इस 25-26 जून को आपातकाल की के 43 साल पूरे हो रहे हैं। वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात में किया था।
इससे पहले 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर उनकी सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी। उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देश व्यापी आंदोलन का आह्वान किया था। यहां तक कि सेना से भी सरकार के गलत आदेशों को नहीं मानने का आह्वान किया गया था। स्थिति से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने अपने करीबी लोगों, खासतौर से छोटे बेटे संजय गांधी, कानून और न्याय मंत्री हरिराम गोखले और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के बाद बाद देश में ’आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आंतरिक आपातकाल लागू करवा दिया था। नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं समाप्त करने के साथ ही प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तत्कालीन विपक्ष के तमाम नेता-कार्यकर्त्ता आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा ) और भारत रक्षा कानून (डी आई आर) के तहत गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिए गए थे।
दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है। भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने दो साल पहले हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया था। आज दो साल बाद स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं। देश आज धार्मिक कटृटरपंथके सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है। प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की‘अघोषित सेंसरशिप’ के संकेत साफ दिख रहे हैं।
आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे। तब हम पत्रकार नहीं बल्कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे। आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा। जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे। यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे। डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए। सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे।
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था।
'पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला'
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी।’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ’दमा की दवा मिल गयी है।’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हर संभव मदद करें।’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। उनके घरों में छिप कर रहना,खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद आम बात थी।
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था। मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए।
हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’ इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए। आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे। आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम। मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं। लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है। आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया। और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी। बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे ’लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की। उन पर अमल भी किया। इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 42 वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ’एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं। ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं। इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन का जागरूक और तैयार करने की जरूरत है।