाने, दूसरों के बनाए बम न हासिल करने और अपनी धरती पर दूसरों को अणुबम न तैनात करने देने की त्रि-सैद्धांतिक नीति अपनाई वहीं परमाणु बमों के अप्रसार और परमाणु परीक्षणों पर जो अंतरराष्ट्रीय संधियां हुईं, उन पर भी इस पीढ़ी की प्रेरणा रही, जिसके कुछ सौ लोग ही इस सत्तरवें साल में जिंदा बचे हैं। उनके सन्देश और आत्मकथाएं इंसानियत के भविष्य के लिए एक जरूरी थाती है, जिसको इस साल अलग-अलग रूपों में रिकार्ड किया गया।
लेकिन आज सुबह हिरोशिमा में जो सालाना शान्ति घोषणा पारित हुई है, उसमें वर्तमान और भविष्य को लेकर गहरी चिंता सामने आई है। इन सत्तर सालों में जहां परमाणु बम से लैस देशों की संख्या बढ़कर नौ हो चुकी है वहीं आज के बमों और मिसाइलों की संहारक क्षमता हिरोशिमा में इस्तेमाल हुए बमों से सैकड़ों गुना ज्यादा है। इस साल की शान्ति-घोषणा में हिबाकुशा इस बात से भी चिंतित और क्षुब्ध हैं कि जापान के मौजूदा दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री शिंजो आबे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से चली आ रही सक्रिय सैन्य क्षमता न रखने की जापान की शांतिवादी नीति को मिटाने में लगे हैं।
हिरोशिमा का यह सत्तरवां साल इस लिहाज से भी महत्त्वपूर्ण हो उठा है कि परमाणु अप्रसार संधि (एन पी टी) की हर पांच साल पर होने वाली समीक्षा बैठक इस साल पहली बार विफल हो गई है।1968 में हुई इस संधि में तब के परमाणु-संपन्न राष्ट्रों ने धीरे-धीरे निरस्त्रीकरण की ओर बढ़ने का वादा किया था, जिसके बदले दूसरे मुल्कों ने खुद बम न बनाने की बात मानी थी। इस सौदे के बदले यह भी तय हुआ था कि शांतिपूर्ण उपयोग के लिए परमाणु तकनीक के उपयोग का दरवाजा सबके लिए खोला जाएगा। एनपीटी संधी के ये तीनों दरवाजे आज चरमरा रहे हैं - एक तरफ अमेरिका, रूस और चीन जैसे बड़े देशों ने निरस्त्रीकरण पर जबानी जमाखर्च के अलावा कुछ नहीं किया, वहीं दूसरे देशों ने भी परमाणु अप्रसार का ध्यान नहीं रखा। इजरायल, भारत-पाकिस्तान तथा उत्तर कोरिया जैसे देश तो शांतिपूर्ण उपयोग के नाम पर मिली तकनीक और सामग्री का इस्तेमाल कर के बम बना ही चुके हैं, खुद अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) का मानना है कि कम-से-कम तीस और मुल्क बम बनाने की क्षमता रखते हैं।
हाल में अगर अमेरिका को ईरान से परमाणु डील करना पड़ा है तो उसका एक कारण यह भी है कि कुछ भी कर के एनपीटी व्यवस्था को ढहने से बचाना था। इस भयावह नाजुक हालत का जो हल हो सकता है, जो नैतिक होने के साथ-साथ एकमात्र टिकाऊ और तर्कसंगत हल भी है, वह किसी भी पक्ष को मंजूर नहीं हो पा रहा है। और वह हल ये है किे परमाणु संपन्न राष्ट्र इन बमों से निजात पाने के अपने वायदे पर अमल करें। साथ ही, बाकी देश भी शांतिपूर्ण परमाणु उपयोग का मोह छोड़ दें क्योंकि एक तरफ तो यह सिद्ध हो चुका है कि बम और बिजली दोनों की तकनीक एक ही है और बिजली के रास्ते बाद के देशों ने बम बनाया है, वहीं फुकुशिमा के बाद अणु-बिजली के खतरे भी सामने आए हैं और जर्मनी व स्वीडन जैसे देशों ने इसके व्यावहारिक विकल्प भी अमल में लाए हैं। और इसीलिए, जापान की परमाणु-दुर्घटना के बाद हिरोशिमा और नागासाकी से जारी होने वाले सालाना शान्ति-संदेशों में परमाणु ऊर्जा से समूचे तौर पर निजात पाने की अपील ने जोर पकड़ी है।
