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प्रकृति से छीना तो वापस भी करो

हिमाचल प्रवास के दौरान कहीं वैसे रसीले आडू भी नहीं दिखे जैसे हमने राज्य में घुसने के ठीक पहले पंचकुला में लिए थे। और लाल-लाल चेरी ने हमें सिर्फ नारकंडा के आसपास राजमार्ग पर लुभाया। पहाड़ी ढलानों पर सेबों के बागान-दर-बागान दिखते चले गए और हम लोगों से पूछते रहे, कहां गए, कहां गए हिमाचल के मशहूर सेब? शायर मिलते तो कह देते, सेबों को किन्नौरी बालाओं के रुखसार की रंगत में देखिए। लेकिन हमें पता चला, हिमाचल में इस बार फलों की पैदावार में जबर्दस्त गिरावट आई है। फलों में वहां मुख्य पैदावार सेब और नाशपाती की होती है और इन दोनों का उत्पादन इस वर्ष 50-60 प्रतिशत कम हुआ है।
प्रकृति से छीना तो वापस भी करो

हिमाचल प्रदेश के सोलन, शिमला और किन्नौर जिलों के पहाड़ों और वादियों में चढ़ती-उतरती, घुमावदार सडक़ों पर लगभग 500 किलोमीटर की भटकन के दौरान राष्‍ट्रीय राजमार्ग 22 पर ज्यूरी से ऊपर 17 कि.मी. दूर सुंदर सराहन में जाकर मिलीं ताजा हरी खुबानियां। पगोडा की तरह खूबसूरत पारंपरिक पहाड़ी शैली के भीमकाली मंदिर के बाहर साधारण से ढाबे पर। लगभग सवा सौ कि.मी. पीछे रमणीक कल्पा से किन्नर कैलाश हिमशिखर और बादलों के बीच लुकते-दिखते उसके शिवलिंग शैल के दर्शन कर उतरते वक्त किन्नौर के जिला मुख्यालय रिकांगपिओ में एक दुकानदार ने कहा था, 'यह वैसे तो किन्नौर की खास ताजा हरी खुबानियों का मौसम है जो फसल चौपट हो जाने से अभी उपलब्ध नहीं है। हरी तो क्या, उसके पास हम मैदानवासियों के लिए ज्यादा परिचित सूखी खुबानियां भी नहीं थीं। शायद उनकी फसल कुछ समय से नष्‍ट हो रही थी। मेवों की कहें तो किन्नौर जिस चिलगोजे और अखरोट के लिए खूब जाना जाता है, वे भी उसके पास नहीं दिखे। वह बेच रहा था तो सिर्फ किन्नौरी बादाम।

हमें अपने हिमाचल प्रवास के दौरान कहीं वैसे रसीले आडू भी नहीं दिखे जैसे हमने राज्य में घुसने के ठीक पहले पंचकुला में लिए थे। और लाल-लाल चेरी ने हमें सिर्फ नारकंडा के आसपास राजमार्ग पर लुभाया। पहाड़ी ढलानों पर सेबों के बागान-दर-बागान दिखते चले गए और हम लोगों से पूछते रहे, कहां गए, कहां गए हिमाचल के मशहूर सेब? शायर मिलते तो कह देते, सेबों को किन्नौरी बालाओं के रुखसार की रंगत में देखिए। लेकिन हमें पता चला, हिमाचल में इस बार फलों की पैदावार में जबर्दस्त गिरावट आई है। फलों में वहां मुख्य पैदावार सेब और नाशपाती की होती है और इन दोनों का उत्पादन इस वर्ष 50-60 प्रतिशत कम हुआ है। हम कारण तलाशते हैं। कुछ लोगों के अनुसार राज्य में मौसम गरमा रहा है और सेबों की परिपक्वता के लिए जरूरी शीत घंटे कम होते जा रहे हैं।

