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संतई के बहाने ‘पदवियों’ का कारोबार

हाल के दिनों की कुछ घटनाओं का आधार मान लें तो हिंदू संतों की जिंदगी सवालों के घेरे में है। जो सेवा, त्याग, तपस्या का दम भरते थे, वे सिक्कों की खनखनाहट के फेर में पड़ने से लेकर संदिग्ध लोगों तक को पदवियां बांटने में जुटे हुए दिख रहे हैं। संतई एक भरा-पूरा कारोबार नजर आ रही है। नाम, पहचान, भगवान से लेकर पद-परंपरा तक, सब कुछ बिकने वाली चीजों में शुमार हो गए हैं। ऐसे हालात में आस्था और भरोसा कहीं कोने में दुबक कर सिसक रहे हैं। संतों का कारोबार लगातार तरक्की कर रहा है और जिंदगी की दुश्वारियों से परेशान लोग किसी चमत्कार की उम्मीद में उनके शरणागत हो रहे हैं।
संतई के बहाने ‘पदवियों’ का कारोबार

सचिन दत्ता और राधे मां के मामले ने एक बार फिर लोगों का ध्यान खींचा है, लेकिन इस प्रकार की घटनाएं पहली बार नहीं हो रही हैं। ये तो पुरानी घटनाओं की कड़ी मात्र हैं। पहले भी ऐसे लोगों को संत की पदवी बांटी गई हैं, जिनके अतीत के बारे में सवाल खड़े होते रहे हैं। कुछ दशक पहले तक माना जाता था कि मोटे तौर पर दो प्रकार के लोग साधु बनते हैं। एक वे जो गरीबी से तंग आकर दुनियावी धंधे छोड़ देते हैं और दूसरे वे जिन्हें अमीरी का आकर्षण अपने चरम पर पहुंच कर मुक्त कर देता है, लेकिन अब एक तीसरी श्रेणी भी इसमें जुड़ गई है। ये लोग वे हैं जो संत के चोले में कारोबार करना चाहते हैं। चूंकि, कारोबार करने के लिए एक नाम और पहचान की जरूरत होती है इसीलिए संत-कारोबारी अपने लिए मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, महंत, श्रीमहंत जैसी पदवियों के जुगाड़ में लग जाते हैं। 


परंपरा तो यही कहती है कि किसी व्यक्ति को संन्यास देने से पहले से कम दस साल तक उसके चरित्र को परखा जाता है। इस अवधि में ब्रह्मचर्य से लेकर संसार से विरक्ति तक पर निगाह रखी जाती है, लेकिन कोई बताए कि सचिन दत्ता और राधे मां को महामंडलेश्वर की पदवी देने से पहले किसने उन्हें उपरोक्त पैमानों पर परखा? शायद, जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि उनके पास इस पदवी के लिए पर्याप्त पूंजी थी। सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर मनाने के पीछे जिन कैलाशानंद ब्रह्मचारी का नाम आ रहा है, वे हरिद्वार में पशु-बलि देने के लिए चर्चित रहते हैं और उत्तर प्रदेश की सपा सरकार से भी उनके गहरे रिश्ते हैं। सभी के मन में यह सवाल है कि जो सचिन दत्ता आदमी शराब और डिस्कोथेक के काम से जुड़ा हो, उसके साथ संतों के इतने गहरे संबंध कैसे बन गए हैं ? आखिर, वे कौन संत थे जिन्होंने राधे मां नाम की महिला को महामंडलेश्वर के पद तक पहुंचा दिया ? ऐसी कौन-सी योग्यता राधे मां में थी!


