घर के ड्राइंग रूम में सब साथ बैठे हैं, पिता, माँ, बेटा, बेटी, दादी !लेकिन कमरे में सन्नाटा है। ना कोई बातचीत, ना कोई नज़दीकी। सबकी नज़रें फोन पर हैं और दिलों के बीच एक अनदेखी खाई बन चुकी है। एक समय था जब शाम की चाय पर चार बातें होती थीं, पर अब हर हाथ में एक स्क्रीन है, और मन जैसे अलग-अलग द्वीपों पर बह रहे हैं। ‘स्मार्टफोन’ जो कभी हमारी ज़रूरत बना था, अब हमारी दिनचर्या का केंद्र है। 2024 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में एक व्यक्ति औसतन 6.5 घंटे रोज़ स्क्रीन पर बिताता है, जिसमें सोशल मीडिया का औसत उपयोग 2.5 घंटे है। परंतु इसमें से रिश्तों, संवाद और भावनाओं के लिए समय कितना है ,यह प्रश्न भीतर तक चुभता है। जिनके साथ हम जीते हैं, उनके साथ बिताने को समय कम पड़ रहा है, पर जिनसे हमारा कोई निजी नाता नहीं, उनके वीडियो और स्टोरीज़ में हम घण्टों डूबे रहते हैं। यह केवल समय की चोरी नहीं है, यह हमारे संबंधों की बुनियाद को कमजोर करने की प्रक्रिया है। और दुखद यह है कि हम इसे पहचानते हुए भी अनदेखा कर रहे हैं, मानो यह सब सामान्य हो चला हो।
तकनीक की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। स्मार्टफोन ने सूचनाओं को सहज बनाया, आपसी संवाद को सुलभ किया और कई जीवनोपयोगी विकल्प खोल दिए। लेकिन जब हर क्षण फोन की स्क्रीन से चिपककर जिया जाए, तो यह सुविधा धीरे-धीरे असंवेदनशीलता में बदल जाती है। पहले मनुष्य अपने आसपास से जुड़कर जीता था, अब वह नोटिफिकेशन के इंतज़ार में जीने लगा है। यह समय का संकट नहीं, चेतना का संकट है। भारत में ही साल 2023 में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी हेल्पलाइनों पर आने वाले कॉल्स में 60% कॉल्स ऐसे थे, जहाँ लोग अपने आसपास के लोगों से संवाद न कर पाने की वजह से अकेलापन महसूस कर रहे थे। यह स्थिति दर्शाती है कि तकनीक से जुड़े होने का अर्थ यह नहीं कि हम भावनात्मक रूप से जुड़े भी हैं। स्मार्टफोन ने संवाद के स्वरूप को तेज़ किया, परंतु संवाद की आत्मा को बेमानी बना दिया। लोग अब एक-दूसरे के सामने होते हुए भी गूंगे बन जाते हैं। हम स्क्रीन पर तो ‘टाइप’ कर सकते हैं, लेकिन सामने बैठकर ‘कह’ नहीं सकते। यह दुर्भाग्य है कि हम संवाद से नहीं, ‘डिलीटेड मैसेज’ से रिश्ते तोलने लगे हैं।
रिश्तों की यह दरार सिर्फ युवा पीढ़ी तक सीमित नहीं है, बल्कि अब यह हर वर्ग और हर आयु में प्रवेश कर चुकी है। बुज़ुर्ग अपने बच्चों से संवाद की आशा करते हैं, पर बच्चे बिज़ी हैं—फोन में, मीटिंग्स में, चैट्स में। पति-पत्नी, जो दिन का अधिकांश समय साथ बिता सकते हैं, वे भी फोन में ‘स्क्रॉलिंग’ में डूबे रहते हैं। स्क्रीन पर नज़रे होती हैं, लेकिन मन कहीं और। आज की दुनिया में ‘बिज़ी होना’ गर्व का विषय बन गया है, लेकिन इस ‘बिज़ीनेस’ के पीछे जो शून्यता है, वो किसी को दिखाई नहीं देती। National Family Health Survey (NFHS-5, 2021) में यह सामने आया कि 85% शहरी किशोरों के पास व्यक्तिगत स्मार्टफोन है, लेकिन 80% बच्चों का यह मानना है कि उनके माता-पिता के पास उनके लिए पर्याप्त समय नहीं होता। यह आंकड़ा केवल डिजिटल गैप नहीं, भावनात्मक दूरी को भी दर्शाता है। बच्चों के साथ बैठकर कहानी कहने का समय नहीं है, क्योंकि हम खुद ‘रील्स’ में उलझे हैं। इस स्थिति ने एक ऐसी पीढ़ी तैयार की है जो ‘कनेक्टेड’ है, लेकिन ‘कटा हुआ’ महसूस करती है।
