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संपादक की कलम सेः महामारी और महारोग

“अफसोस! सामुदायिक ताने-बाने को तार-तार करने वाले ऐसे संगीन महारोग के लिए कोई वैक्सीन उपलब्धच नहीं...
संपादक की कलम सेः महामारी और महारोग

“अफसोस! सामुदायिक ताने-बाने को तार-तार करने वाले ऐसे संगीन महारोग के लिए कोई वैक्सीन उपलब्धच नहीं है।”

पिछले पखवाड़े दिल्ली हवाई अड्डे के घरेलू टर्मिनल पर सुरक्षा तामझाम से बाहर निकलने को बेताब भारी भीड़ के बीच थोड़े वक्त के लिए एकदम असहाय-सा महसूस होने लगा। वह तड़के सुबह का समय था और हमारी आंखें चौंधियाई हुई थीं। लेकिन हमें उस खतरे का एहसास पल भर को भी नहीं भूला कि सामू‌हिक लापरवाही और गफलत से कैसी आफत को बुलावा दे सकते हैं।

और लो, यह आफत तो आ ही धमकी। जानलेवा कोविड-19 महामारी को दूर रखने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के साल भर बाद हम दूसरी लहर के प्रकोप में खुद को फिर उसी मोड़ पर खड़े पाते हैं। और ठहरिए, यह लहर तो मानो पहले वाली को पीछे छोड़ देने की चेतावनी दे रही है। राहत की थोड़ी मोहलत के बाद हम फिर महामारी के खतरनाक प्रकोप के मुहाने पर हैं, संक्रमण के पॉजिटिव मामलों की तादाद हर रोज 60,000 से ऊपर छलांग ले रही है। हर रोज मौत के आंकड़े उफान ले रहे हैं। फरवरी महीने के ज्यादातर समय मृत्यु का आंकड़ा 100 से नीचे था, जो 250 से ऊपर जाने लगा है।

सो, आश्चर्य नहीं कि कहीं हमसे चूक हो गई, जैसा कि दिल्ली हवाई अड्डे का अफरा-तफरी का माहौल गवाही दे रहा था। हमने अपने सुरक्षा कवच को उतार फेंका, मास्क पहनने को लेकर हमारी हिचक का तो क्या कहिए! महाराष्ट्र में एक ताजा सर्वेक्षण में मास्क पहनने में हिचक 55 फीसदी पाई गई। अलबत्ता, उत्तर बंगाल के शहर में तो यह और भी अधिक होगा, जहां मैं हाल में गया। वहां जिससे भी मिला लगभग हर कोई कोविड की सावधानियों से जैसे मुक्त था। तो, अचरज कैसा कि कोविड फिर समूचे देश को डराता मंडराने लगा है।

विडंबना देखिए कि यह लहर ऐसे वक्त आई है, जब हम दूसरे देशों के लिए उम्मीद बनकर उभरे, महामारी से दुनिया की जंग को तेज करने के लिए बड़ी मात्रा में वैक्सीन का निर्यात करने लगे और देश में भी लाखों लोगों को वैक्सीन का कवच मुहैया कराने लगे। आंकड़ों की बात करें तो हमारी उपलब्धि ठीकठाक है। अब तक लाखों लोगों को वैक्सीन लग चुकी है और वैक्सीनेशन की कुल संख्या के मामले में हम सिर्फ अमेरिका और चीन से ही पीछे हैं। हालांकि जरूरत के हिसाब से अभी काफी कुछ करना बाकी है।

इस अंक में हमने इस अहम सवाल का जवाब जानने की कोशिश की है कि क्या हम दूसरी लहर को रोक पाएंगे, और उससे भी बढ़कर यह कि हमें उसके लिए क्या करना चाहिए? कोविड जैसी जटिल समस्या का कोई आसान हल नहीं है, मगर स्टोरी पर शिद्दत से काम करने और विशेषज्ञों की राय जानने वाले हमारे संवाददाताओं ने मुझे बताया कि वैक्सीनेशन की मुहिम बेहद अहम है। यही नहीं, देश में फिलहाल मंजूर कोविशील्ड और कोवैक्सीन के अलावा नई वैक्सीन को भी इस मुहिम से जोड़ने की जरूरत है। खुशखबरी यह है कि कम से कम तीन अतिरिक्त वैक्सीन का भारत में ट्रायल अग्रिम चरण में है। इसलिए निकट भविष्य में हम मौजूदा मुहिम में तेजी लाने के लिए नई वैक्सीन को भी जोड़ने की उम्मीद कर सकते हैं।

लेकिन, मैं कोविड से निजात पाने की कुछ बेहतर उम्मीद की ओर देख ही रहा हूं, तभी एक दूसरी आफत मुझे घोर निराशा की ओर ढकेलती जा रही है। वह है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण जो हमें फिलहाल बंधक बनाती लग रही है। कोविड की चिंताजनक हालत तो बनी हुई है, इसी बीच महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों में कोरोनावायरस मामलों में इजाफे की तरह ही राजनैतिक बयानबाजी नई निचाइयों में धंसती जा रही है। सबका साथ जैसे नारे की तो मानो चिंदी-चिंदी उड़ाई जा रही है। इस वजह से हमारी आवरण कथा इसी का ब्यौरा दे रही है।

ऐसी विभाजनकारी राजनीति का गरमगरम हलका तो बेशक असम है, जहां एक इत्र व्यापारी महज अपनी मजहबी पहचान की खातिर बेतहाशा कीचड़ उछाल की वजह बन रहा है। वहां राजनैतिक पार्टियां स्‍थानीयों के मन में बहिरागतों से पिछड़ जाने के लंबे समय से बने डर के दोहन की कोशिश में जुटी हैं, एआइयूडीएफ के बदरुद्दीन अजमल और उनका समुदाय करीने से “पराया” बना दिए गए हैं।

कुछ को वोट देने का मतलब कुछ दूसरे नेता पाकिस्तान को वोट देना बता रहे हैं और हमारे सामुदायिक ताने-बाने को तार-तार कर रहे हैं। असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुदुच्चेरी में चाहे जो जीते, हार तो बिलाशक हमारे सामाजिक तानेबाने और राष्ट्रीयता के बुनियादी विचार की होगी। अफसोस! ऐसे संगीन महारोग के लिए कोई वैक्सीन उपलब्‍ध नहीं है।

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