सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में इंसाफ के लिए हर कुछ महीने पर मीडिया चैनल बोरा जाते हैं। अर्धसत्य को अकाट्य तथ्यों की तरफ पेश किया जाता है। निहित स्वार्थों वाले टिप्पणीकारों को मामले के संदर्भ में अपुष्ट दावे करने के लिए मंच प्रदान किया जाता है और इस मीडिया-मुकदमें के दौरान प्रासंगिक ब्यौरों पर कम ही ध्यान दिया जाता है। यहां मैं इनमें से कुछेक प्रासंगिक तथ्यों को तब संक्षेप में बताने की कोशिश कर रहा हूं जब मीडिया के साथी ‘सच्चाई’ के हित में एक और जिहाद के लिए कमर कस रहे हैं।
- डॉ. शशि थरूर सुनंदा की मौत के मामले में न तो अभियुक्त हैं, न संदिग्ध। दिल्ली के पुलिस आयुक्त ने भी विशेष कांड के संदर्भ में टीवी चैनलों पर अपने तमाम साक्षात्कारों में यह माना है। उन्होंने यह भी बताया है कि आज की तारीख तक पुलिस के सामने यह साफ नहीं है कि सुनंदा की मौत हत्या है या आत्महत्या या स्वभाविक मृत्यु जो बढ़ते हुए ल्यूपस रोग के साथ-साथ 25 सालों तक पैरासेटामोल के गलत इस्तेमाल का नतीजा है।
- अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के फॉरेंसिक चिकित्सक डॉ. गुप्ता ने किस आधार पर सुनंदा की मौत जहर की वजह से होने का आरोप लगाया? जहर का न तो कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य मिला, न रासायनिक। सीबीआई की अपनी फाॅरेंसिक प्रयोगशाला के अनुसार सुनंदा के बदन में सिर्फ एल्कोहल, निकोटीन, कैफीन और पैरासेटामोल जैसे तत्वों की माौजूदगी पाई गई। तो बिना रत्ती भर साक्ष्य के डॉ. गुप्ता ने जहर का आरोप कैसे जड़ दिया? कब से पुलिस अज्ञात विषों के लिए तुक्केबाजी करने लगी है?
- पुलिस ने अबतक यह स्थापित नहीं किया है कि सुनंदा की मौत हत्या थी। उन्होंने उसका विसेरा एफबीआई के पास अमेरिका भेजा है। आम जानकारी के अनुसार एफबीआई अमूमन दो से तीन हफ्ते में अपनी रिपोर्ट भेज देती है। इसके बजाय 4 महीनों से हम दिल्ली पुलिस की चुप्पी देख रहे हैं। क्या पुलिस लोगों को यह बता सकती है कि एफबीआई ने हत्या के अनुमान की पुष्टि के लिए अपने निष्कर्षों में कोई आधार दिया है या नहीं? अगर नहीं तो यह लगातार जारी सवाल आैर झूठ और परीक्षण क्यों? अपने जांच के नतीजे किसी अदालत के सामने पेेश करने की बजाय मीडिया कमे जरिये मानहानि क्यों? क्या इसलिए कि अदालत में मामला खड़ा करने लायक कोई आधार पुलिस के पास नहीं है?
- जब शशि थरूर के झूठ बोलने या सुनंदा को पीटने या उसके मुंह में जहर उड़ेलने के बारे में सुब्रमण्यम स्वामी दावे करते हैं तब मीडिया ऐसी बेहूदा बातों को बिना परखे क्यों रिपोर्ट करता है और क्योंयह सरल सवाल तक नहीं करता कि आप यह सब कैसे जानते हैं? दरअसल, बिना मौजूद हुए सुब्रमण्यम स्वामी यह सब कैसे जानते हैं? क्या उनके पास पेश करने लायक कोई गवाह भी है? उन्हें बिना रत्तीभर सबूत काल्पनिक दावे करने का लाइसेंस किसने दिया, और मीडिया बिना तथ्यों की जरा भी पुष्टि किए उसे रिपोर्ट कैसे कर सकता है? अगर स्वामी के पास कोई कथित अपराध अंजाम देने के बारे में कोई जानकारी है तो मीडिया में सनसनीखेज दावे करने की बजाय वह पुलिस के सामने अपना वक्तव्य क्यों नहीं दर्ज कराते?
