दिल्ली पुलिस का कहना है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया और उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा की जांच बिल्कुल निष्पक्ष तरीके से हो रही है, यह जांच फोरेंसिक और वैज्ञानिक साक्ष्यों पर आधारित है। दिल्ली पुलिस का यह बयान हम सबका जैसे एक तरह से मजाक उड़ाता है। यह हमें बताता है कि कानून का शासन, न्याय, पीड़ित और निष्पक्षता जैसे शब्द और मुहावरे की परिभाषा उसी तरह तय होगी जो सरकार को उचित लगता है।
दिल्ली पुलिस ने नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध करने वाले छात्र नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रीवेंशन एक्ट (यूएपीए) की धारा 13, 16, 17 और 18 का इस्तेमाल करते हुए उन्हें गिरफ्तार किया है। यहां हमें यह समझने में कोई गलती नहीं करनी चाहिए कि सरकार ने महज असंतोष को दबाने के लिए अपना सबसे शक्तिशाली हथियार इस्तेमाल किया है। यूएपीए की धारा 16 से 18 आतंकवादी गतिविधियों के मामले में सजा, आतंकवादी गतिविधियों के लिए फंड जुटाने और षड्यंत्र रचने जैसे मामलों से जुड़ी हैं। धारा 13 में गैरकानूनी कार्यों के लिए सजा देने की बात है। यह उसी तरह अस्पष्ट है जिस तरह ‘आतंकवादी गतिविधि’।
उदाहरण के लिए अलगाववादी गतिविधियां करना या इनका समर्थन करना, भारत की क्षेत्रीय अखंडता और सार्वभौमिकता पर सवाल उठाना या उसमें विघ्न डालने की कोशिश करना, अथवा विद्रोह करना यह सब गैरकानूनी गतिविधियों में शामिल है। इसमें ‘इरादा रखना’, ‘समर्थन करना’, ‘सवाल उठाना’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जिनका राज्य अपने तरीके से मतलब निकाल सकता है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि हिंसा गैरकानूनी गतिविधियों का मुख्य बिंदु नहीं है। इसलिए सरकार को ऐसे राजनीतिक या सामाजिक संघर्ष को गैरकानूनी कहने का अधिकार मिल जाता है जो मुख्यधारा की राष्ट्रीय रवायतों को चुनौती देती है।
यूएपीए की धारा 16 से 18 को पोटा से लिया गया है। पोटा को 2004 में खत्म कर दिया गया था। तब इस बात के अनेक सबूत मिले थे कि इस कानून का इस्तेमाल राजनीतिक विरोधियों, जनजातियों जैसे हाशिए पर खड़े वर्ग और मुसलमानों के खिलाफ किया गया था। यूएपीए में इस भयावह लीगेसी को शामिल किया गया है। पोटा में आतंक की जो परिभाषा थी, वही यूएपीए में रखी गई है। इसमें ‘आशय’ (आतंकवादी हमला करने का आशय) को प्रमुखता दी गई है। इसमें ऐसे कार्य जिनसे किसी की मौत हो जाए, जख्मी हो, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचे, आवश्यक सेवाओं में बाधा पहुंचे, हथियारों का इस्तेमाल जैसे अपराध भी शामिल हैं। इससे पुलिस और सरकार दोनों को यह अधिकार मिल जाता है कि वह किस बात को आतंकवादी घटना बताएं और किसे सामान्य हिंसा की घटना। इसी तरह उन्हें यह अधिकार भी मिल जाता है कि कब यूएपीए के प्रावधानों का इस्तेमाल करना है और कब सामान्य आपराधिक कानूनों का। यही टाडा, पोटा और अब यूएपीए का दुरुपयोग है।
