करीब पांच साल पहले दंगों की प्रयोगशाला बने शामली, कैराना और मुजफ्फरगर का नया चेहरा सामने आया है। साल 2014 के लोक सभा चुनावों में ध्रुवीकरण के एपीसेंटर ने 2018 में ध्रुवीकरण के फॉर्मूले को ही नकार दिया है। शामली और सहारनपुर जिलों की पांच विधान सभा सीटों कैराना, शामली, थानाभवन, गंगोह और नकुड़ को मिलाकर बनने वाली कैराना लोक सभा सीट से मुस्लिम उम्मीदवार तबस्सुम हसन को राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) की उम्मीदवार बनाने के पीछे जो सियासी रणनीति थी, वह कामयाब हो गई। तबस्सुम हसन ने कैराना को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाले दिवंगत हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को लोकसभा उपचुनाव में हरा दिया है।
बात केवल एक लोक सभा सीट की नहीं है। बात उस राजनीतिक समीकरण के जिंदा होने की है जो 2013 के मुजफ्फरनगर, शामली और कैराना के दंगों में दरक गया था। इलाके की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली जाति जाट और संख्या में भारी पड़ने वाले मुसलमानों के बीच एक बड़ी खाई पैदा हो गई थी। जिसके नतीजे 2014 के लोक सभा चुनावों और 2017 के विधान सभा चुनावों के नतीजों में देखने को मिला और उसका फायदा भाजपा को भारी जीत के रूप में मिला था। वहीं किसानों और जाटों की पार्टी मानी जाने वाली रालोद का अस्तित्व दांव पर लग गया था। लेकिन आज के नतीजों ने पार्टी की दोनों पहचानों को जिंदा कर विपक्षी गठजोड़ का रास्ता खोल दिया है।
करीब 16 लाख मतदाताओं वाली कैराना सीट में 5.5 लाख मुसलमान और करीब 1.8 लाख जाट वोट हैं। दलितों के करीब दो लाख वोट हैं। बाकी वोटों में गूजर, कश्यप और उच्च वर्ग के वोट हैं। यहां मुसलमान, जाट और दलितों के साथ आने के बाद भाजपा के लिए पहले दिन से ही सीट जीतना मुश्किल लग रहा था।
काम आया जयंत का गांव-गांव घूमना
असल में कैराना लोक सभा सीट के लिए 13 मई को पहला विधिवत प्रचार शुरू करने के दिन शामली जिले के नाला गांव की रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी की पहली मीटिंग से जो सिलसिला शुरू होते हुए दिखा वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक नये राजनीतिक नेतृत्व का संकेत दे रहा था। उस दिन इस लेखक के साथ बातचीत में जयंत कह रहे थे कि यह चुनाव भाईचारे के लिए ज्यादा अहम है। भाजपा को संख्या के मामले में कोई अंतर नहीं पड़ेगा, लेकिन रालोद के लिए यह एक नये राजनीतिक सफर की शुरुआत है। हम चौधरी चरण सिंह की विचारधारा को साथ लाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और इसी विचारधारा में सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ जुगलबंदी मजबूत हो रही है।
कैराना और नूरपुर उपचुनाव के दौरान जाटों के अंदर एक कसक भी साफ दिखी। वह कसक है एक पार्टी के अस्तित्व का सिमटना। करीब दो दर्जन जाट बहुल गांव घूमने के दौरान यही देखने को मिला। 2013 के दंगों में सबसे अधिक प्रभावित लांक, बहावड़ी, लिसाड़ और हसनपुर इस लोक सभा सीट के वे गांव हैं जहां से हजारों लोगों के खिलाफ दंगों के केस दर्ज हुए। लेकिन वहां पर भी लोगों में भी भाजपा को लेकर नाराजगी दिख रही थी। वहां जाटों का साफ कहना था कि इस बार तो रालोद को ही वोट जाएगा। हमें पार्टी को जिंदा करना है। दिलचस्प बात यह है कि इन गावों से उजड़कर दूसरे गावों में बसे मुसलमान परिवार भी स्वीकारने लगे हैं कि गलती हुई थी। लेकिन अब पुराने गिले-शिकवे दूर होने चाहिए।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर भारी सामाजिक समीकरण
भाजपा ने कैराना में सांसदों, विधायकों और मंत्रियों की फौज उतार दी थी, लेकिन उनका पूरा एजेंडा दंगों में फंसे लोगों की मदद के दावे और 2013 में जाटों के खिलाफ हुई प्रशासनिक ज्यादतियों पर ही फोकस रहा। दूसरा बड़ा दावा कानून-व्यवस्था में सुधार का था। इसके अलावा जिन्ना विवाद से लेकर आतंकवाद, पाकिस्तान, कश्मीर, पलायन जैसे मुद्दों को उठाकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने की खूब कोशिशें की गईं। वह जाट बहुल गांवों में रालोद का विरोध नहीं कर पा रहे थे तो रालोद प्रत्याशी के मुस्लिम होने और सपा से आने का मुद्दा उठाया। जाहिर है जाट-मुस्लिम और दलित मतों के सामाजिक समीरकण ने भाजपा के मंसूबों पर पानी फेर दिया। फूलपुर और गोरखपुर के बाद कैराना और नूरपुर की हार भाजपा के लिए बड़ा सबक है।
गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा उपचुनाव में हारने के बाद भाजपा किसी भी कीमत पर कैराना को जीतना चाहती थी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने खुद सहारनपुर के अंबेहटा और शामली में दो चुनावी सभाएं की थी। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मोर्य ने लगातार यहांं प्रचार किया। वहीं योगी आदित्यनाथ के लिए लगातार तीन लोक सभा चुनाव हारना उनकी छवि के लिए घातक साबित हो सकता है। योगी को भाजपा ने दूसरे राज्यों में भी बड़े वोट जुटाने वाले प्रचारक के रूप में इस्तेमाल किया लेकिन खुद के राज्य में लगातार चुनाव हारना उनके लिए बड़ा झटका साबित हो सकता है।
जिन्ना नहीं गन्ना
असल में ध्रुवीकरण पर केंद्रित भाजपा की चुनावी रणनीति में मुद्दे गायब हो गये। यहां पर गन्ना मूल्य भुगतान में देरी सबसे बड़ा मुद्दा बन रहा था जिससे सभी जातियों के किसान नाराज थे। कैराना सीट में पड़ने वाली पांच चीनी मिलों पर ही करीब 800 करोड़ रुपये का बकाया भुगतना था। मतदाता इस पर हर जगह सवाल उठा रहे थे जिसका जवाब भाजपा के नेता और मंत्री नहीं दे पा रहे थे। खास बात यह है कि राज्य के गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा का विधान सभा क्षेत्र थानाभवन भी इसी सीट में है। इसने लोगों के गुस्से को और अधिक बढा दिया था। चुनाव के पहले इस लेखक से बातचीत में राणा भुगतान में देरी से नाराजगी की बजाय गन्ने की अधिक पेराई कराने को फायदे की बात बता रहे थे। इसके साथ ही राज्य सरकार ने घरेलू और खेती की टयूबवैल के लिए बिजली की दरों में जो बढ़ोतरी की उसको लेकर भी लोगों में भारी नाराजगी थी।
रालोद ने अपने प्रचार के केंद्र में दो बातें प्रमुखता से रखी। पहली थी धार्मिक भाईचारा का संदेश और दूसरी, किसानो के मुद्दे जिसमें गन्ना मूल्य का बकाया और बिजली की दरों में बढ़ोतरी प्रमुख थी।
काम न आई पीएम मोदी की मेहनत
कैराना के इस चुनाव ने कई भ्रम भी तोड़े जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वोट बटोरने वाली छवि और स्थानीय प्रशासन के दुरुपयोग को लेकर थे। चुनाव प्रचार समाप्त होने के अगले दिन और मतदान के एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कैराना से सटे बागपत में ईस्टर्न पैरिफरल एक्सप्रैसवे का उद्घाटन करना और वहां पर रैली को संबोधित करना। इस संबोधन में गन्ना मूल्य भुगतान की सरकार की कोशिश का प्रमुखता से उन्होंने जिक्र किया। इस रैली के खिलाफ रालोद की शिकायत पर चुनाव आयोग की चुप्पी भी हैरान करने वाली रही।
उपचुनाव में दिखी भाईचारे की मिसाल
उपचुनाव के दिन जिस तरह से पुलिस और प्रशासन का रवैया रहा और बड़े पैमाने पर वीवीपैट के बंद होने से चुनाव प्रक्रिया बाधित हुई वह चुनाव आयोग को कटघरे में खड़ा कर गया। लेकिन मतदाताओं की जिद के आगे सारे हथकंडे बेकार होते दिखे। सरसावा के मीरपुर गांव की कंपोस जब कहती हैं कि कई बार वोट डालने गये लेकिन मशीन में खराबी की वजह से लौटना पड़ा लेकिन जिद थी कि वोट डालनी है और पूरे गांव ने देर तक मतदान किया। राष्ट्रीय मीडिया की कवरेज का ही नतीजा था कि 73 पोलिंग बूथों पर 30 मई को दोबारा मतदान हुआ।
इस मतदान ने नतीजों पर बड़ा असर डाला। जिस तरह से ऊन और गढ़ी पुख्ता के उदाहरण आए, जहां जाट महिलाओं ने रोजेदार मुस्लिमों को पहले वोट देने के लिए खुद को कतार में पीछे कर लिया वह सहिष्णुता की मिसाल थी। यह बात केवल दो गांवों तक सीमित नहीं रही दर्जनों गांवों में इसी तरह के उदाहण मिल रहे थे। जिस तरह से नकुड़ सीट के शुक्रताल गांव में जाटों ने दलितों की वोट डलवाने के लिए पोलिंग अधिकारियों को मजबूर किया और खराब मशीन बदलने के लिए दबाव बनाया वह जाट और दलितों को भी साथ लाने का माहौल बना गया।
2014 के लोकसभा चुनावों में भारी ध्रुवीकरण के चलते उत्तर और पश्चिम भारत के नौ राज्यों में लोकसभा का एक भी मुस्लिम सांसद नहीं चुना गया था। इनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और गुजरात शामिल हैं। इन सभी राज्यों में भाजपा को भारी जीत मिली थी। कैराना से एक सांसद के रूप में तबस्सुम की जीत ने इस खाली जगह को भर दिया। इस तरह से कैराना लोक सभा के चुनाव का यह परिणाम देश की एक बड़ी आबादी के लिए संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में वापसी का भी भरोसा पैदा कर गया है।