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जवाबदेही के जुए से कतराती नौकरशाही

सूचना के अधिकार कानून के क्रियान्वयन पर अभी चार अध्ययन आए हैं। दो गैर सरकारी, परिवर्तन और सूचना के जनाधिकार पर राष्‍ट्रीय अभियान द्वारा, और दो सरकारी, केंद्रीय सूचना आयोग की कमेटी और स्वयं भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय द्वारा। सभी की रिपोर्ट के अनुसार सूचना का अधिकार सक्षमता से लागू करने में मुख्य बाधा अपर्याप्त क्रियान्वयन, कर्मचारियों के प्रशिक्षण का अभाव और खराब दस्तावेज प्रबंधन है। किसी ने फाइल देखने की नोटिंग की मांगों और खिझाऊ तथा तुच्छ आवेदनों के कारण नहीं माना है। फिर भी कार्मिक मंत्रालय नौकरशाही के दबाव में इनसे संबंधित लाना चाहता है तो उसकी मंशा पर शक होता है वही कार्मिक मंत्रालय जिसका अपना अध्ययन बताता है कि अभी देश के सिर्फ 15 प्रतिशत लोगों को सूचना के अधिकार के कानून की जानकारी है और 85 प्रतिशत लोगों को नहीं। यानी नौकरशाही अभी भी सिर्फ 15 प्रतिशत भारतीयों के प्रति जवाबदेह होने से भी कतरा रही है। और परिवर्तन की रिपोर्ट के अनुसार इन 15 प्रतिशत में सिर्फ एक-चौथाई यानी 27 फीसदी ही संतोषप्रद सूचना हासिल कर पाते हैं।
जवाबदेही के जुए से कतराती नौकरशाही

आजादी के 62 साल बाद भी भारतीय नौकरशाही की क्या औपनिवेशिक फितरत है कि जनता को हमारा संवैधानिक जनतंत्र एक हाथ सेजो हक मुहैया कराता है उसे वह दूसरे हाथ से छीनने को आतुर रहती है। संयुक्त गंठबंधन की इसी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में आम जन को सूचना के अधिकार का एक मजबूत कानून देने पर अपनी पीठ ठोकी और अब उसी का कार्मिक मंत्रालय ऐसे संशोधन  लाने के जतन कर रहा है कि यह कानून बेमतलब हो जाए। ये संशोधन लागू हुए तो पता है क्या होगा। कोई भी नागरिक अपने जानमाल की हिफाजत, अपने राशन की दुकान में राशन न होने, अपनी सडक़ न बनने, अपना बिजली बिल ज्यादा आने, विकास कार्यों में काम पूरा कर लेने के बावजूद मस्टर रोल में दर्ज अपनी मजदूरी पूरी न मिलने, अपने गांव-शहर के बिकास पर खर्च सरकारी रकम आदि की बाबत कोई जानकारी चाहेगा तो उसके आवेदन को सरकारी अधिकारी खिझाऊ और तुच्छ* बोलकर रद्दी की टोकरी में फेंक देने के हकदार हो जाएंगे।

इस तरह की सूचनाएं देश के आम नागरिक के जीवनयापन और उसकी जिंदगी की गुणवत्ता से संबंध रखती हैं जिन्हें प्राप्त करने के हक के लिए आम नागरिकों ने राजस्थान से शुरू करके देश में एक लंबा अभियान चलाया और अंत में पांच वर्ष पूर्व हमारे जनतंत्र की ताकत की बदौलत बाइज्जत अच्छी तरह हासिल किया। अब अगर प्रस्तावित संशोधन लागू हुए तो आम आदमी की जिंदगी की गुणवत्ता से संबंधित जानकारियों को खिझाऊ और तुच्छ मानने का रास्ता खुल जाएगा। यदि सूचना का अधिकार मनुष्य के जीने के हक और उसकी अभिव्यक्ति से संबंधित है तो इन संशोधनों से संविधान प्रदत्त जिंदगी और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकारों को हमारी नौकरशाही द्वारा खिझाऊ और तुच्छ मानने का रास्ता खुलेगा। जी हां, सूचना के अधिकार कानून में पहला प्रस्तावित संशोधन यही है: 'खिझाऊ और तुच्छ* होने का आधार पर जानकारी के लिए किसी भी आवेदन को नामंजूर किया जा सकता है। वर्तमान प्रावधानों के अनुसार इस कानून के तहत किसी भी आवेदन को देश की सुरक्षा, संप्रभुता, अखंडता, आदि को खतरा, वैदेशिक संबंधों-संधियों के सम्मान, अपराध अनुसंधान में बाधा, निजता की रक्षा, सूचना जुटाने में विशाल खर्च जैसे ठोस और पुष्टि योग्य आधारों पर ही नामंजूर किया जा सकता था लेकिन कोई भी अधिकारी मनमाने तौर पर किसी भी आवेदन को खिझाऊ और तुच्छ मानकर फेंक दे सकता है।