इस युग में ‘समय देना’ सबसे बड़ा प्रेम का रूप बन गया है। पर हम यह देने में चूक रहे हैं। रिश्तों की गहराई अब ‘कॉल ड्यूरेशन’ में नहीं, ‘ब्लू टिक’ और ‘लास्ट सीन’ में नापी जाती है। लेकिन क्या यही समय का सही उपयोग है? क्या वास्तव में हमारे पास समय नहीं है, या हम उसे उन पर खर्च नहीं करना चाहते, जो हमारे सबसे क़रीबी हैं? कुछ मनोवैज्ञानिक इसे ‘डिजिटल नशा’ कहते हैं — एक ऐसा व्यवहार, जिसमें इंसान खुद से भी कटने लगता है। वर्ष 2024 में AIIMS द्वारा जारी रिपोर्ट में यह बताया गया कि भारत के 25% युवा डिजिटल ओवरयूज़ सिंड्रोम से ग्रसित हैं, जिससे उन्हें तनाव, चिड़चिड़ापन, और सामाजिक संबंधों में दूरी हो रही है। यह आँकड़े सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य के नहीं, सामाजिक संबंधों के भी संकट हैं। एक टेबल पर चार लोग बैठकर खाना खा रहे हैं और सबके हाथ में मोबाइल है — यह दृश्य अब रोज़मर्रा की हकीकत बन चुका है। यह सब होते हुए भी हम यह मानने को तैयार नहीं कि हमने ‘रिश्तों’ को ‘डेटा पैक’ से सस्ता कर दिया है।
फिर सवाल उठता है -क्या इसका कोई समाधान है? क्या हम इस तेज़ रफ्तार डिजिटल संसार में भी अपने रिश्तों को बचा सकते हैं? उत्तर है-हाँ, पर इसके लिए संकल्प चाहिए। सबसे पहले, हमें डिजिटल अनुशासन लाना होगा। हर दिन कुछ घंटे ऐसे हों जब मोबाइल पूरी तरह दूर रखा जाए -खासकर खाने के समय, परिवार के साथ बैठकों के समय, और बच्चों से बातचीत के समय। नो फोन ज़ोन की संस्कृति हमें फिर से सामूहिकता की याद दिला सकती है। इसके अलावा, बच्चों को डिजिटल उपयोग के बारे में सही मार्गदर्शन देना अनिवार्य है -उन्हें यह सिखाना कि टेक्नोलॉजी साधन है, जीवन नहीं। स्कूलों और परिवारों को मिलकर ‘स्क्रीन टाइम’ के नियम बनाने होंगे। सप्ताह में एक दिन ‘डिजिटल फास्टिंग’ या ‘फैमिली टाइम’ जैसे अभ्यास रिश्तों में गर्मी ला सकते हैं। ऑफिस संस्कृति में भी, डिजिटल ब्रेक को मान्यता दी जानी चाहिए। यदि सरकार और समाज मिलकर डिजिटल वेलबीइंग अभियान चलाएँ, तो यह आज के युग की नई आवश्यकता होगी।
हर समय का एक मूल्य होता है। आज के समय की सबसे बड़ी कमी ‘वक्त की अनुपलब्धता’ नहीं, ‘अपनों को वक्त न देना’ है। हम जितना समय दूसरों की लाइफ में झाँकने में खर्च करते हैं, उसका एक हिस्सा अगर अपने लोगों को दें - तो शायद रिश्तों की वह ऊष्मा लौट आए, जो अब इतिहास बनती जा रही है। स्मार्टफोन के इस युग में जहाँ हर जानकारी एक क्लिक पर है, वहीं एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से संवाद के लिए तरस रहा है। हम मशीनों से तेज़ हो गए हैं, पर शायद इंसानों से दूर। समय सबसे कीमती वस्तु बन चुका है, और यह वह मुद्रा है जिसमें सबसे सुंदर रिश्ते खरीदे जा सकते हैं। इसलिए अब ज़रूरत है कि हम फिर से अपने रिश्तों की तरफ लौटें-वक़्त देकर, मन लगाकर, और यह स्वीकार करते हुए कि “रिश्ते चलाने के लिए नेटवर्क नहीं, मन चाहिए।” जब हम फिर से मिल बैठेंगे, बिना किसी स्क्रीन के बीच में आए-तब शायद वक्त महँगा नहीं, बेहद मूल्यवान लगेगा।