यूएपीए निष्पक्ष ट्रायल और जीवन एवं आजादी की संवैधानिक गारंटी के खिलाफ है। यह कानून के शासन की धारणा के भी खिलाफ है। यूएपीए की धारा 43 (डी5) को देखिए, जिसमें जमानत के प्रावधानों का जिक्र है। यह पोटा की धारा 49(7) जैसी ही है। व्यावहारिक रूप से देखें तो इसमें किसी भी आरोपी के लिए जमानत हासिल करना असंभव है। इस धारा के अनुसार जब तक सरकारी वकील की बात नहीं सुन ली जाती तब तक आरोपी को जमानत नहीं मिलेगी। अगर चार्जशीट के आधार पर मजिस्ट्रेट को लगता है कि आरोप सही है तो आरोपी को जमानत देने से इनकार किया जा सकता है। इस तरह देखें तो आरोपी को जमानत लेने के लिए भी सुनवाई की शुरुआत में ही खुद को निर्दोष साबित करना पड़ेगा।
यूएपीए में ‘राज्य का दुश्मन’ तय करने का अधिकार है। इसमें राजनीतिक विचारधारा या समूह के लोग (जैसे, वे लोग हाल में जिन्हें अर्बन नक्सल कहा जाने लगा है) और विभिन्न धर्मों के लोग शामिल हो सकते हैं। यही कारण है कि किसी राजनीतिक या धार्मिक समुदाय से जुड़े लोग (शरजील इमाम से लेकर सफूरा जरगर तक सड़क पर निकलकर राजनीति की बात कहने और नागरिकता को सांप्रदायिक बनाए जाने का विरोध करने वाले मुसलमान) खतरा बन जाते हैं। दिल्ली में हिंसा के मामले में जो एफआईआर दर्ज की गई है उसका मजमून देखिए। इसमें तथाकथित रूप से वह पूरी कड़ी बताई गई है जिसका अंजाम दंगे तक पहुंचा। सीएए और एनआरसी के खिलाफ भाषण देने वाले युवा छात्र नेता, जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे प्रदर्शन करने वाली महिलाएं और बच्चे जिन्होंने सड़क अवरुद्ध किया और वे साधारण मुसलमान जिन्हें मालूम था कि हिंसा होगी और इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजा।
इसका दायरा देखिए। इसमें सिर्फ वही शामिल नहीं जो गिरफ्तार किए गए हैं। इसके फंदे में जामिया एलुमनी एसोसिएशन की प्रेसिडेंट शिफा-उर-रहमान भी हैं। इसका असर और भी आगे तक जाता है। एक ही झटके में इसे ऐसा षड्यंत्र बता दिया गया जिसमें महिलाओं और बच्चों समेत पूरा मुस्लिम समुदाय शामिल था। यह कोई सामान्य एफआईआर नहीं है। इसमें एक लोकतांत्रिक आंदोलन को आपराधिक रूप दे दिया गया, ऐसा आंदोलन जो संविधान का पालन करना चाहता है। इसमें पूरे समुदाय को अपराधी बना दिया गया है। इसमें इस तथ्य को भुला दिया गया कि फरवरी में हुई हिंसा के शिकार लोगों में ज्यादातर मुसलमान ही थे। यूएपीए का इस्तेमाल करके उस हिंसा को आतंकवादी गतिविधि करार दे दिया गया है।
यदि उत्तर पूर्व दिल्ली में हुई हिंसा के आरोपी दूसरे वर्ग लोग होते तो क्या उनके खिलाफ आतंकवादी गतिविधियां चलाने का आरोप लगाया जाता? जैसे वे लोग जिनके भाषणों से सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा भड़की? इस तरह के भेदभाव वाला यह दस्तावेज न्यायपालिका समेत हम सबको चिंतित होने का पर्याप्त कारण देता है।
(मनीषा सेठी ‘काफकालैंडः लॉ, प्रिजुडिस एंड काउंटर-टेररिज्म इन इंडिया’ की लेखक हैं। वह नालसार यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में समाजशास्त्र पढ़ाती हैं। विचार उनके निजी हैं)