देश सिर्फ नई दिल्ली में नहीं बन सकता। विकास के पैमानों पर बिहार का लगातार निचले पायदान पर होना सामूहिक राष्ट्रीय बेचैनी का विषय होना चाहिए। दुर्भाग्यवश सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग की रिपोर्ट का केंद्र सरकार के नीतिगत दृष्टिकोण और बिहार सरकार पर कोई असर नहीं दिखता है। इस रिपोर्ट में सभी महत्वपूर्ण पैमानों पर बिहार को पिछड़ा दिखाया गया है। यह सामूहिक शर्म का विषय होना चाहिए था, लेकिन बिहार सरकार बड़ी ही बेशर्मी के साथ हकीकत को खारिज करने में लगी है। एक तरफ इस सरकार को अपने दावों को सही ठहराने के लिए आश्चर्यजनक रूप से किसी आंकड़े की जरूरत महसूस नहीं होती, तो दूसरी तरफ राज्य के संस्थान जो भी आंकड़े जुटाते हैं, उनकी पूरी तरह अनदेखी कर दी जाती है।
अगर हम भारत में केंद्र-राज्य संबंधों के इतिहास पर नजर डालें तो एक ट्रेंड सहज ही दिखता है। जब राज्य और केंद्र में एक ही राजनीतिक दल या गठबंधन की सरकारें हों तो राज्य विकास योजनाओं और सार्वजनिक खर्च में तरजीह दिए जाने की उम्मीद कर सकता है। अगर इस अनकहे सिद्धांत का उल्लंघन होता है, यानी अलग दल या गठबंधन की सरकार होने के बावजूद किसी राज्य को फायदा पहुंचाया जाता है, तो वह साझा संघवाद का सर्वोत्तम उदाहरण होगा। लेकिन नीति आयोग की नवीनतम रिपोर्ट पर बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन की पार्टियों की प्रतिक्रिया यह दिखाती है कि बिहार की मौजूदा परिस्थिति गठबंधन की राजनीति के पूरी तरह खिलाफ है। यहां साझा संघवाद और गठबंधन धर्म दोनों की तिलांजलि दे दी गई है।
सामाजिक और आर्थिक विकास के अधिकतर महत्वपूर्ण पैमानों पर बिहार के निरंतर खराब प्रदर्शन पर रूटीन प्रतिक्रिया और शोर ही सुनाई दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार से नए सिरे से विश्लेषण की मांग की है। यह दर्शाता है कि उनका गठबंधन गहरे नीतिगत कोमा में है और वह अपनी विसंगति तथा अपने अनैतिक चरित्र के दबाव में ही जागता है। वर्षों से विशेषज्ञ बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के ‘सुशासन’ और ‘विकास के चमत्कार’ जैसे आडंबर का छिद्रान्वेषण करते रहे हैं। अब नीति आयोग ने भी इस हकीकत से परदा उठा दिया है कि ‘विकास’ के खाली-खाली मंत्र की तरह ‘सुशासन’ भी मीडिया में प्रचार के जरिए हासिल किया गया वैचारिक मैनेजमेंट है।
राजनीति गरीबी को प्रभावित करती है और जिस तरह सरकारी संस्थान कार्य करते हैं, उससे सबसे कमजोर वर्ग के लोगों के जीवन पर बड़ा फर्क पड़ता है। महत्वपूर्ण सामाजिक योजनाओं में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात नीतीश सरकार के कारण यह जानकर जरा भी आश्चर्य नहीं होता कि बिहार की 50 फीसदी आबादी बहुआयामी पैमाने पर गरीब है। भ्रष्टाचार से सामाजिक विकास को खतरा होता है। यह अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देता है और गरीबों को नुकसान पहुंचाता है। नीतीश सरकार की प्रमुख योजना गलत कारणों से सुर्खियों में रही है। कभी ऊपर बैठे लोगों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो कभी अपने करीबियों को ठेका देने के। गुड गवर्नेंस के बजाय लगता है सरकार ने भ्रष्टाचारियों को प्रश्रय देने के गवर्नेंस में महारत हासिल कर ली है। सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचाने के बजाय हर स्तर पर भ्रष्टाचार फैल गया है। इसलिए यह सुनकर आश्चर्य नहीं होता कि यह ‘घोटालों की सरकार’ है।
पॉल एच. एपलेबी ने 1953 में ‘भारत में सार्वजनिक प्रशासन पर रिपोर्ट’ में लिखा था कि बिहार भारत का दूसरा सर्वश्रेष्ठ गवर्नेंस वाला राज्य है। बिहारवासियों के कठिन परिश्रम के बावजूद हालात तब से लगातार खराब हुए हैं। सामाजिक अन्याय के मूल पर प्रहार करके समाज को बदलने की इच्छा-शक्ति और उनकी राजनीतिक कुशाग्रता का उन्हें पर्याप्त श्रेय नहीं मिला है। शारीरिक श्रम के रूप में उनका आर्थिक योगदान और हिंसा तथा जाति के प्रभुत्व के खिलाफ संघर्ष के रूप में राजनीतिक योगदान राष्ट्र-निर्माण के सबसे महत्वपूर्ण अवयव हैं। राष्ट्र-निर्माण के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को ही उचित मान लिया गया है।
खस्ताहाल जिंदगीः एक दलित बस्ती का नजारा