परमाणु बम न सिर्फ घोर अमानवीय हैं बल्कि हालिया शोधों से उनके भयावह और दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रभावों का भी पता चला है। दुनिया के किसी भी कोने में होने वाला सीमित अणुयुद्ध भी वायुमंडल और पारिस्थितिकी तंत्र को असाध्य ढंग से बदल देगा, क्योंकि यह ग्लोबल वार्मिंग से पहले ही क्षतिग्रस्त है। परमाणु बमों के दुर्घटनावश उपयोग की संभावनाओं के साथ-साथ आतंकवादी और कट्टरपंथी ताकतों द्वारा इस्तेमाल होने के खतरे भी काफी बढ़ गए हैं। इन बढ़ते खतरों के साथ-साथ ऐतिहासिक अनुभवों और शोधों ने परमाणु बमों की उपयोगिता के दावों को भी खोखला साबित किया है। जहां वियतनाम और अफगानिस्तान में बम-संपन्न देश असल में बम-हीन देशों से हारे हैं वहीं भारत-पाकिस्तान जैसे देशों के केस में यह साबित हुआ है कि ये परमाणु बम झूठी प्रतिष्ठा हासिल करने के खतरनाक और अति-महंगे औजारों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं।
1998 में जब भाजपा सरकार ने परमाणु बम टेस्ट किया तब चीन और पाकिस्तान दोनों से रिश्ते सुधर रहे थे और ये परीक्षण किसी ठोस सुरक्षा जरुरत की बजाय संघ के सैन्यवादी राष्ट्रवाद का अंजाम थे। पोखरण परीक्षण के बाद तत्कालीन थल-सेनाध्यक्ष ने भी कहा था कि ये राजनीतिक बम हैं और इनसे हमको कोई फायदा नहीं हुआ है। उनकी आशंका जल्दी ही सच साबित हुई जब परमाणु बम के बावजूद पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ की। उसकी रणनीति इस आकलन पर आधारित थी कि अब पूरी दुनिया की नजर भारत-पाकिस्तान पर होगी और दोनों देशों पर युद्ध को परमाणु स्तर पर पहुंचने से पहले रोकने का तेज दबाव होगा। यह आकलन सही साबित हुआ और भारत उस युद्ध में वायु-सेना का इस्तेमाल नहीं कर पाया। सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि परमाणु-संपन्नता के बाद भारत को कारगिल में जो कीमत चुकानी पड़ी वह एक परमाणु-रहित स्थिति में नहीं देनी होती क्योंकि पारंपरिक युद्धक्षमता में भारत पाकिस्तान से बहुत आगे है। खुद हिरोशिमा में भी, परमाणु बम का इस्तेमाल किसी सैन्य जरुरत से नहीं हुआ था क्योंकि जापान वैसे भी आत्मसमर्पण के लिए तैयार था। अमेरिका ने युद्ध के बाद की दुनिया में अपनी दादागिरी पर मुहर लगाने के लिए लाखों लोगों की बलि चढ़ाई।
लेकिन सैन्य-औद्योगिक तंत्र के प्रोपगंडा को सच मानकर नीति बनानेे वाली सरकारें परमाणु बम को अंतरराष्ट्रीय पटल पर सबसे जरूरी करेंसी मान बैठी हैं जिससे हथियारों की यह खतरनाक होड़ खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। इस होड़ की कीमत आम लोग कई रूपों में चुका रहे हैं- जादूगोड़ा जैसी यूरेनियम खदानों, कूडनकुलम जैसे परमाणु कारखानों और दुनिया भर में परमाणु-परीक्षण स्थलों के आस-पास के लोग हमारे छाती फुलाने की कीमत अपनी जानें देकर चुका रहे हैं, और व्यापक आबादी उस समय और संसाधनों के दुष्प्रयोग की जो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे ज्यादा ज़रूरी चीजों पर खर्च किए जाने चाहिए।
हिरोशिमा के सत्तर साल पूरे होने पर आज हमें एक बार फिर से अलबर्ट आइंस्टाइन की बात पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि परमाणु बमों ने हमारा सबकुछ बदल दिया है, लेकिन हमारी सोच नहीं बदल पाए। परमाणु युग के सत्तर सालों के ठोस अनुभव अगर हमें अपनी सोच बदलने को मजबूर कर पाएं, तो एक बेहतर और सुरक्षित दुनिया का आश्वासन हिबाकुशा पीढी के बचे हुए लोगों से करने का साहस शायद हम अपने अंदर पा सकें।