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क्या भूलूं, क्या याद करूं?

मुझे एकदम प्रारंभ में ही कह देना चाहिए कि मैंने इस आलेख का शीर्षक बच्चनजी से नहीं लिया है। मुझे तो याद...
क्या भूलूं, क्या याद करूं?

मुझे एकदम प्रारंभ में ही कह देना चाहिए कि मैंने इस आलेख का शीर्षक बच्चनजी से नहीं लिया है। मुझे तो याद भी नहीं है कि हरिवंश राय बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा के पहले खंड के इस शीर्षक के साथ प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया था या नहीं, लेकिन मैं जान-बूझकर यह प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहा हूं। मेरे सम्मुख प्रश्न यह है कि किसी भी मुल्क को अपना वर्तमान गढऩे के लिए अतीत का क्या कुछ याद रखना चाहिए और क्या कुछ भूल जाना चाहिए, भूलते जाना चाहिए? इतिहास के कूड़ाघर में वक्त ने जितना कुछ फेंक रखा है, वह सब-का-सब संजोने लायक नहीं होता है। जो जाति या मुल्क वह सारा कुछ संजोते हैं, वे इतिहास के सर्जक नहीं, इतिहास के कूड़ाघर बन कर रह जाते हैं।


यह इसलिए कहना पड़ रहा है कि स्वतंत्रता दिवस को लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि राष्ट्र ने तय किया है कि आगे से 14 जनवरी का दिन वह विभाजन विभीषिका स्मृति दिन के रूप में मनाएगा। सुन कर पहली बात तो यही उठी मन में कि किसी प्रधानमंत्री को यह अधिकार कैसे मिल गया कि वह राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा कर दे? प्रधानमंत्री को राष्ट्र ने चुना नहीं है। राष्ट्र ने उन्हें बस एक सांसद चुना है; उन्हें प्रधानमंत्री तो उनकी पार्टी के सांसदों ने चुना है। जैसे राष्ट्र की तरफ से ऐसी घोषणा का अधिकार किसी सांसद का नहीं हो सकता है, वैसे ही प्रधानमंत्री का भी नहीं हो सकता है। यह अधिकार तो केवल, और केवल संसद का है कि वह ऐसे मामलों पर खुला विमर्श करे, देश में जनमत के दूसरे माध्यमों को भी उस पर सोचने-समझने का पूरा मौका दे और फिर आम भावना को ध्यान में रख कर फैसला करे। ऐसे निर्णयों की घोषणा भी संसद में ही होनी चाहिए, भले बाद में प्रधानमंत्री लालकिले से उसका जिक्र करें। और यह भी समझने की जरूरत है कि संसद को भी दूसरी संवैधानिक व्यवस्थाओं से बंध कर ही चलना चाहिए। हमारा संविधान स्वयंभू जैसी हैसियत किसी को नहीं देता है। इसलिए भी 15 अगस्त की गई यह अटपटी घोषणा ज्यादा ही अटपटी लगी।

हर आदमी का और हर मुल्क का इतिहास स्याह व सफेद पन्नों के मेल से बना है। दोनों पन्ने सच हैं। फर्क है तो इतना ही कि स्याह पन्नों पर आप न कुछ पढ़ सकते हैं, न दूसरा नया कुछ लिख सकते जबकि सफेद पन्ने आपको पढऩे और लिखने का आमंत्रण देते हैं। स्याह पन्नों में छिपाने जैसा कुछ नहीं होता है, क्योंकि आखिर वह सच तो होता ही है। लेकिन उसमें भुलाने जैसा बहुत कुछ होता है, क्योंकि वह सारा अमंगल होता है। जो इतिहासकार हैं वे दोनों पन्नों को संजो कर रखते हैं, क्योंकि उनकी जिम्मेवारी होती है कि वे इतिहास के प्रति सच्चे रहें। सामान्य नागरिक इतिहासकार नहीं होता है। उसकी जिम्मेवारी होती है कि अपना देश ईमानदारी व प्रेम से गढ़े, आगे बढ़े; और इस पुरुषार्थ में इतिहास से जितनी मदद मिलती हो, उतनी मदद ले।

देश का विभाजन हमारे इतिहास का वह स्याह पन्ना है जिस पर हमारी सामूहिक विफलता की कहानी लिखी है। केवल विफलता की नहीं, हमारी पशुता की, दरिंदगी की और मनुष्य के रूप में हमारे अकल्पनीय पतन की। हमारी आजादी के नेतृत्व का कोई भी घटक नहीं है कि जिसके दामन पर इस विभाजन का दाग नहीं है -महात्मा गांधी भी नहीं। दूसरी तरफ वे अनगिनत स्याह सूरतें भी हैं जो हमारी सामूहिक विफलता और पतन का कारण रही हैं। प्रधानमंत्री ने जिसे विभाजन की विभीषिका कहा है, वह प्रकृतिरचित नहीं, मानवरचित थी। कवि ‘अज्ञेय’ ने तो सांप से पूछा है, ‘सांप/ तुम सभ्य तो हुए नहीं/ नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया/  एक बात पूछूं/ उत्तर दोगे/ फिर कैसे सीखा डंसना/ विष कहां पाया?’ विभाजन के पन्ने पलटें हम तो ‘अज्ञेय’ का यही सवाल हमें इंसानों से पूछना पड़ेगा। और ऐसा भी नहीं है कि इंसानों का ऐसा पतन हमारे इतिहास में ही हुआ है। सारी दुनिया के इतिहासों में ऐसी पतन-गाथा दर्ज है। बहुत गिर-गिर कर उठे हैं हम इंसान और तब यहां तक पहुंचे हैं। पतनशीलता आज भी कई लोगों की जेहनियत में घुल गई है, कई लोगों की जीवन-शैली बन गई है।  