- दुनिया में कहां लीक की गई बातों के आधार पर पुलिस की जांच चलती है? मीडिया मुकदमा चलने के बाद क्या वास्तविक न्यायसंगत सुनवाई की कोई गुंजाइश बनती है? अगर मीडिया वाकई निष्पक्ष है तो अक्सर यह रिपोर्ट क्यों नहीं करता कि केंद्रीय प्रशासनिक प्राधिकरण ने थरूर पर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डॉ. गुप्ता पर दबाव डालने का आरोप खारिज कर दिया है? डॉ. स्वामी सहित मीडिया के कई दुख-अन्वेषक डॉ. गुप्ता के अपुष्ट आरोपों के आधार पर यह दावा करने से नहीं चूकते कि डॉ. गुप्ता की फॉरेंसिक रिपोर्ट के नतीजे बदलवाने के लिए उन पर दबाव डाला था। मीडिया अब भी उन लोगों को क्यों मंच प्रदान करता है जिनके झूठे दावे कई बार खोखले साबित किए जा चुके हैं?
- क्या यह अजीब नहीं हैं कि पुलिस को सुनंदा की मौत पर चोट के निशानों की जानकारी उन लोगों से चाहिए जिन्हें यह शायद हासिल नहीं थी? जबकि पुलिस के सामने शशि थरूर, सुनंदा के साथ हॉस्पिटल में रहे उनके करीबी मित्र और उन अन्य मित्रों के बयान मौजूद हैं जिन्होंने सुनंदा की मौत के पहले की रात उनके साथ अस्पताल में गुजारी थी और इसकी ताईद की थी कि चोट के निशानों की वजह उनके अस्पताल रहने के दौरान लगाए गए इंजेक्शन और आईवी सुईयां थी।
- क्या यह तथ्य नहीं है कि सुनंदा ने लेखिका शोभा डे, टेलीविजन अभिनेता नसीर अबदुल्ला और अन्य लोगों को खुद ही यह बताया था कि वह ल्यूपस से पीड़ित हैं और इसके लिए ट्वीट भी किया था? क्या यह तथ्य नहीं है कि केआईएमएस मेडिकल रिपोर्ट और डिस्चार्ज समरी, जो मृत्यु के पहले उनकी सेहत के बारे में आखिरी दस्तावेज थे, न भी इस संभावना की ओर इशारा करते हैं? यह मृत्यु पूर्व सुनंदा की सेहत का अंतिम दस्तावेज था। क्या यह तथ्य नहीं है कि एक करीबी पारिवारिक मित्र तेज सराफ ने दावा किया है कि सुनंदा भर-भर मुट्ठी दवाइयां लेती थीं और काल्पनिक बकबक भी किया करती थीं। इससे पता चलता है कि मृत्युपूर्व सुनंदा का स्वास्थ्य संतोषजनक नहीं था।
- सुनंदा का परिवार, उनके भाईयों और औरस पुत्र शिव मेनन सहित, थरूर के साथ जमकर खड़े रहे। वे बराबर करते यह दावा करते रहे हैं कि थरूर सुनंदा को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकते थे, साथ ही थरूर ने पहले ही दिन से सब डिविजनल मजिस्ट्रेट की जांच में सहयोग दिया और दिल्ली पुलिस के सामने कानून का पालन करने वाले नागरिक की तरह अपने को एक गवाह के तौर पर अपना बयान दर्ज कराने के लिए हरदम प्रस्तुत किया।
सुनंदा की मौत का यह आख्यान उतना ही जोरदार है जितना कोई अन्य। साथ ही यह तथ्यों पर आधारित है जिसकी टीआरपी के लिए बेताब टीवी चैनल उपेक्षा करना पसंद करते हैं। क्या यह हम सभी लोगों के लिए जरूरी नहीं है कि हम इस तथ्य का सम्मान करें कि शशि थरूर एक बेकसूर इंसान हैं। कि सुनंदा के रूप में उन्होंने अपनी जिंदगी का महबूब खोया है। कि उन्हें अब तक शोक मनाने का मौका भी नहीं मिला है। शायद सुनंदा मृत्युकांड में इंसाफ की ओर बढ़ाने लायक पहला कदम यही है कि शशि थरूर के साथ नाइंसाफी नहीं की जाए।
(लेखक पॉलिसी संवाद के संस्थापक सदस्य हैं।)