भाजपा शासित प्रदेश राजस्थान में प्रतिदिन सौ गायों के मरने की ख़बरें आ रही हैं, सरकार द्वारा संचालित हिंगोनिया गौशाला की 9 हजार गायें चारे के अभाव में दम तोड़ रही है, सैंकड़ों गायें कुपोषित हैं और वहां भयंकर अव्यवस्था का आलम है। मिल रही जानकारियों के मुताबिक राज्य भर की हजारों गोशालाएं अनुदान के अभाव में इस अकाल के वक्त में मुश्किलों का सामना कर रही हैं। राज्य के गोशाला संचालक मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से बेहद खफा हैं। उन्हें लगता है कि जब से उनकी सरकार बनी है, राज्य का गोसेवा निदेशालय उपेक्षा का शिकार हो गया है। कुछ समय पहले राज्य की सबसे बड़ी पथमेड़ा गोशाला के संस्थापक स्वामी दत्तशरणानंद ने मुख्यमंत्री की गायों के प्रति निष्ठुरता से नाराजगी जाहिर की थी। गोसेवकों का कहना है कि भाजपा की वर्तमान सरकार से तो अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार ही अच्छी थी, जिन्होंने अपने कार्यकाल में गोसेवा निदेशालय बनाया और 300 करोड़ का अनुदान प्रदेश भर की गोशालाओं को दिया था।
एक ओर गायों के प्रति भाजपा सरकार का यह रवैया है और दूसरी ओर भाजपा तथा संघ से जुड़े संगठन गोरक्षा को बहुत बड़ा मुद्दा बनाए हुए हैं। गाय के नाम पर विज्ञापन दे कर वोट मांगे जा रहें है। गोमांस को लेकर विभिन्न राज्यों में अब तक पांच लोगों की हत्या हो चुकी है। इन हत्याओं की शुरुआत राजस्थान के नागौर जिले से मई में हुई थी, जहां पर दलितों के सामूहिक नरसंहार से ध्यान हटाने के लिए गोहत्या का मामला उठाया गया था और कई जगहों पर बंद का आह्वान किया गया था। इसी बंद के दौरान डीडवाना के गफूर मियां को उग्र भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला था। यह बिल्कुल उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या की तरह ही भीड़ का हमला था। अखलाक को भी उन्मत्त भीड़ ने गोमांस खाने के शक में मार डाला। इसी तरह जम्मू के एक ड्राइवर, मणिपुर के एक मदरसा टीचर और हिमाचल के एक मुस्लिम नौजवान को गोहत्या के शक के चलते अपनी जान गंवानी पड़ी। गोरक्षा के नाम पर इंसानों का मारा जाना निरंतर जारी है। वर्ष 2003 में हरियाणा के जिला झज्जर के दुलीना गांव के पांच दलितों को गाय हत्या के भ्रम में जिंदा जला दिया गया था। तब विश्व हिन्दू परिषद् के नेता गिरिराज किशोर ने इस दलित संहार को यह कह कर जायज ठहराया था कि उनके लिए दलितों की तुलना में गाय अधिक महत्वपूर्ण है। एक पूरी विचारधारा है जो यह मानती है कि इन्सान की अपेक्षा गाय अधिक पवित्र है। उसमें तैंतीस कोटि देवताओं का निवास है, उसकी हर चीज पवित्र है, उसका गोबर, उसका दूध, उसका मूत्र और मुंह से जुगाली के दौरान निकलने वाले झाग, सब कुछ पवित्र है, जबकि इन्सानों में ये खूबियां नहीं हैं। इसलिए इन्सान भले ही मर जाए मगर गाय को बचाया जाना चाहिए। चाहे गाय को बचाने के लिए किसी भी इन्सान की जान ही क्यों ना लेनी पड़े, ले ली जाए, पर गाय को बचाया जाए।
ऐसे माहौल में अगर किसी ने अपनी चेतना का इस्तेमाल किया, कोई सवाल खड़े किए, प्राचीन ग्रंथों को उधृत किया या गोमांस भक्षण के पक्ष में बोलने का कृत्य किया तो उसका सिर कलम किया जा सकता है, जैसा कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरामैय्या के बीफ खाने के बयान पर भाजपा नेता चेंबस्प्पा द्वारा दिया गया फतवा कहता है और देश भर में हो रही हत्याएं साबित कर रही हैं। संदेश साफ है कि जिंदा बचना है तो गाय के खिलाफ कुछ मत बोलो।