तो क्या भूलें, क्या याद करें? विभाजन क्यों हुआ, यह भूलने जैसा नहीं है। उससे हम सीखेंगे कि आदमी कहां और क्यों इस तरह कमजोर पड़ जाता है कि इतिहास की प्रतिगामी शक्तियां उसे अशक्त कर, अपना मनमाना करवा लेती हैं? गांधी जैसा दुर्धर्ष व्यक्ति भी पूरी कोशिश कर जिसे रोक नहीं पाया, भारतीय समाज की और मानव-मन की वह कौन-सी कमजोरी थी, इसे गहराई से समझना है और उससे सावधान रहना है। गांधी की विफलता इसी मानी में इतनी उदीप्त और उज्ज्वल है कि वह हमें पतन की तरफ नहीं ले जाती है। आसमान छूने की कोशिश में विफल होने में और नर्ककुंड रचने में सफल होने में जो फर्क है, वही फर्क है गांधी की विफलता और सांप्रदायिक ताकतों की सफलता में। हिंदू-मुसलमान दोनों के कायर सांप्रदायिक तत्व इसलिए इतिहास के कठघरे में हमेशा मुजरिम की तरह खड़े रहेंगे कि वे गांधी की कोशिशों को विफल करने की अंधी कोशिश करते रहे और अंतत: देश ही नहीं तोड़ बैठे बल्कि सर्वभक्षी घृणा का ऐसा समंदर रच दिया उन्होंने कि आज भी वह ठाठें मारता है। इसलिए यह जरूरी है कि गांधी की कोशिशों को हम हमेशा याद करें, करते रहें क्योंकि आगे का रास्ता वहीं से खुलता है।

हम क्या भूलें? उस दरिंदगी को भूलें जिसे विभीषिका कहा जा रहा है। वह विभीषिका नहीं थी, क्योंकि वह आसमानी नहीं, इंसानी थी। उसे इतिहास के किसी अंधेरे कोने में दफ्न हो जाने देना चाहिए क्योंकि वह हमें गिराता है, घृणा के जाल में फंसाता है, जोड़ता नहीं, तोड़ता है। दोनों तरफ की सांप्रदायिक मानसिकता के लोग चाहते हैं कि वह याद बनी रहे, बढ़ती रहे, फैलती और घुमड़ती रहे ताकि जो जहर गांधी ने पी लिया था, वह फिर से फूटे और भारत की धरती को अभिशप्त करे; इस उपमहाद्वीप के लोगों को आदमकद नहीं, वामन बना कर रखे। उनके लिए ऐसा करना जरूरी है क्योंकि वे इसी का रसपान कर जीवित रह सकते हैं। लेकिन कोई मुल्क सभ्यता, संस्कृति और उद्दात्त मानवता की तरफ तभी चल पाता है जब वह अपना कलुष मिटाने व भूलने को तैयार होता है। सभ्यता व संस्कृति की यात्रा एक उध्र्वगामी यात्रा होती है। वह नीचे नहीं उतरती है, हमें पंजों पर खड़े होकर उसे छूना व पाना होता है। जो ऐसा नहीं कर पाते हैं वे सारे समाज को खींच कर रसातल में ले आते हैं, फिर उनका नाम जिन्ना हो, कि सावरकर, कि उनके वारिस। इसलिए हम उन सांप्रदायिक ताकतों को याद रखें कि जिनके कारण देश टूटा, अनगिनत जानें गईं, अपरिमित बर्बादी हुई और पीढिय़ों तक रिसने वाला घाव, वैसा घाव जैसा महाभारत युद्ध में अंत में अश्वस्थामा को मिला था, इस उपमहाद्वीप के मन-प्राणों पर लगा। जिस मानसिकता के कारण वह घाव लगा, हम उसे न भूलें लेकिन जितनी जल्दी हो सके, उस घाव को भूल जाएं।

याद रखना ही नहीं, भूल जाना भी ईश्वर प्रदत्त आशीर्वाद है। इसलिए 15 अगस्त को अपना स्वतंत्रता दिवस मनाने की उल्लास भरी मानसिकता बनाने के लिए जरूरी लगता हो तो हम 14 अगस्त को प्रायश्चित व संकल्प  दिवस के रूप में मनाएं। प्रायश्चित इसका कि हम इतने कमजोर पड़े कि अपना यह सामूहिक पतन रोक नहीं सके; और संकल्प यह कि आगे कभी अपने मन व समाज में ऐसी कमजोरी को जगह बनाने नहीं देंगे हम। महा संबुद्ध बुद्ध को साक्षी मान कर हम 14 अगस्त को गाएं : ले जा असत्य से सत्य के प्रति/ ले जा तम से ज्योति के प्रति/ मृत्यु से ले जा अमृत के प्रति। विश्वगुरु बनना जुमला नहीं, आस्था हो तो इस देश का मन नया और उद्दात्त बनाना होगा।


(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)

 

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