बिहार में हालात इतने खराब हैं कि लोगों को बुनियादी सुविधाएं मिलना भी दूभर हो गया है। बेहतर शिक्षा और नौकरी की तलाश में वे ‘वनवे टिकट’ लेकर यहां से जा रहे हैं। इस तरह बिहारी ‘प्रवासी’ का पर्याय बन गए हैं। बिहारियों के प्रवास की समस्याएं भी उतनी ही कष्टकर हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की हालत बदतर इसलिए है क्योंकि हम एक फलते-फूलते समाज के लिए ढांचागत बदलाव करने में नाकाम रहे। खराब प्रदर्शन के लिए विरासत में मिली समस्याओं को और विकास के लिए भौगोलिक परिस्थिति को जिम्मेदार ठहराना नीतीश के लिए आम हो गया है। इस तथ्य से हम भलीभांति परिचित हैं कि उपनिवेश काल से पहले बिहार काफी समृद्ध और व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था।
तमाम दावों और प्रतिदावों के बावजूद नीति आयोग की नवीनतम रिपोर्ट से जो जानकारी मिलती है, वह नई नहीं है। केंद्र सरकार ने 2013 में रघुराम राजन समिति बनाई थी। उसे अलग-अलग पैमाने पर राज्यों का पिछड़ापन मापने के तरीके का सुझाव देना था। समिति को राज्यों के विकास के लिए उन्हें विशेष दर्जा देने की सिफारिश भी करनी थी। राजन समिति के अनुसार भी बिहार सबसे कम विकसित राज्यों में शुमार था। फिर भी राज्य के विकास के लिए उसे विशेष दर्जा अभी तक नहीं दिया जा सका है।
मेरे विचार से यह सिर्फ राजनीति के कारण नहीं हुआ, बल्कि यह चुनावी राजनीति की भी विफलता है। साल 2020 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद राज्य सरकार का गठन लोकतांत्रिक प्रक्रिया और प्रदेशवासियों की राजनीतिक इच्छा का गला घोंटने का बड़ा उदाहरण है। जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर बिहार के लोगों, खासकर यहां के युवाओं ने यूपीए के मुख्यमंत्री का चेहरा तेजस्वी यादव के नेतृत्व के प्रगतिशील आर्थिक और सामाजिक एजेंडा में भरोसा जताया था। लोगों ने राजद के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन को चुना था, लेकिन उसकी जगह एक अवैध रूप से बनी सरकार ने ले ली। वह एनडीए की केयरटेकर सरकार की तरफ से नौकरशाही और प्रशासन के घोर दुरुपयोग का नतीजा था।
विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद ने सचेत और जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने की प्रतिबद्धता दिखाई है। यह विकास और गवर्नेंस से जुड़े अहम मुद्दों को विधानसभा में निरंतर उठाता रहा है, लेकिन उन मुद्दों पर सरकार की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं दिखती। इस संदर्भ में कहा जा सकता है कि राज्य सरकार का रवैया बिल्कुल वैसा ही है, जैसा संसद में केंद्र सरकार का रवैया दिखता है।
इन सबके बीच किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने की नीतीश कुमार की बेताबी भी दिखती है। इससे न सिर्फ उनका राजनीतिक कद छोटा हुआ है, बल्कि इससे बिहार के लोगों को भी बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। अपनी इन खामियों को उन्होंने तथाकथित ‘सुशासन’ से ढंकने की कोशिश की है। लेकिन उनके इस सुशासन के ब्रांड को स्वीकार करने वाला कोई नहीं है। मैं इस बात पर बड़े से बड़ा दांव लगाने को तैयार हूं। इसके विपरीत पिछले साल कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों से लौट रहे बिहार के मजदूरों के कष्टों के प्रति सरकार के लचर रवैये से उनका ‘कुशासन’ उजागर हो गया। इस साल अप्रैल-मई में महामारी की दूसरी लहर के दौरान भी उनकी सरकार की अक्षमता उजागर हुई। इसने प्रभावित परिवारों पर मौत तथा आर्थिक और भावनात्मक तबाही की अमिट छाप छोड़ दी है।
हमने डबल इंजन सरकार के बारे में बहुत कुछ सुना है। शाब्दिक अर्थों में तो यह साझा संघवाद का बड़ा ही नायाब नमूना लगता है, लेकिन हमें यह सवाल पूछने की जरूरत है कि यह डबल इंजन वाली गाड़ी क्या ढो रही है? यह डबल इंजन गाड़ी किस दिशा में जा रही है? जहां तक मैं देख पा रहा हूं, यह बिहार से मानव संसाधनों को बाहर ले जा रही है। इससे मुझे बिहार और उत्तर प्रदेश से देश के विभिन्न हिस्सों को जाने वाली श्रमजीवी एक्सप्रेस और श्रम शक्ति एक्सप्रेस जैसी गाड़ियों के नाम भी याद आते हैं। नाम से पता चलता है कि ये गाड़ियां किनके लिए हैं। दुर्भाग्य यह है कि ट्रेंड आज भी बरकरार है। फर्क सिर्फ इतना है कि डबल इंजन सरकार में इसकी रफ्तार और बढ़ गई है।
(लेखक राष्ट्रीय जनता दल के राज्यसभा सांसद हैं)