संतई की आड़ में कारोबार करने वालों लोगों की पदों को बांटने में काफी रुचि रही हैै। संभवतः इसी का परिणाम है कि हरिद्वार और प्रयाग कुंभ में विभिन्न अखाड़ों ने सौ से अधिक लोगों को मंडलेश्वर और महामंडलेश्वर बना दिया था। शनि भगवान का भय दिखाकर चर्चा में आए दाती महाराज भी पिछले हरिद्वार कुंभ में महामंडलेश्‍वर बन गए थे। इसी दौरान हालैंड से आए सोहम बाबा को भी महामंडलेश्वर बना दिया गया था। पायलट बाबा भी किसी न किसी वजह से चर्चा में रहते हैं। उन्होंने जापानी और रूसी भक्तों तक को महामंडलेश्वर की पदवी दिला दी थी। सोने से लदे दिखने वाले पूर्व बिल्डर अब गोल्डन बाबा बन गए हैं और दक्षिण में एक अभिनेत्री के साथ अंतरंग रिश्तों को लेकर चर्चा में आए स्वामी नित्यानंद भी महामंडलेश्वर बनाए जा चुके हैं। ये काफी लंबी सूची है। अब अखाड़ा परिषद कह रही है वे संदिग्ध लोगों को पदों से बर्खास्त करेंगे। ये तब कहा जा रहा है, जब पूरा मामला मीडिया पर उछल रहा है। अन्यथा संदिग्ध लोग आसानी से मंडलेश्वर, महामंडलेश्वर बने घूम रहे हैं। हरिद्वार, ऋषिकेश और दूसरी धार्मिक शहरों में उनके आश्रमों को देखकर यही लगेगा कि स्टार स्तर के होटल हैं। कुछ दिन पहले आसाराम और हरियाणा के रामपाल का मामला सभी लोग देख चुके हैं। यदि, व्यापक स्तर पर जांच-पड़ताल हो तो ऐसे अनेक लोग सामने आएंगे जिन पर कोई न कोई आपराधिक मामला चल रहा है या जिनकी पुलिस को तलाश है। इस काम को किसी अखाड़ा परिषद के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता, वरन इस मामले में सरकार को पहल करने की जरूरत है।


विवादों का मामला केवल मंडलेश्वर और महामंडलेश्वर पदों तक सीमित नहीं हैं। शंकराचार्य और रामानंदाचार्य पदवियों के लिए भी कोर्ट-कचहरी हो रही है। खुद को असली और दूसरे को फर्जी साबित करने के लिए कई शंकराचार्य कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं। इनमें स्वामी स्वरूपानंद से लेकर माधवाश्रम और वासुदेवानंद तक शामिल हैं। संत लोग एक-दूसरे के खिलाफ कुत्सा-प्रचार में जुटे हैं। संतों से उम्मीद की जाती है कि वे अहंकार से मुक्त हो गए होंगे, लेकिन उनका अहंकार इनता बड़ा है कि अखाड़ा परिषद ही दो हिस्सों में बंट गई हैं। कई संतों ने अपने गुटों को साथ लेकर अलग-अलग समितियां और परिषदें खड़ी कर ली हैं। जो लोग हिंदू संन्यास परंपरा में भरोसा और आस्था रखते हैं, वे इस वक्त खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे। आम लोगों के मन में भी यह सवाल उठ रहा है कि क्या हिंदू धर्म, दर्शन और संस्कृति के वाहक ऐसे ही लोग होंगे जिनका अतीत संदिग्ध है और जिनका किसी ज्ञान-परंपरा से दूर का भी रिश्ता नहीं हैं। ये सवाल किसी न किसी स्तर पर तो उठना ही चाहिए कि यदि संत दुनिवायी धंधों में लिप्त हैं तो फिर उन्हें ‘भगवे’ का आकर्षण क्यों है ? क्या ये अतिरिक्त सुरक्षा और संरक्षण देता है ? क्या इससे सत्ता की निकटता आसानी से हासिल होती है और स्वतः ही कारोबार का विस्तार होता जाता है ? कितने संत ऐसे हैं जिन्होंने कोई राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्तर की शैक्षिक संस्था खड़ी की होगी या एम्स की टक्कर का कोई अस्पताल खड़ा कर दिया हो ? अपवाद जरूर होंगे लेकिन बहुसंख्य संत केवल बटोरने में लगे हैं और बटोरने की इस संभावना के दोहन के लिए ही संदिग्ध लोग संत होने की पदवियां खरीद रहे हैं।

 

 

 

 

 

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