सूचना के अधिकार कानून में दूसरा प्रस्तावित संशोधन भी इतना ही नुकसानदेह है। वर्तमान प्रावधानों के अनुसार हमें यह जानने का अधिकार है कि किसी परियोजना के बारे में किसी सरकारी निर्णय के पूर्व उसके पक्ष-विपक्ष में फाइल पर क्या तर्क और उसके निर्णय के क्या आधार लिखे गए। इससे आम नागरिक यह पता लगा सकता है कि कोई सरकारी निर्णय सही और तर्कसंगत आधार पर जनहित में लिया गया है या उसके पीछे पक्षपात और भ्रष्‍टाचार जैसे असंगत और स्वहित वाले आधार हैं। प्रस्तावित संशोधनों में फाइल नोटिंग देखने के नागरिकों के इस अधिकार को वापस लेने की बात है। अंतिम सरकारी निर्णय तो उस पर क्रियान्वयन होते ही अपने आप पता चल ही जाता है। खनन कहां हुआ, शहरी विकास प्राधिकरण का मकान किसे मिला, दाखिला किसे मिला- ये सब चीजें हो जाने पर पता चल जाती हैं। लेकिन ये और इनसे भी बड़े निर्णय किन आधारों पर हुए- यह तो फाइल नोटिंग से ही पता चल सकता है।

दरअसल, जब हम सूचना के अधिकार के तहत इस आलेख के पहले और दूसरे पैरा में उल्लिखित या अन्य जानकारियां सरकार और प्रशासन से मांगते हैं तो फिर उनसे कई जवाब चाहते हैं। मसलन, हमारे हिस्से का राशन क्यों नहीं आया, हमारे हिस्से की मजदूरी क्यों नहीं मिली, आवंटित राशि के बावजूद हमारी सडक़ क्यों नहीं बनी, हमारे, हमारे गांव, हमारे इलाके के हिस्से का विकास राशि आवंटित होने के बावजूद क्यों नहीं हुआ, हमारी पात्रता के बावजूद इंदिरा विकास या शहरी विकास प्राधिकरण का मकान अपात्र को क्यों मिला, किसी परियोजना के लिए जमीन छिनी हमारी लेकिन विकास हुआ किसका? आदि। यानी पारदर्शिता की जुड़वां है जवाबदेही। और यही हमारे हाकिमों की परेशानी है। वे नहीं चाहते कि आम नागरिक उनसे जवाब मांगें। उनकी कारगुजारियों, और अक्सर उनकी अक्षमताओं, लापरवाहियों, उदासीनता, भ्रष्‍टाचार और पक्षपात का जवाब। सूचना के अधिकार ने हाकिमों के ऊपर जो जवाबदेही का जुआ कसा है, प्रस्तावित संशोधन उससे बचने के रास्ते की तलाश है।

सूचना के अधिकार कानून के क्रियान्वयन पर अभी चार अध्ययन आए हैं। दो गैर सरकारी, परिवर्तन और सूचना के जनाधिकार पर राष्‍ट्रीय अभियान द्वारा, और दो सरकारी, केंद्रीय सूचना आयोग की कमेटी और स्वयं भारत सरकार के कार्मिक मंत्रालय द्वारा। सभी की रिपोर्ट  के अनुसार सूचना का अधिकार सक्षमता से लागू करने में मुख्य बाधा अपर्याप्त क्रियान्वयन, कर्मचारियों के प्रशिक्षण का अभाव और खराब दस्तावेज प्रबंधन है। किसी ने फाइल देखने की नोटिंग की मांगों और खिझाऊ तथा तुच्छ आवेदनों के कारण नहीं माना है। फिर भी कार्मिक मंत्रालय नौकरशाही के दबाव में इनसे संबंधित लाना चाहता है तो उसकी मंशा पर शक होता है वही कार्मिक मंत्रालय जिसका अपना अध्ययन बताता है कि अभी देश के सिर्फ 15 प्रतिशत लोगों को सूचना के अधिकार के कानून की जानकारी है और 85 प्रतिशत लोगों को नहीं। यानी नौकरशाही अभी भी सिर्फ 15 प्रतिशत भारतीयों के प्रति जवाबदेह होने से भी कतरा रही है। और परिवर्तन की रिपोर्ट के अनुसार इन 15 प्रतिशत में सिर्फ एक-चौथाई यानी 27 फीसदी ही संतोषप्रद सूचना हासिल कर पाते हैं। प्र्रस्तावित संशोधन इन मुटठी भर लोगों से भी तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित कराने का हथियार छीन लेंगे। सूचना के अधिकार अभियान से जुड़े कई प्रमुख नागरिकों ने प्रधानमंत्री को इसके खिलाफ पत्र लिखा है। देखें शासन कितना ऊंचा सुनता है।

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