हम अक्सर इस प्रसंग में जलवायु परिवर्तन और भूमंडलीय ताप यानी ग्लोबल वॉर्मिंग की बात सुनते हैं। जलवायु और भूमंडलीय जैसे भारी-भरकम शब्दों से ऐसी छवि बनती है कि यह प्रक्रिया स्थानीय नहीं बल्कि सुदूर, अमूर्त और वैश्विक है इसलिए स्थानीय पहुंच और नियंत्रण से परे है। पर सतलुज घाटी में घुसते तो हिमालयी पहाड़ों की बढ़ती तपिश जून मे अचानक महसूस होती है जब नाथपा झाकड़ी, बस्पा, खड़छम-वांगतू और खाब जैसी विशाल जल विद्युत परियोजनाओं का लगातार मिलता मलबा इंद्रियों पर सीधा हमला करता है। पहली और अंतिम परियोजना सरकारी यानी सतलुज जल विद्युत निगम की है और बीच की दोनों निजी क्षेत्र यानी जेपी समूह की। सतलुज के किनारे-किनारे लगातार संकरी होती पक्की सिंगल सडक़ बार-बार कंकड़ीले कीचड़ की पथरीली पगडंडी में बदलती रहीत है। कार का इंजन और टायर गरमाने लगते हैं। बारंबार ब्लास्टिंग, डंपिंग एवं ट्रकों, डंपरों तथा बुलडोजर जैसे बड़े वाहनों की धूल-गर्द उन नंगी चट्टानों को और गर्म करती रहती है जो हरियाली की चादर से हरी रहती हैंै और जिन पर तीखा पहाड़ी सूरज धूप के कोड़े बरसाता रहता है। नीचे सतलुज कृश होती जाती है, कभी पतली धार में बदलती तो कभी बिल्कुल बिला-सी जाती क्योंकि उसका पानी बार-बार पहाड़ों के अंदर सुरंगों में ले जाया जाता है, फिर बाहर छोड़ा जाता है। जेपी समूह की नियंत्रण वाली पट्टी में हालत ज्यादा खराब है बनिस्बत जल विद्युत निगम वाली पट्टी के। निगम और सेना के सीमा सडक़ संगठन जैसे सरकारी प्राधिकरण सडक़ों, परिवेश और पर्यावरण का थोड़ा ज्यादा ध्यान रखते दिखाई पड़े। सांगला में पर्वतीय कृषि शोध संस्थान के जीरा फार्म के माली नारपुरा नेगी, जो इस क्षेत्र में अंतिम भारतीय गांव, हसीन छितकुल के लिए हमारे गाइड बने, अपने पहाड़ों और घाटियों के साथ जल विद्युत में निजी उद्यम के सलूक से बेहद आहत नजर आए: 'जबसे ये पहाड़ी ढलानें नदी की सुरंगों के लिए खोदी गई हैं, हमें यह धरती अक्सर हिलती लगती है। ‘वह साल-दर-साल बर्फबारी घटते चले जाने की शिकायत भी करते हैं। उनकी धारणा की गूंज अन्य स्थानीय लोगों की बातों में भी सुनाई पड़ती है।

हमें मालूम नहीं स्थानीय लोगों की इन बातों को लेकर सरकारी पक्ष क्या है। बहरहाल, झील, धारा और बौद्ध मठ वाले साढ़े तीन हजार मीटर से ज्यादा ऊंचे गावं नाको जाने के लिए हम खाब की तरफ बढ़ते हैं जहां तिब्बत से आने वाली स्पीति और पारछू नदियां मिलकर सतलुज बनाती हैं। रास्ते में जगह-जगह भुरभुरी ढलानों ने ढहकर चॉक और स्लेट के विशाल मलबों के रेगिस्तानी ढूहों जैसे ढेर बना रखे हैं जो सडक़ को अक्सर एक पहाड़ी ढलान से मोडक़र दूसरी पर जाने को मजबूर करते हैं। यह सिर्फ हिमाचल के पर्यावरण संकट का नतीजा नहीं हैं। एक फौजी हमें बताता हैं, सीमा पार चीनी परियोजनाओं द्वारा ढाई गई तबाही भी इसके पीछे है। वह हमें वे पहाड़ी ढलानें दिखाता है जो कुछ साल पहले उस बाढ़ में ढह गई थीं जो चीन द्वारा बाढ़ से उफनती पारछू नदी का पानी भारत में छोड़े जाने के कारण आई थी। वह हमें उस बाढ़ में मारे गए 25 फौजियों की स्मृति में लिखा शिलापट दिखाता है। वह उस बाढ़ के रोंगटे खड़े करने वाली अन्य कहानियां सुनाता है। हम मानो एक भुतहा ड्राइव पर हैं जो दुनिया के सभी देशों, खासकर पड़ोसियों के बीच पर्यावरण संबंधी सहयोग की जरूरत मानने पर मजबूर करती है। राष्‍ट्र राज्यों ने राष्ट्रीय विकास के नाम पर पर्यावरण से जो छीना है वह आपस में सहयोग कर पर्यावरण को वापस कर दें तभी हरी, ताजी खुबानी मिलती रहेगी और सेब और मनुष्य भी।

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