पिछले दिनों मुझे अपने शहर के कुछ मुस्लिम युवाओं ने कहा कि अब हम घर से निकलते है तो यह दुआ करते हैं कि हमारी गाड़ी से किसी गाय का एक्सीडेंट ना हो जाए, भले ही इन्सान को चोट आ जाए, हम बच सकते हैं, मगर गाय को लगी चोट हमारी जान ले सकती है। हाल ही में राजस्थान के भीलवाड़ा शहर की व्यस्ततम सड़क पर एक गाय मरी हुई पाई गई। खबर लगते ही सैंकड़ों की तादाद में गोभक्त इकट्ठा हो गए और रास्ता जाम कर दिया गया। जाम खुलवाने के लिए पुलिस को दो बार लाठीचार्ज करना पड़ा। अंततः मरी गाय का पोस्टमार्टम किया गया, जिसमें पता चला कि गाय भूख से मर गई थी। वह कई दिनों से भूखी थी। कैसी विडम्बना है कि यह सुनकर सारे गोभक्त चुपचाप वहां से खिसक लिए। सबको पता है कि आज अधिकांश शहरों की सडकों पर गायें आवारा घूमती हैं। उन्हें कोई चारा पानी देने वाला तक नहीं है, अलबत्ता जिन दुकानों के काउंटर पर गोसेवा की दान-पेटियां रखी रहती हैं और उस पर एक सुंदर सी स्वस्थ गाय की छोटी सी मूर्ति लगी रहती है, अपना ही फोटो देख कर कोई गाय गलती से भी अपने इस भक्त के पास चली जाए तो भक्त का डंडा गोमाता की पीठ लाल कर देता है।
गाय के नाम पर रात दिन चिल्लपों मचाने वालों को गाय की चिंता नहीं है, उन्हें गाय के नाम पर राजनीति करनी है, गाय पालनी नहीं है। घुमन्तु समुदायों के बीच कार्यरत युवा सामाजिक कार्यकर्ता पारस बंजारा कहते हैं कि गाय के नाम पर हंगामा करनेवाले लोगों के घरों में जा कर देखा जाए तो वहां कुत्ते मिलेंगे, वे कुत्ते पालते हैं, गायें नहीं। पर जब बात आती है तो घुमन्तु लोगों पर गोतस्करी के आरोप लगाए जाते हैं। राजनीतिक कार्यकर्ता लोकेश शर्मा का कहना है कि बीफ बीफ चिल्लाने वाले अब कहां हैं। मरी हुई गायों पर तो देश भर में हल्ला मचाते हैं, मगर यहां जयपुर में जिंदा गायें भूख से मर रही हैं, तब उनकी परवाह किसी भी गोभक्त को क्यों नहीं है?
वाकई देखा जाए तो आज सबसे ज्यादा दुर्दशा देशी गाय की है। जब से गोसंरक्षण का कानून बना है, तब से उसकी कोई पूछ नहीं बची है। आज किसी भी पशु मेले में गाय का कोई खरीददार नहीं मिलता। यहं तक कि पशु व्यापारी अब बैलों की खरीद फरोख्त से भी बचते हैं, भले ही वे कृषि प्रयोजन के लिए बैल या गाय खरीदते हैं पर उन पर गो तस्करी व गोहत्या के आरोप लगाए जाते हैं। इसलिए उन्होंने गोवंश को खरीदना अब छोड़ ही दिया है। इस तरह गाय हमारी पशु श्रृंखला का सबसे अवांछित प्राणी बन गई है।
राजस्थान ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के कई राज्यों के लाखों गांवों में गायें इधर-उधर मारी-मारी फिरती हैं। किसी भी गांव में जाने पर वहां दो-तीन सौ सूनी गायें घूमती मिल जाएंगी, जिसके चलते आज किसान खेती नहीं कर पा रहा है। अब गांव का किसान देशी गाय से भी उतना ही दुखी है, जितना वह फसल चौपट करने वाली नील गाय से दुखी रहा है। उसके लिए गाय वरदान नहीं अभिशाप बनती जा रही है। ये वही किसान है जो गाय की पूजा तो नहीं करता है मगर खूब देखभाल करता था और जिसके लिए गाय सिर्फ पशु नहीं बल्कि उसके परिवार का एक सदस्य हुआ करती थी, जो उसकी अर्थव्यवस्था का आधार थी। आज गाय उसकी आर्थिक रूप से कमर तोड़ने का साधन बन रही है। गाय के बछड़ों को तीन वर्ष का होने तक पालना किसी भी कृषक के बूते की बात नहीं रही है। हो यह रहा है कि किसान रात के अंधेरे में दूध ना देने वाली गायों और उद्दंड बछड़ों को शहर में छोड़ आते हैं, जहां पर यह गोवंश व्यापारी की लाठियों से पिटते हैं तो कभी वाहनों की चपेट में आ कर काल कवलित होते हैं।
इन शहरी आवारा गायों से टकराने वाले वाहन चालकों का दर्द तो कोई जानता भी नहीं है, जिनके वाहन इन पशुओं से टकराते हैं उनके चालक अपनी हड्डी पसलियां तुड़वा बैठते हैं। गाय का इतना अनादर हजारों साल की मानव सभ्यता में आज जैसा पहले कभी नहीं हुआ। आज हालात इतने विकट हैं कि जो किसान गाय पालता है, वह उससे पिंड छुड़ाना चाहता है और जो लोग गाय पालते नहीं बल्कि पूजते हैं, वे गाय के आधार पर सम्पूर्ण राजनीति, समाज और देश को चलाना चाहते हैं। गाय अब शुद्ध राजनीतिक विमर्श है। वह वोट लेने के काम के लिए इस्तेमाल की जा रही है। बहुत पहले प्रसिद्द व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने एक गोभक्त से भेंट नामक आलेख लिखा था, जिसमें वह कहते हैं कि विश्व के तमाम देशों में गाय दूध देने के काम आती है मगर भारत दुनिया का एकमात्र देश है जिसमे वह दूध देने के नहीं बल्कि दंगा कराने के काम आती है।
