यदि राजस्थान के वर्ष 2014-15 से 2015-16 के बजट अनुमान की तुलना करें, तो स्वास्थ्य व परिवार कल्याण, समाज-कल्याण व पोषण में कुछ मामूली वृद्धि की गई है जैसी कि महंगाई बढ़ने के साथ प्रायः किसी भी अगले वर्ष के बजट में की जाती है। दूसरी ओर अनुसूचित जाति/जनजाति/ओबीसी के बजट में तो राज्य सरकार के स्तर पर भी कटौती ही हुई है। राजस्थान के नए बजट में पिछले वर्ष की तुलना में इस मद को 1542 करोड़ रुपए के स्थान पर 1471 करोड़ रुपए कम कर दिया। कृषि व संबंधित क्षेत्रों के बजट को 5469 करोड़ रुपए से 5232 करोड़ रुपए कर दिया गया है। ग्रामीण विकास के बजट को 13904 करोड़ रुपए से 12968 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इस तरह इन महत्वपूर्ण मदों में राजस्थान के नए बजट में भी कटौती की गई है।
यदि विभागीय स्तर के आबंटनों को देखा जाए तो महिला व बाल विकास का आबंटन 2014-15 व 2015-16 के बजट अनुमान की तुलना के आधार पर 1957 करोड़ रुपए से कम होकर 1678 करोड़ रुपए पर पंहुचा, जबकि अल्पसंख्यक विभाग का आबंटन 104 करोड़ रुपए से 92 करोड़ रुपए पर पंहुचा।
यह एक गहरी चिंता का विषय है, विशेषकर यह ध्यान में रखते हुए कि इस वर्ष प्रतिकूल मौसम में अनेक राज्यों में (राजस्थान में विशेषकर) खेती-किसानी की व्यापक क्षति हुई है।
बजट विश्लेषकों ने इस बारे में सवाल भी उठाए हैं कि क्या राज्य सरकारों को जो अतिरिक्त संसाधन मिल रहे हैं वे उन्हें दी गई नई जिम्मेदारियों को संभालने के लिए पर्याप्त हैं।
सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाऊंटेबिलिटी दिल्ली ने इस वर्ष के केंद्रीय बजट के अपने आकलन में बताया है कि वर्ष 2015-16 से केंद्रीय सरकार 24 योजना (प्लान) स्कीमों में वेतन व स्टाफ के खर्च व अन्य रेवेन्यू खर्च से अपने को मुक्त कर रही है यानि यह जिम्मेदारी अब राज्य सरकारों के पास ही जाने वाली है। इन स्कीमों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आंगनवाड़ी या आईसीडीएस, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना, स्वच्छ भारत योजना व इंदिरा आवास योजना जैसी अनेक महत्वपूर्ण स्कीमें व कार्यक्रम शामिल हैं।
जहां एक ओर इतनी बड़ी जिम्मेदारियां आगे से राज्य सरकारों को सौंपी जा रही हैं, वहां दूसरी ओर इस विश्लेषण में बताया गया है कि 14 वें वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य सरकारों की खर्च करने की क्षमता उतनी नहीं बढ़ेगी जितना कि प्रायः समझा जा रहा है। संसाधनों में यह वृद्धि वास्तव में काफी सीमित ही है। इस विश्लेषण में आंकड़ों की विस्तृत पड़ताल के बारे में निष्कर्ष निकाला गया है, “ऐसा प्रतीत होता है कि सामाजिक क्षेत्र की जितनी जिम्मेदारियां राज्य सरकारों को दी जा रही है, उसकी तुलना में उनकी खर्च करने की क्षमता में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो रही है।”
यह एक गहरी चिंता का विषय है क्योंकि इस कारण निर्धन व जरूरतमंद वर्ग, दलित, आदिवासी, महिलाओं, किसानों व मजदूरों के हितों से जुड़े अनेक कार्यक्रमों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। विशेषकर स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा व महिला कल्याण के कार्यक्रमों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। अतः केंद्र व राज्य सरकारों के बजट को मिलाकर एक विस्तृत व प्रमाणिक आकलन केंद्रीय सरकार को प्रस्तुत करना चाहिए जिससे स्पष्ट हो जाए कि इन महत्वपूर्ण क्षेत्रों में संसाधनों की उपलब्धि में पहले से कमी हो रही है या वृद्धि हो रही है। यदि इस मूल्यांकन से यह पता चले कि कुछ मिलाकर संसाधनों की कमी हो रही है तो इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकार को शीघ्र कदम उठाने चाहिए। यह जरूरी है कि स्वास्थ्य, पोषण व निर्धन वर्ग की सहायता के कार्यक्रमों के लिए संसाधनों की कोई कमी न हो।
केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 19 मार्च को राज्य सभा को आश्वस्त किया कि राज्य सरकारों के संसाधन इतने बढ़ गए हैं कि वे केंद्रीय बजट में हुई सामाजिक क्षेत्र की कटौतियों की भरपाई के लिए पर्याप्त हैं। पर इससे पहले विपक्ष के नेता जयराम रमेश ने विस्तार से बताया कि कम से कम पुरानी व्यवस्था से नई व्यवस्था में बदलाव के दौर में इस बारे में चिंता के कारण मौजूद हैं कि सामाजिक क्षेत्र की कई महत्वपूर्ण स्कीमों के लिए वित्तीय संसाधनों का अभाव उत्पन्न हो सकता है। उन्होंने सलाह दी कि इस संभावना को दूर करने के लिए वित्त मंत्रालय व नीति आयोग को मिल कर एक ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिससे विभिन्न राज्यों में सामाजिक क्षेत्र के लिए संसाधनों की उपलब्धि का आकलन किया जाए और कोई कमी उत्पन्न होने की संभावना को समय रहते रोका जा सके ताकि ऐसी कमी से उत्पन्न होने वाले दुख-दर्द से बचा जा सके।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।)