यह खासकर पूछा गया है कि क्या मध्यवर्ग को मिलने वाली ईंधन सब्सिडी पर वाहन विहीन एक ज्यादा बड़ी आबादी का बेहतर हक नहीं बनता था। इसी तरह यह भी पूछा गया कि क्या आयकर छूट सहित कृषि सब्सिडी से सीमांत किसानों के मुकाबले समृद्ध भू-स्वामियों को ज्यादा फायदा नहीं होता है। गरीबों को सीधे सब्सिडी देने की कोशिशों, जैसे लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली, के मिले-जुले नतीजे आए हैं। हालांकि यह प्रयास विचारधाराओं की लड़ाई की चपेट में आते रहे हैं। इस संबंध में एक राजनीतिक तबका अन्यों पर जरूरतमंद लोगों को वंचित करने का आरोप लगाता है।
लेकिन यह हाल ही में हुआ है कि राजनीतिक कुलीन के विशेषाधिकारों पर जनता सवाल उठाने लगी है और उनकी आलोचना करने लगी है। जैसे-जैसे भारत का मध्य वर्ग आकार और समृद्धि में बड़ा हो रहा है उसका प्रभाव बढ़ा है और वह इन विशेषाधिकारों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने से हिचकता नहीं है, चाहें वह सांसदों के लिए कैंटीन में खाने की सब्सिडी का मामला हो, चाहें वीआईपी सुरक्षा पर अत्यधिक खर्च सुरक्षा जांच में छूट की बात हो या वीआईपी गाड़ियों के ऊपर लालबत्तियों का मसला हो। कई भारतीय इसे औपनिवेशिक मानसिकता का अवशेष मानते हैं, मानो सिर्फ अपना काम करने के लिए कुलीन को विशेष सुविधाएं चाहिए। वे उन्हें 21वीं सदी में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के उपयुक्त नहीं मानते।
ऐसे विशेषाधिकारों की कुछ किस्मों का संबंध लगातार जमा होते गए राजनीतिक पाखंड से है। इनका एक स्पष्ट उदाहरण उच्चतर सार्वजनिक पद पर आसीन लोगों के वेतन में देखा जा सकता है जिसके दिखने वाले हिस्से तो निजी क्षेत्र के समान पदों वाले लोगों से कम होते हैं लेकिन मिलने वाली सुविधाओं का रुपये में मूल्य बहुत ज्यादा होता है - जैसे मुफ्त या सस्ता आवास। अब यह बहस करने का समय आ गया है कि हमारे देश के लिए सिंगापुर जैसे देशों की नकल ज्यादा फायदेमंद नहीं है जहां सार्वजनिक पदाधिकारियों का वेतन, वह भी दिखने वाला वेतन बेहद ऊंचा है।
जहां तक गरीबों के लिए सब्सिडी की बात है, भारत की भूलभुलैया वाली और कई छिद्रों वाली सरकारी व्यवस्थाओं से बचने के लिए नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की कोशिशें अभी प्रारंभिक अवस्था में ही हैं लेकिन आधार का प्रभाव दिखने लगा है जिसे यूपीए सरकार का सबसे बड़ा परिवर्तनकारी विचार कह सकते हैं। हालांकि उसे लागू करने में हिचकने की कीमत यूपीए को चुकानी पड़ी। लाभ के सीधे हस्तांतरण की व्यवस्था का उपयोग रसोई गैस सिलेंडरों की सब्सिडी राशि जरूरतमंद लाभार्थियों के खातों में सीधे पहुंचाने के लिए किया जा रहा है। यह लाभ पहुंचाने में दोहराव या फर्जीवाड़ा न हो, इसके लिए आधार कार्यक्रम अपने अभिन्न अंग बायोमैट्रिक पहचान पर निर्भर है। लाभ का सीधे हस्तांतरण दरअसल नकद हस्तांतरण का ही दूसरा नाम है। हालांकि यह कई देशों में सफल रहा है और इसके पक्ष में कई अगुआ अर्थशास्त्री रहे हैं, कुछ लोग इसका विरोध करते हैं। उनके इस तर्क पर बहस की जा सकती है कि भारत की भ्रष्ट और अक्षम डिलीवरी व्यवस्था को सुधारा नहीं जा सकता है और उसे चलते रहते रहना चाहिए।
बहरहाल, इस पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि वैश्विक पेट्रोलियम कीमतों में पिछले साल लगातार गिरावट के कारण भारत को अपना दम साधने और सब्सिडी सिद्धांत पर पुनर्विचार करने का मौका मिल गया है, बिना कीमतें बढ़ाए या उसके राजनीतिक नतीजों की परवाह किए सरकार ईंधन सब्सिडी में तीखी कटौती कर पाई है। इस पृष्ठभूमि में खाते-पीते लाखों लोगों को सब्सिडी छोड़ने के लिए प्रेरित करने का विचार और ऐसा करते हुए गर्व महसूस करना एक क्रांतिकारी प्रयास है। लेकिन यह करके सरकार ने ऐसी प्रतिक्रियाएं सुलगाई हैं जिनके दूरगामी और अनपेक्षित नतीजे हो सकते हैं।
एक प्रतिक्रिया तो मध्यवर्ग में इस बढ़ते अहसास के रूप में प्रकट होती है कि वह रसोई गैस सब्सिडी छोड़ सकता है तो सांसदों को भी सस्ते भोजन का आनंद नहीं उठाना चाहिए। सांसदों के भोजन की सब्सिडी का इस आधार पर बचाव उचित नहीं लगता कि उनके अलावा अन्य कई लोग इसका फायदा उठाते हैं। इन अन्य लोगों में ज्यादातर सरकारी कर्मचारी और पत्रकार किस्म के लोग हैं जो निर्धनतम नागरिकों के प्रतिनिधि कतई नहीं कहे जा सकते। ताबूत में अंतिम कील तो यह प्रतिक्रिया साबित होती है कि संसद के परिसर में किसी को यदि खाद्य सब्सिडी चाहिए तो वे उसे पारदर्शिता के साथ ग्रहण करें - जैसे प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण। संसदीय कैंटीन की सब्सिडी सबसे महंगी सुविधा तो नहीं है, जो आवास एवं अन्य ऐशो-आराम के आगे फीकी पड़ जाती है। और राजनीतिज्ञ ऐसी विशेष सुविधाओं से सबसे ज्यादा लाभान्वितों में नहीं आते। अनिर्वाचित और सबसे कम जवाबदेह वरिष्ठ सरकारी कर्मचारियों की सुविधाओं और विशेषाधिकारों की सूची पर एक नजर डालने से यह स्पष्ट हो जाता है। लेकिन सब्सिडी की पुनः - इंजिनियरिंग के इस दौर में यह छोटा विशेषाधिकार भी कई लोगों को अब खलने लगा है। इसकी समाप्ति एक छोटा कदम हो सकती है लेकिन उससे सांसदों के लिए अन्य सब्सिडियों पर गंभीर चर्चा की जगह जरूर बनती है।
लेखक बीजेडी के लोकसभा सांसद हैं। उनका यह आलेख outlookindia.com पर http://www.outlookindia.com/article/doling-out-thoughts/294913 लिंक के जरिये पढ़ा जा सकता है।