बात कडवी जरुर है पर सत्य के बहुत पास है। आज गाय को धार्मिक आस्था का मुद्दा बना कर राजनीति की जा रही है। इस बात को आरएसएस के पूर्व प्रचारक और पूर्व भाजपा के नेता के एन गोविंदाचार्य भी स्वीकारते हैं। वे 9 नवंबर से गोरक्षा के लिए राष्ट्रव्यापी आन्दोलन शुरू करने जा रहे थे, जिसे उन्होंने स्थगित करते हुए कहा है कि ‘मैं गाय के मुद्दे के राजनीतिकरण से आहत हूं, गौरक्षा एक धार्मिक मुद्दा नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से इसे धार्मिक मुद्दा बनाया जा रहा है।‘ उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि गाय की हत्या के लिए हिन्दू ही जिम्मेदार हैं क्योंकि गाय बुचड़खाने तक तभी पहुंचती है, जब किसान उसे बेचता है। इस प्रक्रिया में 80 % तो हिन्दू ही शामिल हैं। फिर हम मुसलमानों पर इलज़ाम क्यों लगा रहे है, जो गौ व्यापार की इस बेहद लंबी प्रक्रिया के आखिर में थोड़े से हैं।
सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वामी आर्यवेश ने भी दादरी जैसी घटनाओं को दुखद बताते हुए गाय के नाम पर की जा रही राजनीति से असहमति जताई है। उनका कहना है कि गोमांस की अफवाहें फैलाकर किसी कि हत्या करना गौसंरक्षण नहीं है। विगत दिनों उदयपुर में सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में बोलते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया कि बकरा, मुर्गा, मछली और तीतर-बटेर खा कर गोसंरक्षण की बात करने वाले सबसे बड़े पाखंडी हैं।
कई किसान नेता भी अब बोलने लगे हैं। उनका कहना है कि गोरक्षा का शिगूफा व्यापारियों का है, वे गोशालाओं के जरिये गायों पर राजनीति कर रहे हैं और किसानों की आर्थिक रूप से कमर तोड़ रहे हैं। यह व्यापारी तबका गाय के नाम पर बड़ा व्यापारिक साम्राज्य खड़ा कर रहा है। आज गोमूत्र अर्क से लेकर उसका गोबर तक बेचा जा रहा है। स्थिति यह है कि गोबर के उपले अब 40 रुपये प्रति उपले की दर पर ऑनलाइन बिक रहे हैं। किसान के पास एक अदद गाय थी, वह भी बाजार ने उससे छीन ली है। गाय को आज जी भर कर इस्तेमाल किया जा रहा है, राजनीति और मार्केट दोनों में ही।
अब सबसे बड़ा सवाल संघ परिवार और सत्तारूढ़ भाजपा की मंशा पर उठ रहा है। लोग कहने लगे हैं कि न तो संघ कार्यालयों में गाय पाली जाती है और न ही भाजपा कार्यालयों में। यहां तक कि संघ भाजपा के नामचीन नेताओं के घरों में गाय का नामोनिशान तक नहीं है। वे सिर्फ गाय के चित्र घरों में लगाते हैं। उनके दफ्तरों की चमचमाती टेबलों पर गोरक्षा के कैलेंडर जरूर दिखाई पड़ते हैं। और फिर जब-जब भी चुनाव का मौसम आता है उनके लिए गाय वोट देने वाली दुधारू गाय बन जाती है। जब भी लोग अपने हक अधिकार मांगने लगते हैं, सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने लगते हैं, गोहत्या के विरुद्ध आन्दोलन तेज हो जाता है। सच तो यह है कि बेचारी गाय खुद यह समझ पाने में असफल है कि यह मेरे नाम पर हो क्या रहा है? मुझे चारा-पानी देने के बजाय लोग मेरी पूजा क्यों कर रहे हैं और मुझे मां कहनेवाले लोग मुझे डंडे से क्यों मार रहे हैं? गायों की देश वासियों से अपील है कि वो उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें, उन्हें उनकी इस इंसानियत की कोई जरूरत नहीं है और न ही उन्हें देवता बनना है। उन्हें अपना पूर्ववत पशुवत होना ही प्रिय है। उन्हें इन्सानों से कोई लेना देना नहीं है, वे फिर से पशु हो जाना चाहती हैं।
( भंवर मेघवंशी स्वतंत्र पत्रकार हैं)